बहिर्मौन और अंतर्मौन

July 1986

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प्रख्यात मौन वह है, जिसमें वाणी से बोलना बंद कर दिया जाता है। आवश्यकता होने पर इशारों से या लिखकर अपना अभिप्राय प्रकट कर देते हैं। यह मौन-साधना उनके लिए अच्छी है, जिन्हें बहुत बोलने की, शेखीखोरी की, गपबाजी करने, निंदा चुगली किए बिना चैन न पड़ने की आदत है। कई लोग पैरों को हिलाते, हाथों को मरोड़ते, बिना खुजली के खुजलाते रहते हैं। कुछ न कुछ किए बिना चैन नहीं पड़ता।

इन अनावश्यक हरकतों से शरीर की-इंद्रियों की सामर्थ्य क्षीण होती है। अनावश्यक रूप से हुए अपव्यय से खजाने खाली हो जाते हैं। फिर अंगों की क्षमता को अकारण नष्ट करने की आदत का तो बुरा प्रभाव होना ही चाहिए। इस कुटेव को छुड़ाने के लिए मौन-साधना का महत्त्व है। विशेषतया जिह्वा का अवरोध तो इसलिए करना पड़ता है कि, असत्य या अनावश्यक वचन न निकालने का अभ्यास हो जाए और वह भी उस स्तर तक पहुँच जाए कि किसी से कहे हुए वचन अपना प्रभाव छोड़ने लगें। उसे सत्परामर्श देकर उपयोगी मार्ग पर चला सकें। वक्तृता में इतनी क्षमता उत्पन्न हो जाए कि उसका प्रभाव आशाजनक पड़ने लगे। वह वाणी किस काम की, जिसका कथन कतरनी की तरह चलता रहे। वस्तुतः जो कुछ कहा जाए, वह शब्दवेधी बाण की तरह काम में आ सके, ऐसी वाणी हो। विश्राम पाने के उपरांत नई शक्ति अर्जित होने की बात सर्वविदित है। थकान दूर करने, हृदयाघात, रक्तचाप आदि में डाक्टर अधिक समय विश्राम करने की बात कहते हैं। अतः जिह्वा को भी कुछ समय के लिए विश्राम दिया जाए तो उसकी कुटेवें छूटती हैं और विश्राम के उपरांत नए सिरे से कार्यरत होने पर उसे आवश्यक नया प्रशिक्षण भी आसानी से दिया जा सकता है।

पूजा, प्रार्थना, मंत्रोच्चारण जप आदि जिह्वा के सहारे ही बन पड़ते हैं। यदि जिह्वा पवित्र न हो तो उससे मंत्रशक्ति उत्पन्न नहीं होती, न उसकी पुकार देवलोक तक पहुँचती है। शाप, वरदान देने जैसी क्षमता भी उत्पन्न नहीं होती। इसलिए शरीर स्नान करने से भी प्रथम मुखमार्जन करना पड़ता है। उपासनात्मक कर्मकांडों का शुभारंभ आचमन से किया जाता है। कारण कि जिह्वा को पवित्र करने के उपरांत ही दिव्य प्रयोजनों का बन पड़ना संभव होता है। शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी इसी की प्रमुखता है। जो सवेरे स्नान नहीं कर सकते वे भी उठते ही कुल्ला तो करते हैं। जितनी बार भोजन किया जाता है उतनी बार भोजन के अंत में कुल्ला करने-आचमन करने की प्रथा है। शरीर के समस्त अंगों की तुलना में शुद्धिकरण का ध्यान मुख-क्षेत्र में अधिकाधिक रक्खा जाता है। इससे पाचनतंत्र की समूची नलिकाएँ प्रभावित होती हैं। कितने ही व्यक्ति सवेरे उठकर एक गिलास पानी पीते हैं, इससे जिह्वा सहित पाचनतंत्र की शुद्धता होती है और उष्णता-उत्तेजना दूर होकर शांति का वातावरण बनता है।

अच्छा हो मौन साधने के अवसर पर आहारशुद्धि का भी ध्यान रक्खा जाय। जिह्वा को ज्ञानेंद्रिय और कर्मेंद्रिय दोनों ही माना गया है। भोजन प्रयोजन में वह कर्मेंद्रिय रहती है और वार्त्तालाप में ज्ञानेंद्रिय बन जाती है। उसकी द्विधा प्रक्रियाओं का परिशोधन करने के लिए आहारशुद्धि का ध्यान रखना भी नितांत आवश्यक है।

उपवास में दूध-छाछ, रसादि का प्रयोग किया जाए। इतना न बन पड़े तो शाकाहार, फलाहार का अवलंबन लिया जा सकता है। अन्यथा अस्वाद व्रत तो निभाना ही चाहिए। शक्कर और नमक, मसाले छोड़ देने भर से अस्वाद व्रत निभ जाता है। जिह्वाशुद्धि के लिए पानी में नींबू डालकर उसके कुल्ले प्रातः-मध्याह्न-सायंकाल तो करने ही चाहिए।

