ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः

July 1986

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ज्ञानयोग विश्व का सर्वोच्च एवं गूढ़ दर्शन है। इसका भावार्थ है— जीवन के लिए आवश्यक ज्ञान के प्रति प्रेम एवं सत्य का ज्ञान। मनुष्य का बाह्यजगत की वस्तुओं, लोगों, सहायकों एवं संबंधों के प्रति प्रेम अज्ञानता के कारण होता है। ये सब नश्वर हैं और कभी भी सुख नहीं दे सकते तथा ये सत्य का बोध भी नहीं कराते, तब मनुष्य सत्य एवं वास्तविक ज्ञान की खोज करता है। अंत में वह समझ पाता है कि ये अंतःकरण की पवित्रता से ही प्राप्त हो सकते हैं। इससे ही वह शांति और स्थाई सुख पा सकता है।

तब वह अपने समस्त कर्मों, विचारों एवं मन से ज्ञान एवं सत्य की खोज में व्यस्त हो जाता है। चिंतन से वह समझता है कि मन और इंद्रियों को वश में करके अंतःदर्शन किया जा सकता है। ज्ञानयोग मन को वश में करके अंतःज्ञान प्राप्त करने के लिए कहता है। इसके लिए वेदांत दर्शन के निर्देशों के अनुसार चलना होता है, जो सर्वोच्च ज्ञान एवं सत्य के रहस्य को बतलाता है। सत्य वह है, जो नहीं बदलता, न नष्ट होता, न मरता और न क्षय होता है। वह आत्मनिर्भर रहता है और किसी अन्य पर आश्रित नहीं रहता। ज्ञानयोग एक सुव्यवस्थित विज्ञान है, जो सत्य का ज्ञान कराता है।

आज के भौतिक जगत में मनुष्य सिर्फ अपनी वर्तमान स्थिति (शारीरिक ज्ञान) ही जानता है। वह नहीं जानता कि वह कौन है, कहाँ से आया है, क्यों आया है और कहाँ जावेगा? कोई शास्त्र, दर्शन, भाषा, राष्ट्र या धर्म इसे नहीं जानता। इसे सिर्फ अंतःकरण जानता है, जो आंतरिक शक्तियों का बोध कराता है। इसके पवित्र होने से सुपर इन्टेलिजेन्स (प्रज्ञा) की प्राप्ति होती है। इससे जीवन की गहराई और अंतःकरण का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।

पाश्चात्य दर्शन पदार्थ जगत की जानकारी को ही स्व (आत्मा) का ज्ञान मानता है, परंतु पूर्वार्त्त दर्शन अंतःज्ञान को आत्मज्ञान कहता है। प्लेटो भी इसे मानते थे। यही वास्तविक सत्य है और जीवन के उद्देश्यों एवं उत्पत्ति आदि का सही बोध कराता है। मनुष्य को सुख और स्वास्थ्य बाह्यज्ञान से नहीं मिलते। अंतःज्ञान ही सर्वोच्च सुख, शांति एवं स्वास्थ्य प्रदान करता है। यही जीवन का लक्ष्य है। वेदांत के अनुसार मनुष्य अपने शरीर और व्यवहार का अध्ययन करके, जो कि अंतःकरण का उत्पादन है, अनंत सुख एवं शांति पा सकता है। वेदांत अंतःकरण के विभिन्न अंगों का सूक्ष्म अध्ययन करने को कहता है। इसके लिए मन को शुद्ध एवं एक ही दिशा में चलने की प्रेरणा देना आवश्यक है। बिखरा मन कभी भी सत्य का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता।

अंतःकरण को समझना और पवित्र बनाना कठिन कार्य है। त्रुटि होने से मनुष्य गलत निर्णय पर पहुँचता है। वेदांत में आत्मबोध के द्वारा सत्य को जाना जाता है। आत्मबोध का अर्थ आत्मा की पूर्ण जानकारी है। इस आत्मज्ञान को ही वेदांत में बुद्धि कहते हैं। बुद्धि का अर्थ पदार्थ जगत का ज्ञान मात्र नहीं है, जो आजकल समझा जाता है। वेदांत और ज्ञानयोग इसी बुद्धि को प्रशिक्षित और शुद्ध करते हैं। वेदांत वेद का सार है और सर्वोच्च ज्ञान ‘सत्य’ का बोध कराता है। इससे परे कोई ज्ञान नहीं है। वेदांत दर्शन का उद्देश्य समाधि लगाना नहीं है, परंतु समत्व की स्थिति प्राप्त करना है। इसमें समस्त जिज्ञासाओं का हल होता है और यही सर्वोच्च ज्ञान है। यही आत्मज्योति या आत्मशक्ति है।

अपने बारे में पूर्ण जानकारी अंतःकरण ही प्रदान करता है। इसका अस्तित्व व्यक्ति के कारण नहीं है, वरन व्यक्ति का अस्तित्व इस आत्मा के कारण है। मन के गलत चिंतन के कारण ही मनुष्य इसे नहीं समझ पाता। सुख-दुःख, लाभ-हानि, ज्ञान-अज्ञान आदि का बोध मनुष्य को मन के द्वारा ही होता है। प्रत्येक मनुष्य के पास शरीर, ज्ञानेंद्रियाँ, मन और आत्मा होते हैं। इनको समझने से ही जीवन का उद्देश्य समझ में आता है। वेदांत के अनुसार यह उद्देश्य ईश्वर की खोज नहीं है, वरन अज्ञानताजन्य कष्टों एवं कमियों से मुक्त होकर सुख, शांति और बुद्धि प्राप्त करना है। केवल चतुर ज्ञानयोगी ही इसे प्राप्त करते हैं।

