समदर्शन और व्यवहार-कौशल

July 1986

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संसार में सभी प्रकार के मनुष्य भरे पड़े हैं। उनका वर्गीकरण मोटे रूप में इस प्रकार किया जा सकता है। (1) सज्जन (2) दुःखी (3) समुन्नत (4) दुर्जन। इन सबसे व्यवहार भी तद्नुरूप ही करना होता है। सभी से एक जैसा व्यवहार नहीं हो सकता।

योग दर्शन में एक सूत्र आता है। मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा। इसमें व्यक्ति के अनुरूप व्यवहार करने की आवश्यकता एवं उपयोगिता समझाई गई है। सज्जनों के साथ मित्रता करनी चाहिए, ताकि उनके सद्गुणों का प्रभाव अपने ऊपर भी पड़े और समयानुरूप सद्व्यवहार किये जाने की भी अपेक्षा रहे। दुःखी लोगों के— पिछड़ों के प्रति करुणा भाव रखा जाए और उनकी सेवा-सहायता करने, संकटों से उबारने की चेष्टा चल पड़े। कम से कम सहानुभूति प्रकट करने, धैर्य बँधाने, उबरने का मार्ग बताने का प्रयत्न तो किया ही जाना चाहिए।

जो सफल समुन्नत हैं उनको देखकर प्रसन्न हुआ जाए। उन्नतिशीलों को इतना उपहार तो मिलना ही चाहिए कि उनके पुरुषार्थ एवं कौशल की प्रशंसा हो, प्रोत्साहन मिले। इससे दूसरों को भी उत्कर्ष की प्रेरणा मिलती है।

दुष्ट-दुर्जनों से सदा लड़ना तो संभव नहीं हो सकता। रास्ता चलते किससे झगड़ा किया जाए और किस प्रकार सुधारा तथा ठिकाने लाया जाए? इसलिए उनकी उपेक्षा की जाए? कम से कम अपने साथ किए गए दुर्व्यवहार की तो उपेक्षा की ही जा सकती है, ताकि जितना समय बदला लेने, नीचा दिखाने में लगे, उसे बचाकर किसी उपयोगी कार्य में लगाया जा सके। इतने पर भी इतना तो ध्यान रखना ही चाहिए कि उन्हें असहयोग, विरोध और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होने का भय तो दिखाया ही जाए। अन्यथा उनके निर्विरोध की स्थिति में अधिक दुस्साहस दिखाने का अवसर मिलता है। उपेक्षा इस सीमा तक ही होनी चाहिए, जिससे दुष्टों का हौंसला बढ़ने न पाए। उन्हें यह भय बना ही रहना चाहिए कि समाज सर्वथा निर्जीव नहीं हुआ है। एक के साथ दुर्व्यवहार करने पर कोई दूसरा जीवट वाला आदमी उसका मजा चखा सकता है अथवा शासन की प्रताड़ना उसे भुगतनी पड़ती है।

व्यक्ति के स्तर के अनुरूप व्यवहार करना ही कर्म-कौशल है, जिसे गीता में भगवान ने योग का ही एक प्रकार कहा है।

व्यवहार कुशलता के आधार पर व्यक्तियों से भिन्न व्यवहार करने की बात इसलिए कहनी पड़ी कि तत्त्व दर्शन में कई स्थानों पर ऐसा उल्लेख आता है कि सब में एक ही आत्मा है। इसलिए समदर्शी होना चाहिए और सबसे सद्व्यवहार करना चाहिए। गीता में ही एक स्थान ब्राह्मण, गौ, हस्ति, श्वान और चांडाल के साथ विचारशीलों को समदर्शी होने का परामर्श दिया गया है। इस परामर्श में ब्रह्मदृष्टि की मान्यता तो ठीक है, वह अंतःकरण में रहनी चाहिए। “आत्मवत् सर्वभूतेषु” की मान्यता विचारबुद्धि तक ही सीमित रहने योग्य है। उसे व्यवहार में समान रूप से प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। व्यवहार में आने पर तो बड़ी अटपटी स्थिति हो जाएगी। सम्मानित गुरुजन और दुष्ट-दुरात्मा एक ही मंच पर बिठाए जाएँगे और उनकी समान रूप से पूजा-आरती की जाएगी अथवा दोनों की उपेक्षा-भर्त्सना की जाएगी, तो यह व्यवहार सर्वथा अटपटा हो जाएगा। उसका दुष्परिणाम भी होगा। साथ ही इस अटपटेपन को कार्यान्वित करने वाले को उपहास का सामना भी करना होगा।

