सामान्य एवं विशिष्ट फलदायी साधनाएँ

July 1986

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अध्यात्म-साधनाओं के लिए व्यक्ति के स्तर के अनुरूप भिन्न-भिन्न प्रकार के विधि-विधान निर्धारित हैं। साधक की पात्रता, अभिरुचि और मनःस्थिति देखकर यह पता लगाना पड़ता है कि उसमें कितना भार वहन करने की क्षमता है। तद्नुरूप ही उसे मार्ग का चयन एवं निर्धारण करना होता है। सभी की क्षमता एवं रुझान एक जैसी नहीं होती, इसलिए उसे अपने स्थिति के अनुरूप जो उचित है वही अपनाना पड़ता है।

सर्वसाधारण को मध्यवृत्ति के लिए पुण्य और परमार्थ की संपदा का संचय पर्याप्त माना जाता है। पुण्य अर्थात आत्मपरिष्कार, परमार्थ अर्थात लोक-मंगल। इस समन्वय में स्वार्थ और परमार्थ दोनों की सिद्धि होती है। पुण्यसंचय के लिए संयम-साधना होती है। इंद्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम, विचार संयम इन चारों के समग्र सम्मिलन से आत्मशोधन की प्रक्रिया पूरी होती है। इसके अतिरिक्त परमार्थ सेवा कार्यों से सधता है। पिछड़ों को ऊँचा उठाने की, विपत्तिग्रस्तों को सामयिक सहायता देकर उनका दुःख हलका करना होता है। साथ ही यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि बहानेबाज जिस-तिस बहाने किसी की श्रद्धा-सद्भावना का दोहन न करें।

यह सरल है। अपना सुख बाँट देना दूसरों का दुःख बँटा लेना। बालकों जैसा निर्मल-निष्कपट मन रखना। लोभ, मोह और अहंकार के भवबंधनों से अपने को न जकड़ जाने देना। इतनी ही योग-साधना सर्वसाधारण के लिए पर्याप्त है। सज्जनता अपनाए रहना, शालीनता को हाथ से न जाने देना, सहृदय एवं भाव-संवेदना से प्रेरित उदारता को स्वभाव में सम्मिलित रखना। नियमित, व्यवस्थित और आदर्शवादी जीवन जीना। यह गुण-कर्म-स्वभाव की वरिष्ठता किसी आध्यात्मिक साधना से कम नहीं। इसलिए सिद्धपुरुष न सही मानव गरिमा अक्षुण्ण रखे रहने वाले पुण्यपुरुष निश्चित रूप से बनकर रहता है। उसकी भी सद्गति ही होती है। जीवन की सार्थकता इतने भर से सध जाती है।

इससे अगले प्रकार की साधना वह है, जिसमें तप−तितिक्षा को सहना पड़ता है। जन्म-जन्मांतरों की पशु-प्रवृत्तियाँ मनुष्य जीवन के साथ भी बँधी-चिपकी चली आती हैं, वे सहज छूटती नहीं। अनगढ़ व्यक्ति नर-पशुओं-सा ही जीवन जीते हैं। उन्हें मर्यादाओं का पालन और वर्जनाओं का अंकुश अपनाते नहीं बनता। अस्तु मनःक्षेत्र में कुत्साएँ तज्जनित कुंठाएँ सदा घेरे रहती हैं और व्यक्ति को खिन्न-उद्विग्न बनाए रहती हैं। इस गंदगी से प्रयत्नपूर्वक जूझना- इंद्रियनिग्रह और मनोनिग्रह में कड़ाई बरतना तितिक्षा वर्ग में आता है। आदर्शों के परिपालन में त्याग करना और साहस दिखाना पड़ता है। यह मनोयोग ही आत्मोत्कर्ष है। उत्कृष्ट चिंतन, आदर्श चिंतन और मृदुल व्यवहार को स्वभाव का अंग बना लेना मध्यवृत्ति का योगाभ्यास है। इसी को कहते है— असंस्कृत से सुसंस्कृत बनना। शरीर से सत्कर्म और मन से सद्भाव क्रियांवित होते रहें तो समझना चाहिए कि आत्मोत्कर्ष का उपक्रम अपनी गति से ठीक तरह से चल रहा है।

सेवा कार्य में कष्ट सहना पड़ता है। असुर अपराधीजनों का विरोध करने या उनके हाथ न आने पर कोप का भाजन बनना पड़ता है। इस आधार पर भी विपत्तियाँ टूटती हैं। आदर्शवादी से दुर्जनों को खतरा दिखता है, इसलिए वे उसे दूर हटाने की चेष्टा में भी कुछ कमी नहीं रहने देते। प्रतिकार करने या सहन करने में दोनों ही तरह क्षति उठानी पड़ती है, इसलिए आदर्शों के लिए कष्ट सहन भी तप माना गया है। गाँधी के सत्याग्रहियों, स्वतंत्रता सेनानियों को भी अपने ढंग का तपस्वी कह सकते हैं।

