कलुषित अन्तःकरण स्वयं दण्ड भोगता है।

October 1972

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असत्य और अनाचार के सामाजिक एवं शासकीय दण्ड से बचा जा सकता है। चतुरता के ऐसे अनेकों तरीके निकाल लिये जाते हैं, जिनसे अपराधी दुराचरण करने वाले का पता ही न चले। पता चल भी जाय तो पुलिस, कानून, अदालत को बहका देने और बच निकलने के भी हजार रास्ते बना लिये जाते हैं।

अनाचारी जीवन के प्रति बरतने वाली जनसाधारण की घृणा को हलका या निरस्त करने के लिए ऐसे लोग कभी-कभी कोई दान पुण्य जैसा बड़ा विज्ञापन खड़ा कर देते हैं। उससे लोगों की आँखें चौंधिया जाती है, निरन्तर किये गये कुकृत्य भुला दिये जाते हैं और वह एक पुण्य विज्ञापन लोगों की आँखों में छाया रहता है। भीतर से पापात्मा बाहर से धर्मात्मा बने रहने की कला भी अब बहुत विकसित हो गई है। सरकार की समाज की आँखों में धूल झोंकते हुए ज्ञान के साथ दुष्कर्म करते रहना बाहरी ढकोसला सज्जन का बनाये रहना अब व्यावहारिक चतुरता का एक अंग हो गया है। अपराधियों में से दस प्रतिशत भी नहीं पकड़े जाते, जो पकड़े जाते हैं उनमें से दस प्रतिशत भी समुचित दण्ड नहीं भुगतते। जिन्हें दण्ड मिलता है वे और भी अधिक ढीठ निर्लज्ज बनकर पूरी निर्भयता निश्चिन्तता के साथ वैसे ही कुकर्म करते हैं।

ऐसा अन्धेर चल पड़ने पर भी किसी को यह नहीं मान बैठना चाहिए कि पाप के दण्ड से पूर्णतया बचाव हो गया। भगवान के घर एक दिन जाना ही होगा और वहाँ न्याय की तुला पर तौला ही जायेगा। वहाँ चतुरता काम नहीं आती और कुकर्मी को कराहते हुए अपने कुकृत्यों का फल भोगना पड़ता है।

कुकृत्यों का लेखा-जोखा हमारा अचेतन मस्तिष्क भी नोट करता है। वहाँ ऐसी स्वसञ्चालित प्रक्रिया स्थापित है जो उन पाप अंकनों के आधार पर दुख दण्ड की व्यवस्थाएं यथावत् बनाती रहती है। शारीरिक और मानसिक रोगों के रूप में -स्वभाव की विकृति के कारण स्वजनों से मनोमालिन्य के रूप में अपने ही मनोविकारों से उत्पन्न विक्षेपों के रूप में अन्तः संस्थान बेतरह खिन्न उद्विग्न रहता है। बाहर के लोगों को प्रतीत भले ही न हो पर वह स्वयं अशान्त और बेचैन ही बना रहता है। नींद न आने से लेकर घबराहट भरी मनः स्थिति किसी नारकीय दण्ड से कम नहीं। जेलखानों में भी उतना शारीरिक कष्ट नहीं होता जितना मानसिक विक्षोभ। अपराधी प्रवृत्तियाँ अपने ही अचेतन मन के माध्यम से शारीरिक और मानसिक आधि व्याधियों से घेर देती हैं और कुकर्मी उस स्वसञ्चालित विधि विधान के आधार पर स्वयं ही दण्ड का भागी बनता रहता है।

क्रोध, आवेश, चिन्ता, भय, हर्षातिरेक, कामोत्तेजना आदि के अवसर पर नाड़ी संस्थान उत्तेजित हो उठता है। रक्तचाप बढ़ जाता है। श्वास की गति तीव्र हो जाती है। त्वचा की ऊष्णता में बढ़ोतरी होती है। यह सर्वविदित है।