दर्शन दृष्टिकोण तक सीमित है। व्यवहार लोकाचार से संबंधित। इसलिए दोनों के बीच का अंतर औचित्य का समर्थन करते हुए अनौचित्य का विरोध भी करना चाहिए। न्यायाधीश एक को ससम्मान बरी करता है। दूसरे को जेल या फाँसी की सजा देता है, तीसरे की क्षति पूर्ति करता है और चौथे को उपहार दिए जाने की सिफारिश करता है। इसमें उसका कोई निजी राग-द्वेष नहीं है, न कोई स्वार्थ, प्रतिशोध। वह न्यायपीठ पर बैठा हुआ होने से समदर्शी भी कहा जा सकता है; किंतु जब व्यवहार की बात आती है तो व्यक्ति का स्तर देखते हुए, उसके सुधार की कामना करते हुए भिन्न व्यक्तियों से उनके स्तर के अनुरूप भिन्न प्रकार का आचरण करना पड़ता है। इसके बिना काम नहीं चल सकता।

द्रोणाचार्य हाथ में वेद और कंधे पर धनुष रखते थे। गुरु गोविन्दसिंह ने शिष्यों को एक हाथ में माला और एक हाथ में भाला रखने का आदेश दिया है। ईसा ने एक गाल पर थप्पड़ मारने वाले के सामने दूसरा गाल कर देने का उपदेश दिया है; किंतु कार्लमार्क्स ने अनाचार से घृणा करने और उसके उन्मूलन में जुटने की बात कही है। इनमें विसंगतियाँ दिखाई पड़ती हैं, पर वस्तुतः ऐसा कुछ है नहीं। जैसे को तैसा बरतना व्यवहारकौशल है।

समझदार सज्जनों को भ्रांतियों से मुक्त कराने हेतु तर्क, तथ्य और आदर्शों की चर्चा से यथार्थता का अनुभव कराया और राह पर लाया जा सकता है; किंतु हिंस्र पशु उस तरह के व्यवहार को नहीं समझते हैं। उनके लिए भय ही एक मात्र ऐसा आधार है जिससे डराकर उन्हें सीमा में रखा जा सकता है। नम्रता और सदुपदेश को तो दुर्बलता समझते हैं एवं उपहास उड़ाते हैं। इससे उनका आक्रमण रुकता नहीं। इन स्थिति-भिन्नताओं को देखते हुए व्यवहार में अंतर करना पड़ता है। द्रोणाचार्य, गोविंदसिंह ने एक ही व्यक्तित्व में दोनों बातों का समावेश रखने की बात कही है; जबकि ईसा और मार्क्स ने आधी-आधी बातें कहकर उनका सम्मिश्रण करने की बात विवेकवानों की सहज बुद्धि पर छोड़ दी है।

एक राजा के दरबार में तीन जुआरी पेश किए गए। राजा ने एक को काला मुँह करके गधे पर बिठाकर शहर भर में घुमाने की सजा दी। दूसरे का नाम पुकारा और पिता की बड़ाई करते हुए कहा— "आप भी?" तीसरे से कुछ नहीं कहा और कहा— "जाइए।"

तीनों को तीन तरह की सजा एक ही अपराध में मिलने की बात लोगों को अटपटी लगी। मंत्री ने तो कारण पूछ ही लिया। इस पर राजा ने दूसरे दिन यह तलाश कराया कि देखो, वे तीनों क्या कर रहे हैं। जिसे गधे पर घुमाया गया था, वह फिर दूसरे दिन भी जुआ खेल रहा था। दूसरा जिसके बाप की तुलना की गई थी, उसने वह नगर ही लज्जा के मारे छोड़ दिया। तीसरे को अपने ऊपर इतनी ग्लानि हुई कि उसने विष खाकर आत्महत्या कर ली। राजा ने सभासदों को संबोधन करते हुए कहा अब आप लोग समझे होंगे, भिन्न लोगों से भिन्न प्रकार का व्यवहार करने का कारण वस्तुतः औचित्य पर आधारित था।


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