क्या विज्ञान मनुष्य की अंतरात्मा को भी छीन लेगा?

July 1986

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वैज्ञानिक प्रयोग विगत कुछ दशकों से ऐसी गतिविधियों में संलग्न हैं, जिन्हें देखते हुए एक प्रश्न चिह्न सामने आ खड़ा हुआ है कि क्या ये हमें सही दिशा में ले जा रहे हैं। जब तक विज्ञान का सृजनात्मक प्रयोग होता रहा; तब तक उसे पूजा जाता रहा। पर अब स्थिति बदलती जा रही है। घातक प्रयोग युद्ध तक ही सीमित नहीं रहे, वरन अब मानव की आकृति-प्रकृति से भी छेड़खानी करने लगे हैं।

प. जर्मनी के न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. ऐलन जैक एवं मार्क रोजेन बर्ग इन दिनों जेनेटिक इंजीनियरिंग एवं न्यूरो बायो केमिस्ट्री के क्षेत्र में प्रयोग कर यह जानने का प्रयास कर रहे हैं कि क्या सुविकसित मस्तिष्क की प्रतिभा का स्वल्प विकसित अथवा इसके ठीक विपरीत परिवर्तन संभव है? क्या मनुष्य को नितांत बुद्धिहीन, मात्र आदेश मानने वाला एक रोबोट बनाया जा सकता है।

इलेक्ट्रिकल एस्ट्रीमुलेशन आफ ब्रेन (ई.एस.बी.) पद्धति के अनुसार जब कई एशियन विश्वविद्यालयों ने आंशिक रूप से मस्तिष्क की धुलाई (ब्रेन वाशिंग) में सफलता प्राप्त कर ली है। अभी तो बंदर, कुत्ते, बिल्ली, खरगोश, चूहे जैसे छोटे स्तर के जीवों पर ही प्रयोग किए गए हैं। इनमें आहार की रुचि, शत्रुता, मित्रता, भय, आक्रमण आदि के सामान्य स्वभाव को जिन परिस्थितियों में जिस प्रकार चरितार्थ करना चाहिए, उसे वे बिलकुल भूल जाते हैं और चित्र-विचित्र प्रकार का आचरण करते हैं। बिल्ली के सामने जब एक चूहा छोड़ा गया तो वह आक्रमण करना दूर उससे डरकर एक कोने में जा छिपी। क्षण-भर में एकदूसरे पर खूनी आक्रमण करना, एक आधे मिनट बाद परस्पर लिपटकर प्यार करना ये परिवर्तन मस्तिष्क में किए गए विद्युतीय धारा-प्रवाह से देखे गए।

डॉ. डेलगाडो ने मस्तिष्क के अचेतन भाग को प्रभावित करने के संदर्भ में कितने ही वैज्ञानिक प्रयोग करके दिखाए और सफल रहे। एक प्रयोग में ‘अली’ नामक एक बंदर को केला खाने के लिए दिया गया। केला खाते समय ही उसे ई.ई.जी. के माध्यम से संदेश दिया गया कि केला खाने की अपेक्षा भूखा रहना चाहिए तो बंदर ने भूखा रहते हुए भी केला फेंक दिया।

दूसरे प्रयोग में डॉ. डेलगाडो ने दो खूँखार सांडों को सार्वजनिक प्रयोग में दिखाया। दोनों सांडों के दो इलेक्ट्रोड (एरियल) लगाकर डेलगाडो उनके मध्य खड़े हो गए। दोनों सांड ऐसी भयंकर मुद्रा में खड़े थे जैसे वे दोनों डॉ. डेलगाडो पर आक्रमण करने वाले ही हों। जैसे ही वे डेलगाडो के पास पहुँचे, उन्होंने अपने ट्रांसमीटर द्वारा शांत रहने का आदेश दिया तो दोनों सांड फुसकारते भर रहे। धीरे-धीरे शांत हो प्रेम से दो बकरियों की तरह खड़े हो गए।

मस्तिष्कीय क्षमता को ही व्यक्तित्व का विकास समझने वाले वैज्ञानिकों ने इन दिनों इस संदर्भ में कई दृष्टियों से विचार किया और कई उपाय सोचे हैं। वे यह भी मानते हैं कि परिवार एवं समाज के वातावरण का मनुष्य के चिंतन और स्वभाव पर असर पड़ता है, इसलिए शिक्षा तथा परंपरा के क्षेत्र में कुछ ऐसा समावेश होना चाहिए, जिसके प्रभाव से आज का मनुष्य कल अपेक्षाकृत अधिक बुद्धिमान, साहसी और सद्गुणी हो सके।

इसके अतिरिक्त उनका विशेष ध्यान इस बात पर है कि “ब्रेन वाशिंग” के कोई कारगर उपाय ढूँढ़ निकाले जाएँ। इस संदर्भ में कम्युनिस्ट देश सबसे आगे हैं। उन्होंने अपने विरोधियों का सफाया करके सिरदर्द से छुटकारा पाने के उपायों में अत्यधिक उत्साह दिखाया है। वहाँ हल्का-फुल्का यह प्रयोग भी किया गया है कि प्रतिपक्षी मान्यता वालों पर ऐसे मनोवैज्ञानिक दबाव डाले जाएँ ताकि वे अपनी पूर्व मान्यता को छोड़कर नए निर्देशों को हृदयंगम करने के लिए स्वेच्छापूर्वक सहमत हो जाएँ।