ठीक इससे मिलता-जुलता एक अदृश्य आवेश्य उस समय होता है जब मनुष्य छिपाने का ठगने का, या झूठ बोलने, छल करने का प्रयत्न करता है। जानकारी को-मनःस्थिति को यथावत् प्रकट कर देने की प्रक्रिया सरल और सुगम है। उसमें किसी प्रकार का अतिरिक्त तनाव उत्पन्न नहीं होता। पर छिपाने में अपने सही व्यक्तित्व को दबाना पड़ता है। वास्तविकता को छिपाकर अन्य प्रकार की स्थिति प्रकट करने पर भीतर ही अन्तःसंघर्ष शुरू हो जाता है। स्वाभाविकता असली रूप में प्रकट होने के लिए प्रस्तुत रहती है। पर छल या दुराव के अवसर पर उस वास्तविकता को पूरी तरह दबाना पड़ता है और एक कल्पित स्थिति गढ़कर प्रकट करनी पड़ती है। इस गढ़ंत में बहुत मानसिक शक्ति खर्च होती है। उसमें भी ज्यादा दबाव तब पड़ता है जब अवास्तविकता को वास्तविकता जैसे ढंग से प्रकट करने का हाव-भाव, उच्चारण, कथन, उपक्रम एवं क्रम प्रवाह, इस तरह ढालना पड़ता है कि अभिनय खरा उतरे-पकड़ में न आवे। इस सारे क्रिया-कलाप में अन्तः चेतना को एक भारी सघन आन्तरिक संघर्ष में उलझना पड़ता है और इस उलझने का निश्चित रूप से चिन्तन केन्द्र पर भारी दबाव पड़ता है।

सच और झूठ का अन्तरंग स्थिति में इतना भारी अन्तर रहता है कि उसे पहचाना और पकड़ा जा सकता है। अभी-अभी विज्ञान ने इस प्रकार के मानसिक तनाव को अंकित करने के लिये एक अति सम्वेदनशील यन्त्र बनाया है- नाम है उसका ‘लाइ डिटेक्टर’। ब्लड प्रेशर हृदय गति नापने के यन्त्रों जैसा ही दीखता है मस्तिष्क पर टोपी की तरह इसके वाह्य उपकरण लग दिये जाते हैं और विचार प्रवाह की तरंगों का अंकन उस पर आरम्भ हो जाता है। झूँठ बोलने और न बोलने के बीच का अन्तर इन अंकनों के आधार पर स्पष्ट अंकित होता चलता है। फलतः यह जान लिया जाता है कि उस व्यक्ति ने जो उत्तर दिये वह गलत थे या सही।

अन्तर्द्वन्द्व और शारीरिक उत्तेजना से अथवा किसी मानसिक उत्तेजना से उत्पन्न तनाव में भौतिक अन्तर रहता है। अपराधी प्रश्नोत्तर के समय-अथवा इस मशीन के आतंक से घबरा भी सकता है और उसका मानसिक तनाव बढ़ सकता है पर वह बिल्कुल दूसरी तरह का होता है, झूँठ वाली स्थिति से सर्वथा भिन्न प्रकार का होता है।

झूँठ बोलने में चतुर व्यक्ति भी इस परीक्षण को झुठलाने में समर्थ नहीं हो सकता है। क्योंकि मस्तिष्क की बनावट के अनुसार सही जानकारी ही स्वाभाविक रीति से प्रकट हो सकती है। स्मृति केन्द्र यथावत् स्थिति में तभी काम कर सकते हैं जब जो कुछ जैसा है उसी रूप में कह दिया जाय। यथार्थता को तोड़ने मरोड़ने में मस्तिष्क को अतिरिक्त श्रम न करना पड़े यह हो ही नहीं सकता और उपरोक्त यन्त्र इतना सम्वेदनशील है कि उस मानसिक यथार्थता को मानसिक यथार्थता को पकड़े बिना रह ही नहीं सकता। इस माध्यम से मिथ्या साक्षी देने वाले अथवा छल-कपट का जाल रचने वालों की कलाई खुल जाना अब अधिक सरल हो सकेगा।

असत्य के बीच जब कभी सत्य स्थिति की चर्चा होती है तो मौन रहते हुए भी उस व्यक्ति के मनः क्षेत्र में एक अतिरिक्त हलकापन उभरता है। ऐसी दशा में कोई असत्य वादी यदि चुप रहकर सब कुछ छिपाये रहने का प्रयत्न करे तो भी उसकी चाल चलेगी नहीं। तब प्रश्नकर्त्ता स्वयं ही विभिन्न प्रकार के परस्पर विरोधी प्रश्न पूछता चला जायेगा और उन प्रश्नों को सुनकर मन की सहमति असहमति ‘लाइ डिटेक्टर’ पर अंकित होती जायगी। जैसे किसी व्यक्ति ने कानपुर के माल बाजार में चोरी की। तो अन्य बाजारों का नाम पूछते चलने पर चोर का मस्तिष्क अस्वीकृति अंकित करेगा पर जब माल बाजार कहा जायेगा तो अंकन बिल्कुल दूसरी तरह का होगा और उसमें स्वीकृति की सूचना होगी। इसी प्रकार साथियों के नाम चोरी का माल रखने का स्थान आदि भी कुशल प्रश्नकर्ता पूछता चला जाय और अपराधी चुप बैठा रहे तो मनः क्षेत्र की स्थिति और घटना क्रम की यथार्थता का भेद खुलता चला जायेगा।


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