भयानक दुर्भिक्ष (कहानी)

July 1986

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श्रावस्ती क्षेत्र में उस वर्ष भयानक दुर्भिक्ष पड़ा। अन्न के अभाव से असंख्यों को प्राण त्यागना पड़ा। आजीविका की खोज में अगणित लोग देश त्यागकर अन्यत्र चले गए।

प्रश्न उन माताओं का था जिनके बच्चे छोटे थे और घर के पुरुष या तो मर गए थे या अन्यत्र जा चुके थे। वे दयनीय स्थिति में मरणमुख में जा रही थीं।

बुद्ध से यह करुण दृश्य देखा न गया। उस क्षेत्र के साधनसंपन्नों की उनने गोष्ठी बुलाई और इस अनाथ समुदाय की प्राण-रक्षा का उपाय करने के लिए अनुरोध किया।

श्रीमंतों के पास साधन तो थे, पर थे इतने ही कि अपने परिवार का एक वर्ष तक निर्वाह कर सकें। उनमें से किसी ने भी व्यवस्था जुटाने की पहल करने का साहस न दिखाया। सभी सिर झुकाए बैठे थे।

स्तब्धता को चीरते हुए एक बारह वर्ष की कन्या उठी। उसने कहा— "देव, आज्ञा दें तो मैं इस समुदाय के निर्वाह का उत्तरदायित्व उठाऊँ।"

तथागत ने चकित होकर पूछा— "वत्स! तुम कौन हो? और किस प्रकार यह व्यवस्था कर सकोगी?"

बालिका ने कहा— "देव! मनुष्य कितना ही निष्ठुर क्यों न हो, उसके अंतराल में कहीं न कहीं करुणा अवश्य छिपी रहती है। मैं उसी को जिनके घर चूल्हा जलेगा उन्हीं से आधी रोटी उन मरणासन्नों की स्थिति का परिचय कराकर ममता जगाऊँगी। आधी रोटी लेकर रहूँगी।"

बुद्ध ने उसके शिर पर हाथ फिराया और कहा— "श्रीमंतों से अधिक जनभावना की संपन्नता अधिक है तुम उसे उभारने में सफल हो", ऐसा आशीर्वाद दिया।

सुचेता का वह व्रत एक वर्ष तक चला। वर्षारहित दुर्भिक्ष दूर होने तक की इस अवधि में सुचेता ने एक सहस्र अनाश्रितों को नित्य भोजन कराने में श्रेयमात्र अपने पुरुषार्थबल पर अर्जित किया।


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