अठारहवीं सदी के अंत में सर विलियम पेनफील्ड (1886) ने ब्रेन सेण्टर्स को जानने के लिए जो प्रयोग आरंभ किए, उनकी शृंखला अभी चल ही रही है। मस्तिष्क विज्ञानी कहते हैं कि स्थूलमस्तिष्क के दो भाग होते हैं— एक पुराना एनिमल ब्रेन (पूर्व संचित पाशविक कुसंस्कारों एवं अंतःप्रवृत्तियों से युक्त) तथा दूसरा ऊँचे स्तर का नया मस्तिष्क जो मात्र मनुष्य को ही मिला है। पहले में दर्द, भय, भूख, यौनेच्छा, थकान, आक्रमण आदि के केंद्र होते हैं, जो मुख्यतः जीवन को बनाए रखने एवं नस्ल को जीवित रखने के लिए जरूरी है। जो दूसरा नया मस्तिष्क है उसमें और भी अधिक विकसित प्रीक्राण्टल लोव होते हैं, जिनका कार्यक्षेत्र विशुद्ध रूप से भौतिक है। तर्कबुद्धि, सिविल सेन्स, आपसी व्यवहार, योजनाबद्ध कार्यक्रम का निर्धारण आदि यहीं निश्चित किए जाते हैं। भावनात्मक आवेगों पर नियंत्रण यहीं से होता है।

उदाहरण के लिए— प्रयोगशाला में विद्युतीय इलेक्ट्रोडों के माध्यम से बिल्ली की मानसिक स्थिति ऐसी बना दी गई कि वह चूहे पर आक्रमण का स्वभाव भूलकर उनसे डरने लगी। खरगोश और शेर की कुश्ती कराई गई तो शेर दुम दबाकर एक कोने में जा बैठा और खरगोश ने इस प्रकार हमला बोला मानो उसे अपनी बहादुरी-जीत का पूरा भरोसा हो। आमतौर से पशु अपने सजातियों से ही यौन संबंध स्थापित करते हैं; पर इलेक्ट्रोडों से प्रभावित जीवों ने अन्य जाति वालों के साथ यौन संबंध स्वीकारने में उत्साह दिखाया। इसी प्रकार वे अपने अभ्यस्त आहार को छोड़कर अन्य प्रकार का आहार अपनाने लगे। अधिक नींद लिए बिना या बिना सोए ही बहुत समय तक स्वेच्छापूर्वक कार्यरत रहने में भी सफलता मिल गई।

विद्युतीय उपचारों के अतिरिक्त अन्य कई प्रकार के प्रयोग भी पिछले दिनों चलते रहे हैं। इनमें से एक है प्राण-प्रहार— हिप्नोटिज्म। दूसरा है— रासायनिक उपचार। मस्तिष्क को एक सीमा तक इन दोनों साधनों से प्रभावित करने से सफलता बहुत दिनों से मिलती आ रही है। अब उन साधनों को नए ढंग से नए प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त करने की बात सोची गई है। हिप्नोटिज्म से प्रभावित व्यक्ति अपनी स्वाभाविक मनःस्थिति को भूल जाते और प्रयोक्ता के संदेशों को शिरोधार्य करते हुए वैसा ही सोचते और करते हैं। हिप्नोटिज्म का भी बायो मैग्नेटिज्म से जुड़कर अब आधुनिकीकरण हो गया है।

चीन के प्रतिष्ठित वैज्ञानिक डॉ. चू-फुट सेन ने एक बार प्रदर्शन के तौर पर बड़ा ही मनोरंजन प्रयोग किया। प्रयोग के लिए छह कैदियों को चुना गया, जिनमें तीन महिलाएँ भी थीं। छहों को एक कमरे में लाया गया। फिर उनके सिर के पिछले हिस्से के थोड़े बाल साफ करके उसमें अत्यंत पतला तार जोड़ दिया। यह साधारण दिखने वाला तार मस्तिष्क की अनेक नाडियों से जोड़ा जा सकता था और उनके नियंत्रण के लिए तार का संबंध एक रेडियो ट्रांजिस्टर रिसीवर से कर दिया गया। फिर उन कैदियों के सामने 20 दिन का एक छोटा-सा पिल्ला लाकर छोड़ा गया। उनकी स्थिति सामान्य बनी रही और वे पिल्ले को देखकर प्रसन्न होते रहे। इसी बीच डॉ. चू-फुट सेन ने उस तार का संबंध मस्तिष्क की भय वाली नाड़ी से जोड़कर ट्रांजिस्टर चालू कर दिया। विद्युत-प्रवाह काे एक निश्चित आवृत्ति पर दौड़ना शुरू हुआ ही था कि उस छोटे से कमरे में तूफान खड़ा हो गया। कैदी ‘शेर-शेर’ चिल्लाते हुए भागे। कई तो इतने भयभीत हुए कि उन्हें तत्काल मूर्छा आ गई। जैसे ही उसे बंद किया गया कैदी फिर शांत हो गए।

मिशिगन विश्वविद्यालय के डॉ. बर्नार्ड एग्रानोफ ने सुनहरी मछलियों पर यह प्रयोग किया कि उन्हें यदि भोजन के बाद प्यूरोमाइसिन नामक मारक औषधि खिला दी जाए तो वे यह भूल जाती हैं कि वे भोजन कर चुकी हैं। ये प्रयोग अब मनुष्यों पर भी किए जा रहे हैं, विशेषकर कम्युनिस्ट देशों में भी। इन प्रयत्नों का तात्पर्य है, मनुष्य की अंतरात्मा का समापन। यह प्रयत्न यदि सफल हो सके तो मनुष्य समुदाय भेड़ों के झुंड की तरह रह जाएगा, जिसे किसी भी दिशा में चलने के लिए एक चरवाहा बाधित कर सके।


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