मुर्दों के पुनर्जीवन की संभावना

July 1986

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ठंडक प्राणियों की जीवनशक्ति बढ़ाने में सहायक होती है। यह कथन बहुत हद तक सही है। उष्णताप्रधान क्षेत्रों और देशों की तुलना में प्राणियों और मनुष्य की सहनशक्ति और आयुष्य अधिक होती है। इसके प्रमाण संसार भर में घूमकर सहज ही पाए जा सकते हैं। उत्तरी ध्रुव के भालू, बारह सिंघे, हिरन और कुत्ते अपनी दृढ़ता और दीर्घायुष्य के लिए विख्यात है। एस्किमो लोगों को मात्र मांस पर निर्वाह करना पड़ता है, पर वे अपनी निरोगता और दीर्घ जीवन के लिए प्रसिद्ध हैं।

दक्षिणी ध्रुव पर प्राणियों की प्रजातियाँ कम हैं। वहाँ खड़े होकर चलने और बर्फीले पानी में डुबकी लगाने वाले पेन्गुइन पक्षी पाए जाते हैं और बिना पंखों वाले चींटे भी। फिर भी वहाँ की ठंडक और कठिनाइयों को वे जिस साहस और प्रसन्नता के साथ अपनाए रहते हैं, वह कमाल का है।

यूरोप के ठंडे मुलक और उज़्बेकिस्तान सरीखे प्रांतों में जहाँ दीर्घजीवियों का बाहुल्य है, वहाँ अन्य सुविधाओं के अतिरिक्त ठंडा मौसम भी सहायक है। गर्मी की अधिकता जीवनीशक्ति का अपहरण करती है और बीमारियाों की भरमार भी बढ़ाए रहती है।

इतने पर भी इस अतिवाद तक जा पहुँचना उचित नहीं कि ठंडक में जमा देने पर भी मृतशरीर भी इस योग्य बने रहते हैं कि कुछ समय उपरांत उन्हें जीवित बनाया जा सके। इस संबंध में वैज्ञानिकों ने कई खोजें और कई कल्पनाएँ की हैं। उनने इस निमित्त प्रयोगशालाएँ भी स्थापित की हैं, जिनसे मुर्दों का हिमीकरण करके उन्हें सुरक्षित रख दिया जाता है और आशा की जाती है कि कुछ समय उपरांत शरीर की कोशिकाएँ अपनी थकान मिटाकर नवजीवन के योग्य परिस्थितियाँ संचय कर सकेगी। साथ ही जिन रोग कीटाणुओं के कारण मृत्यु हुई थी, उनसे पीछा छुड़ाया जा सकेगा। नोबुल पुरस्कार विजेता चिकित्सा वैज्ञानिक डॉ. एलेक्सिस कैरेल इस प्रतिपादन में अग्रणी हैं। इस सिद्धांत के पक्ष में अमेरिकी विज्ञानी कार्वर्ड एडिगर ने अपनी पुस्तक “द प्रास्पेक्ट ऑफ इम्मार्टेलिटी” में इस कथन के समर्थन में भी बहुत कुछ विस्तारपूर्वक लिखा है। इस संबंध में 55 मृतशरीर, हिमीकृत करके रख दिए गए हैं और 100 से अधिक धनिकों ने इसकी पूर्व से व्यवस्था कर दी है।

इसके अतिरिक्त, एक कानूनी कठिनाई भी है कि एक बार मरने के उपरांत मनुष्य अपनी संपत्ति पर से अधिकार खो बैठता है। जिन उत्तराधिकारियों के नाम वह हस्तांतरित हो गई है, उनसे पुनर्जीवित व्यक्ति को वापस लौटाने का कोई प्रावधान कानून में नहीं है, इसलिए भी उत्तराधिकारी वह प्रयास अनिश्चितकाल के लिए जारी रखने में उपेक्षा बरतते हैं।

एक ओर जहाँ इस नए प्रतिपादन के प्रति समर्थन और उत्साह उभर रहा है। दूसरी ओर उसे बकवास बताया जा रहा है। कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के जीरीएट्रिशियन डॉ. कार्ल वैण्ट्रिन का कथन है कि प्राणियों के संबंध में प्रकृति के नियम इतने ठुलमुल नहीं हैं कि उन्हें सहज ही उतारा जा सके। पदार्थों में उलट-पुलट हो सकती है पर प्राण चेतना ऐसी नहीं है, जिसे मनुष्य इच्छानुसार उलट-पुलट कर सके।

अध्यात्म सिद्धांत के अनुसार मरण, परलोक, पुनर्जन्म के सारे सिद्धांत कट जाते हैं, यदि मुर्दे फिर से नवजीवन प्राप्त कर सकें। जीवकोशाओं के विशेषज्ञ भी यही कहते हैं कि जीवनतत्त्व घिसते-घिसते, घटते-घटते इस स्थिति में पहुँच जाता है कि उसकी मरम्मत नहीं हो सकती। उसे तो पुनर्जन्म के नए ढाँचे में ही ढाला जा सकता है।

हम प्रकृति के नियमों से लाभ तो उठा सके, पर ऐसा नहीं हो सकता कि उसका प्रवाह ही उलट दें। जन्म-मरण के प्रवाह को इतनी सरलता से नहीं बदला जा सकता जैसा कि आज के भौतिक विज्ञानी सोचते हैं।


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