तीसरी श्रेणी उन वैज्ञानिक स्तर के योगियों की है, जो आत्मसत्ता में सन्निहित दिव्यशक्तियों को उठाते और जगाते हैं। इसके लिए उन्हें बीज की तरह गलना और खाद-पानी, रखवाली की आवश्यक व्यवस्था बनाते हुए परिपुष्ट वृक्ष के रूप में फलित होना पड़ता है। मस्तिष्क की मात्र 7 प्रतिशत शक्तियाँ प्रयोग में आती हैं। 93 प्रतिशत ऐसी हैं, जिसका न अभी तक खोजना संभव हुआ है, न प्रयोग करना। इस प्रकार मेरुदंड, जननेंद्रिय मूल आदि में अवस्थित नाड़ीगुच्छकों में भी भौतिक जगत की प्रकृतिगत अनेकानेक क्षमताएँ विद्यमान हैं। कार्यसत्ता वस्तुतः एक दिव्य प्रयोगशाला है, उसमें सूक्ष्मीकृत ऐसे यंत्र-उपकरण लगे हुए हैं, जिनके सहारे अणु-परमाणुओं के साथ संपर्क साधा और उन्हें जिस दिशा में, जिस प्रयोजन के लिए प्रयुक्त करना हो, उसे मोड़ा-मरोड़ा जा सकता है। यह तंत्रविधान है, शक्ति का उत्पादक। जिस प्रकार सामर्थ्यवान यंत्र काम करते हैं, उसी प्रकार तंत्र का भी अभीष्ट प्रयोग किया जा सकता है। इस राह पर चलने वाले सर्वप्रथम अपनी जीवनचर्या ऐसी बनाते हैं, जो उद्देश्य की पूर्ति में भी सहायक हो।

आत्मा के उत्कर्ष अभ्युदय में ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग का समावेश है। इसे व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय ढाँचे में ढालना भी कह सकते हैं। इस निमित्त गुण, कर्म, स्वभाव के सभी पक्ष इस प्रकार ढालने-बदलने, मोड़ने-मरोड़ने पड़ते हैं कि विधान सर्वप्रथम अपने ऊपर प्रभाव छोड़े। इसके उपरांत किसी अन्य को तदरूप प्रभावित करें।

मानवी शरीर और अंतःकरण के दोनों पक्षों में सूक्ष्मशक्तियों के अपार भंडार भरे पड़े हैं, पर उनका उपयोग न होने से निःचेष्ट और निर्जीव हो जाते हैं, इसलिए उनका उपयोग करते रहना आवश्यक है। सैनिकों को समय-समय पर चाँदमारी की प्रतियोगिता में सम्मिलित होना पड़ता है। इससे सैनिकों की पकड़ भी बनी रहती है और बंदूकों की सफाई भी होती रहती है।

सूर्य की बिखरी किरणों में सीमित गर्मी होती है; पर यदि छोटे से आतिशी शीशे पर उन्हें केंद्रित कर लिया जाए तो तत्काल अग्नि प्रकट होती है। इसी प्रकार व्यष्टिसत्ता के बिखराव को भी यदि समेट लेने की कला हस्तगत हो जाए तो उस प्रयोग के चमत्कारी प्रतिफल सामने आते हैं।

एकाग्रता के लिए यों लोग जप और ध्यान का प्रयोग अपनाते हैं और उसमें आंशिक सफलता भी मिलती है; पर यदि उच्चस्तरीय क्षमताओं का पुंज संचित करना हो तो फिर कुछ तपश्चर्या स्तर के कार्यक्रम भी अपनाने पड़ते हैं। ऐसे प्रयोगों में एकांत सेवन, मौन, आहारसंयम और ब्रह्मचर्य का विशेष महत्त्व है। योगीजन वन्य प्रदेश में रहकर पर्वतीय गुफाओं में जो साधनाएँ करते हैं, उनमें उन्हीं तीन अनुबंधों का समावेश होता है। कंद-मूल, फल का आहार ऋषि करते थे, पर अब वैसे बन नहीं रहे। अमृताशन-खिचड़ी, शाकाहार, छाछ जैसी वस्तुओं पर घर-गाँवों में रहने वाले तपस्वी भी निर्वाह कर सकते हैं। मौन जिह्वा पर जटिल अंकुश को नहीं कहते; वरन उसे मानते हैं जिसमें आदर्शों की कहने-सुनने की छूट किसी नियत समय पर रहे। एकांत सेवन गुफा की तरह ऐसे कमरे में भी हो सकता है जहाँ आवागमन, वार्त्तालाप या धमा-चौकड़ी का माहौल न हो। आत्मचिंतन में विघ्न उपस्थित करने वाली परिस्थितियाँ न हों। इस प्रयोजन के लिए ऐसे कमरे का चुनाव किया जाए जहाँ से आकाश दिखता हो। खुली वायु और सूर्य की ऊर्जा का आवागमन हो। कभी गुफाएँ इस कार्य के लिए आवश्यक मानी जाती थीं, पर अब उस कार्य के लिए उपयुक्त कमरे झोंपड़े भी काम दे सकते हैं। ऋषियों में से अधिकाँश झोंपड़े बनाकर रहते थे जिनमें वायु और धूप का आवागमन रहता था। आज मध्यवर्ती अध्यात्म प्रयोगों के लिए कोलाहलरहित एकांत, सार्थक सीमित कथन, श्रवण का मौन पर्याप्त है। आहार में जितनी अधिक सात्विकता बरती जा सके, मात्रा जितनी स्वल्प रखी जा सके, उतना ही उत्तम है। श्रद्धापूर्वक की गई साधना सिद्धि प्रदान किए बिना नहीं रहती।


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