नादब्रह्म की साधना

July 1986

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आत्मविद्या के पारंगतों ने मनोनिग्रह के लिए नादयोग की साधना को अमोघ-अस्त्र की तरह पाया है और कहा है कि उस आधार पर मन की चंचलता को काबू में किया जा सकता है और निग्रहित मन अपनी एकाग्र शक्ति से भौतिक एवं आत्मिक स्तर की अनेकानेक सफलताएँ प्राप्त कर सकता है।

बाराहोपनिषद् में कहा गया है कि— जिस प्रकार सपेरा बीन बजाकर सर्प को मोहित करता और पकड़कर पिटारी में बंद कर लेता है, उसी प्रकार नादब्रह्म श्रवण द्वारा मन को एकाग्र रहने के लिए बाधित किया जा सकता है।

मारीचि तंत्र में इसी प्रसंग में हिरण और व्याघ की उपमा देते हुए कहा है कि वंशी की ध्वनि पर मोहित मृग भी इसी प्रकार पकड़ा जाता है। उसी प्रकार मन को भी कुमार्गगामी होने से रोककर इच्छित प्रयोजन में लगाया जा सकता है।

योग रसायनम् में नादयोग का प्रत्यक्ष जीवन पर प्रभाव बताते हुए कहा है कि- नादयोग द्वारा प्राण वायु को हृदय स्थान में रोग सकने वाला योगी-रूप लावण्यमयी दिव्य देह का स्वामी हो जाता है। प्रतापी बनता है, प्रतिभा निखरती है और उसके शरीर में से दिव्य गंध आने लगती है।

आगे उसी ग्रंथ में कहा गया है कि— इंद्रियों का स्वामी मन है। मन का स्वामी प्राण। प्राण का स्वामी लय और लय का अधिपति नाद है। इसलिए नाद की गरिमा सर्वोपरि है।

नादबिंदु उपनिषद् में कहा गया है कि— नादानुसंधान से चित्त शांत हो जाता है। दिव्य रस का आस्वादन करने लगता है। फिर उसका मन, वासना एवं तृष्णा की ओर नहीं दौड़ता।

शिव पुराण में नादयोगी को सुनाई पड़ने वाली ध्वनियों का वर्णन है (1) काँसे की थाली पर चोट मारने जैसी झनझनाहट (2) समुद्र गर्जन जैसा घोष (3) तुरही बजने जैसी आवाज (4) घंटा बजने जैसी (5) वीणा बजने जैसी (6) वंशी जैसी (7) दुंदुभि जैसी (8) नगाड़े जैसी (9) शंख जैसी (10) मेघ-गरजन जैसी ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं। बीच-बीच में पायल बजने, कोकिल कूकने, बुलबुल चहकने, सितार बजने और कभी सिंह दहाड़ने जैसी ध्वनियाँ भी सुनाई देती और लुप्त होती रहती हैं।

इन भिन्नताओं का कारण जावाल दर्शनोपनिषद् में बताया गया है कि नाद द्वारा प्राण अवरुद्ध होकर शरीर के किस क्षेत्र में ठहर रहा है, इसी के अनुसार इन ध्वनियों का उभार होता है। जिस क्षेत्र को बलिष्ठ बनाना हो वहाँ प्राण रोककर यह जानना चाहिए कि किस प्रकार के नाद का उत्थान हुआ। उस नाद को धारण-प्रगाढ़ करते रहने पर चित्त और प्राण दोनों ही उस स्थान पर रुककर सुधार एवं विकास का कार्य आरंभ कर देते हैं।

योगशास्त्रों में ध्वनियों का विभाजन दो भागों में किया गया है, एक आहत दूसरी अनाहत। आहत उसे कहते हैं जो किसी हलचल या टकराहट के कारण होती है। अनाहत उसे कहते हैं जो अधिक दिव्य होता है। चेतना, देवता अथवा ब्रह्मरंध्र में दैवी संपर्क से जो ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें अनाहत कहते हैं।

आहत ध्वनियों का अभ्यास साधक को इस प्रकार की सिद्धावस्था में ले जाता है, जिससे वह जान सके कि दृश्य या अदृश्य जगत में पदार्थों की-घटनाओं की क्या संभावना पक रही है। हाँडी में चावल पकाने पर जो आवाज सुनाई पड़ती है, उससे प्रतीत होता है कि हाँडी के भीतर क्या स्थिति चल रही है। इसी प्रकार संसार के विभिन्न क्षेत्रों में कहाँ-क्या-कुछ हो रहा है या होने जा रहा है, इसका बोध आहत शब्दों के अभ्यास से होता है। तंत्र ग्रंथों में इस साधना को कर्णपिशाचिनी अथवा ‘यक्षिणी’ कहा गया है, जो पूछने पर दूर-दूर के समाचार एवं संभावित आधारों का विवरण इस प्रकार बताती है मानो कान में मुँह लगाकर सारा घटनाक्रम बता गई हो।