यह बहिर्मौन की विधा हुई। इसके अतिरिक्त अंतर्मौन अध्यात्म प्रयोजनों के लिए आवश्यक है। बहिर्मौन केवल बाह्यजीवन को प्रभावित करता है। इसलिए उसे अपूर्ण माना गया है। अंतर्जीवन और बहिर्जीवन दोनों पक्षों को मिलाकर एक पूर्ण जीवन बनता है। दोनों को मिला देने पर ही समग्रता आती है।

जिस प्रकार बहिर्जीवन में हाथ-पैर इंद्रियाँ और धड़ संस्थान के भीतरी अवयव काम करते हैं। उसी प्रकार अंतरंग जीवन में विचार संस्थान की घुड़दौड़ चलती है। कल्पना, विचारणा, इच्छा आदि के चित्र-विचित्र उफान उठते रहते हैं। कामनाएँ और कल्पनाएँ दोनों ही परस्पर प्रतिस्पर्धा ठाने रहती हैं। इस धमा-चौकड़ी में न चित्त स्थिर हो पाता है और न ध्यान-धारणा का क्रम बनता है। उच्च विचारों को प्रवेश करने की भी उसमें गुंजाइश नहीं रहती। न अध्यवसाय के लिए क्रम बनता है, न निदिध्यासन के लिए। ऐसी दशा में भगवत्भक्ति का सुयोग बने ही कैसे? ब्रह्मरंध्र और सहस्रार कमल का जागरण भी इस स्थिति में संभव नहीं और न कुंडलिनी जागरण, षट्चक्र-वेधन, पंचकोशों का उत्थान जैसी महती साधना के लिए मार्ग ही बनता है। मेले-ठेले की घिच-पिच में रास्ता चलना तक दूभर हो जाता है। एकदूसरे को धकेलते हुए ही आगे बढ़ते हैं। उस माहौल में कहीं शांत चित्त बैठना जैसा कृत्य तो बन ही नहीं पड़ता। इसलिए यह भी आवश्यक है कि अंतर्मौन का अभ्यास किया जाए। जिस प्रकार जीभ से हर समय बोलते और खाते रहने से वह चंचल, लोलुप और अस्त-व्यस्त होती है, उसी प्रकार मनःक्षेत्र में अनेक प्रकार की विचारणाएँ उठते रहने पर भी यही होता है। अध्यात्म-क्षेत्र की समस्त धाराएँ विलीन करके एक केंद्र पर ध्यान एकत्रित करना पड़ता है। इस स्थिति को निर्विचार कहते हैं। कहा जाता है कि मस्तिष्क को निर्विचार करना चाहिए। तब अनतर्मौन बनता है; पर यह कहने में जितना सरल है, उतना करने में नहीं। यह समाधिवस्था है, जिसमें कोई भी विचार मन में नहीं रहता, तब भी हृदयस्थ आत्मज्योति में अथवा ब्रह्मांड मध्य ब्रह्मरंध्र में लय करना पड़ता है। अन्यथा खुली छूट रहने पर तो वह एक स्थान पर टिकेगा नहीं। यदि रामायण पढ़ी जाए तो उसका कथानक कभी कहीं से-कभी कहीं से याद आता रहेगा। उस समय की परिस्थिति अथवा कथोपकथन मस्तिष्क में घूमता रहेगा। यही बात स्रोत-पाठ आदि के संबंध में भी है। इसमें इष्टदेव की जैसी आकृति-प्रकृति है, वह भी मस्तिष्क में घूमती रहेगी। विचार चाहे देवताओं के हों, अवतारों के हों; इतिहास के हों, पर अपना सुझाव, विचार मन में आते ही रहेंगे। तब विचारहीन स्थिति बन नहीं पड़ेगी और अंतर्मौन सधेगा नहीं। इसलिए अपने आपको महाप्रलय की स्थिति में शिवतांडव करते हुए अथवा आकाश में सूर्यवत् एकाकी चमकते रहने का ध्यान करना चाहिए और साथ ही यह धारणा भी करनी चाहिए कि महाप्रलय की स्थिति में संसार में कहीं कोई प्राणी या पदार्थ नहीं है। सर्वत्र महाशून्य की निस्तब्धता छाई हुई है। जब कोई पदार्थ कहीं है ही नहीं, यह मान्यता बनी तो फिर मन को आश्रय लेने का कोई क्षेत्र सीमित नहीं रह जाता। तब वह एकाकी स्थिति में अपने आप में ही लय होता है। तब सूर्य का प्रकाश, शिवतांडव इसके लिए उपयुक्त आधार बनते हैं। यही बात आत्मज्योति से ब्रह्मरंध्र में अपने आपको लय करने से भी बनती है; पर तब अपनी काया का विस्मरण करना पड़ता है। साथ ही शरीर और मस्तिष्क के कलेवर को विस्मरण कर देना चाहिए। यदि काया का स्मरण बना रहा तो मन को उन अवयवों के बिखरने की आशंका रहेगी।


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