मनुष्य अपने त्रुटियों से तकलीफें पाता है और ईश्वर पर दोष लगाता है। सत्य का पथिक इसे गलत मानता है और अंतःकरण के जागरण में लग जाता है, वो आत्मा को मुक्त रखता है। ज्ञानयोग के प्रतिपादनों के अनुसार अंधविश्वास, हानिकारक एवं भ्रान्तियाँ पैदा करता है। सत्य को समझने से उस पर विश्वास होता है। इसमें बुद्धि शुद्ध और परिपक्व होती है। तब मनुष्य पदार्थ जगत् की नश्वरता को समझ पाता है। विश्व ब्रह्माण्ड की एवं व्यष्टिगत जीवन का गहराई से चिन्तन करने पर वह जान लेता है कि बाह्य दुनिया में होने वाली समस्त घटनाएँ अंतर्जगत में बहुत पहले ही घट चुकी हैं। अतः वह अपना पूर्ण ध्यान अन्तःकरण के विकास में ही लगाता है। समस्त कार्य मनुष्य के जीवन में उसके विचारों की ही फलश्रुति होते हैं। अतः उसे अपनी चिंतन-प्रक्रिया को स्वस्थ रखना आवश्यक है। मन ससीम है और वह स्थान, समय एवं कारण की परिधि के बाहर नहीं जा सकता। परंतु अंतरात्मा स्वतंत्र है। वह सर्वत्र देखता है।

अंतःमन के चार प्रमुख अंग हैं- मनस, बुद्धि, चित्त और अहंकार। मनस सूचनाओं को एकत्र करता है और आंतरिक भावनाओं एवं विचारों को व्यक्त करता है। पाँच ज्ञानेंद्रियाँ और पाँच कर्मेंद्रियाँ इसकी सहायता करती हैं। इनका सूक्ष्म अध्ययन एवं शिक्षण आवश्यक है। शुद्ध बुद्धि, मन को इंद्रियों को निश्चित रीति से उपयोग करने का निर्देश देती है। यह विवेचना करती है, न्याय देती है और सभी फैसलों के लिए यह जिम्मेदार है। जब मानस बुद्धि के अनुसार कार्य करता है, तब अंतः और बाह्य दोनों स्तरों में पूर्ण साम्य स्थिति रहती है। इससे मनुष्य उन्नति करता है और सुख-शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करता है। मानस के बुद्धि के निर्देशों पर नहीं चलने से मनुष्य को तमाम तरह से दुःख, अशांति एवं तकलीफें होती हैं। बुद्धि को समझने से एवं निर्देशों के पालन से मनुष्य आंतरिकशक्ति के सभी पक्षों को ठीक से समझता है और उनका लाभ उठाता है।

बाह्य पदार्थ मनुष्य को सुख-शांति नहीं दे सकते। मनुष्य को अंतः की आंतरिकशक्तियों के चारों अंगों का सही उपयोग करके आंतरिक विकास करना आवश्यक है। अंतःमन का तृतीय भाग चित्त है। यह ज्ञान, स्मृतियों, संस्कारों एवं प्रभावों का भंडारणगृह है। चित्त के द्वारा चेतना, मन और इंद्रियों तक पहुँचती है। यह आत्मा के प्रकाश को सर्वत्र फेंकती है। इंद्रियों के द्वारा प्राप्त हमारे समस्त संदेश स्नायुमंडल मस्तिष्क और चेतन मन द्वारा चित्त में ही जमा होते हैं। यह विशाल भंडार है और हमें पूर्व में देखे दृश्यों का स्मरण दिलाता है। विश्व का आकर्षण और प्रभाव मानस व बुद्धि पर सतत पड़ता हैं, परंतु चित्त उनसे जरा भी प्रभावित नहीं होता।

अंतःमन का चतुर्थ आयाम— अहंकार है। इसका बोध “मैं” से होता है और विश्व से व्यक्ति का संबंध कायम करता है। इसे इगो कहते हैं। इसका विकृत स्वरूप मनुष्य को स्वार्थी बनाता है और तुच्छता का बोध कराता है, जिससे उसकी सारी प्रगति रुक जाती है और वह विश्व में अकेला पड़ जाता है। इसको प्रकाशित करने पर, यह मानव जीवन को सफल बना देता है। विश्व से अपनत्व का बोध कराता है। तब मनुष्य परोपकारी बनता है और दूसरों के दुःख दूर करने में अपना तन, मन, धन सर्वस्व न्यौछावर करता है। इससे वह महामानव बनता है। आत्मा को जानने का सरल तरीका ‘ईगो’ को शिक्षित करना है। अहंकार को यह बोध कराना आवश्यक है, कि शक्ति का मूल स्रोत ‘वह’ नहीं है, वरन ‘आत्मा’ है। अतः यह आत्मा के अनुसार चले।

आत्मविकास के लिए शरीर के अंतःकरण को आत्मा का कहना मानने और उसके निर्देशों के अनुसार चलने की शिक्षा दी जाती है। इगो की विकृति के कारण ही आत्मा का पतन होता है। समस्त बंधनों, अड़चनों, तकलीफों और अशांति का कारण यह अशिक्षित-अनगढ़ अहंकार (इगो) ही है। इस तरह ज्ञान से ही सत्य की प्राप्ति हो सकती है और यह शाश्वत सत्य ही आत्मा को स्वतंत्र कराता है।


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