अनाहत शब्दों का स्वरूप विशुद्ध आध्यात्मिक होता है। उसमें आत्मा और परमात्मा के बीच का आदान-प्रदान चलता है और इतना मोदक एवं मोहक होता है कि अपने आपे का होश-हवाश भूलकर साधक समाधि जैसी योगनिद्रा में चला जाता है। इस स्थिति की उपमा रात्रि के समय भौंरे के कमलपुष्प में बंद हो जाने से दी है। वह उसके गंध पर इतना मुग्ध हो जाता है कि छोड़ने का वापस जाने का मन ही नहीं करता। इस स्थिति को लय कहा गया है। यह पूर्ण समाधि का पूर्व रूप है। जिस प्रकार प्राणयोग में जड़-समाधि लग जाती है और शरीर जीवित रहते हुए भी मृतकवत् हो जाता है, वैसी स्थिति तो नहीं आती, पर सुधि-बुधि भूल बैठना स्वाभाविक है। परमहंस स्तर के योगीजन की यही दशा निरंतर बनी रहती है।

नाथ संप्रदाय एवं कबीर संप्रदाय में जिस सुरति योग का वर्णन किया है और कई ऊँचे लोकों में जा पहुँचने का अनुभव बताया है, वह अध्यात्म-क्षेत्र की सात भूमिकाओं में से किस तक पहुँचना हो सका इसी का वर्णन है।

अद्वैतवादी नाद-साधना में ॐकार ध्वनि को प्रमुख मानते हैं। उनका कथन है कि सृष्टि के आदि में प्रकृति और पुरुष का समावेश होने पर घड़ियाल में हथौड़ा मारने पर जो थरथराहट भरी ध्वनि होती है। वही ॐकार का वास्तविक स्वरूप है। यह केंद्र अब भी उसी प्रकार चल रहा है। घड़ी के पेंडुलम में जिस पर एक छोर से दूसरे छोर पर पहुँचने से खट-खट की आवाज होती है। उसी प्रकार सृष्टिक्रम चलने में भी यही घड़ियाल एवं हथौड़ी के आघात से उत्पन्न होने वाली झनझनाहट के आधार पर ही विश्व-व्यवस्था चल रही है। यह परब्रह्म का अनाहत— स्वघोषित नाद है। अतएव ॐकार का उच्चारण नहीं, ध्यान किया जाना चाहिए। इसी रस्सी के सहारे उस स्थान तक पहुँचा जा सकता है। जहाँ से कि प्रकृति और पुरुष में समागम हुआ है।

इस ॐकार साधना के समतुल्य ही ‘सोऽहम्’ साधना है, उसमें नासिका से वायु खींचते समय ‘सो’ और छोड़ते समय ‘हम्’ का शब्द साँस के साथ होते रहने की धारणा की जाती है। इस सोऽहम् में भी बीजरूप में ॐकार छिपा हुआ है। वेदांत दर्शन के प्रमुख सूत्रों का विस्तार इसी आधार पर हुआ है। शिवोऽहम्–सच्चिदानंदोऽहम् का वेदांत भी ॐकार मूलक है।

गायत्री मंत्र का विस्तार भी इसी आधार पर हुआ है। प्रथम ॐकार की उत्पत्ति हुई। उससे तीन व्याहृतियाँ भू’ भुवः स्वः बनी। फिर इनमें ने एक-एक का विस्तार गायत्री के तीन चरणों में हो गया। वेदों का कोई भी मंत्र-उच्चारण करने से पूर्व उसके साथ सर्वप्रथम ‘ॐ’ जोड़ने का विधान है। इससे स्पष्ट है कि वेदज्ञान के बीज ॐकार का विस्मरण न किया जाय। गायत्री का अजपा जाप भी वस्तुतः नादयोग का ही एक प्रकार है।

शंख-ध्वनि मंदिरों में होती है। उसकी ध्वनि भी “ॐ”कार के सदृश्य है। शंख के साथ घड़ियाल बजाने की भी परंपरा है। नादयोग के अभ्यास में कई मार्गदर्शक अपने शिष्यों को शंख-ध्वनि और घड़ियाल की टंकार को मंदिर में सुनकर उसी की अनुकृति सूक्ष्मकर्णेंद्रिय में जमाने की सलाह देते हैं। सरस्वती का सितार, शंकर का डमरू, कृष्ण की वंशी आदि को भी नादयोग का माध्यम बनाया जाता है।

नादब्रह्म, शब्दब्रह्म का योगशास्त्रों में विशेष वर्णन है। नादब्रह्म से संगीत उपजा, सात स्वरों का आविर्भाव हुआ यही सात लोक हैं। शब्दब्रह्म में जप-नामोच्चार का प्रकरण आता है। यह सारा परिकर नादयोग से ही प्रादुर्भूत हुआ है। उसमें प्रकारांतर से हर क्षेत्र की ऋद्धियों और सिद्धियों का समावेश है।


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