न जाने मनुष्यों की बुद्धि को क्या हुआ है कि वे प्राकृतिक भोज्य पदार्थों का छोड़कर अप्राकृतिक तथा टॉनिकर आहार अपनाते जा रहे हैं। केवल जीभ के स्वाद के लिए माँस, मछली, अण्डा इत्यादि घृणित पदार्थ अपने पेट में भरते हैं। ये पदार्थ स्वास्थ्यकर होते हैं, यह धारणा भी नितान्त भ्रममूलक है। अनेक वैज्ञानिक खोजों के आधार पर अब यह सिद्ध किया जा चुका है कि माँस शरीर में अनेक विकृतियां उत्पन्न करता है। डॉक्टर पारकर का कथन है- ‘सिरदर्द, अपच, गठिया, थकान रक्तपात, मधुमेह आदि का कारण योरोप तथा अमेरिका में तो बढ़ा हुआ माँसाहार ही है। शोधकर्त्ता मेनरी पडरी ने लिखा है- ‘शाकाहारियों की तुलना में माँसाहारी अधिक बीमार पड़ते हैं तथा जल्दी मरते हैं’। डॉक्टर क्लेमुड ने कहा है- ‘बच्चों को मास की आदत डालना उन्हें आलसी, दुर्बल और झगड़ालू बनाने की शुरुआत है।’ जापान के प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. वेञ्ज ने अनेकों प्रयोगों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि ‘मनुष्य की प्रकृति में क्रोध उद्दण्डता, आवेश, अविवेक, कामुकता और अपराधी प्रवृत्ति उत्पन्न करने तथा भड़काने में माँसाहार का बहुत बड़ा हाथ है’ वस्तुतः आहार के सूक्ष्म तत्वों से ही हमारा मन बनता है। अतएव सात्विक या तामसिक जैसा भी आहार करेंगे, वैसा ही मन भी बन जायेगा। पशुओं का माँस खाने वालों का मन भी पशु प्रवृत्तियों से आपूरित रहता है। साथ ही माँसाहारी को निद्रा भी अधिक आती है तथा वह आलसी भी होता जाता है।
स्वाद के लिये माँस खाया जाता है, यह कहना भी अज्ञानमूलक है। माँस गन्ध, बनावट, स्वाद सभी ऐसे हैं कि असली रूप से घृणा ही उत्पन्न करते हैं। उबालकर मसालों में भूनकर वह इस योग्य बनाया जाता है कि मुँह में रखा जा सके। हिंसक पशुओं के लिये माँस रुचिकर व्यञ्जन हो सकता है, मनुष्यों के लिये तो कदापि नहीं।
अपने देश में प्राचीन काल से ही गोरक्षा, गोपालन और गो-पूजा को महत्व दिया गया है, वह अकारण ही नहीं दिया गया। उसके पीछे अनेक वैज्ञानिक तत्व सन्निहित हैं। यों दूध तो भैंस और भेड़-बकरी का भी मिलता है और कहीं-कहीं गधी तथा ऊँटनी का भी प्रयोग में लाया जाता है परन्तु गोदुग्ध से उसकी तुलना कदापि नहीं की जा सकती। गाय का दूध मधुर, स्निग्ध, शीतल नस-नाड़ियों को पुष्टि प्रदान करने वाला तथा अनेकानेक बीमारियों को दूर करने वाला होता है। धारोष्ण गोदुग्ध ही अमृत रूप है। इसका निरन्तर प्रयोग करने से रोग दूर होते हैं तथा बुढ़ापा शीघ्र नहीं सताता। इसके विपरीत भैंस आदि का दूध भारी, गर्म, कफ और वायु को बढ़ाने वाला, मंदाग्नि उत्पन्न करने वाला तथा छूत की बीमारियों को बुलाने वाला होता है।
पशुओं का मानसिक स्तर भी उनके दूध में घुला रहता है। गाय में सतोगुण की मात्रा अधिक होती है अतएव उसका दूध भी पुरुषार्थ, शान्ति तथा स्फूर्ति लाने वाला होता है। इसके विपरीत भैंस का दूध आसुरी होता है। इसे पीने से उसी जैसा आलस्य, प्रमाद तथा काम, क्रोध, राग द्वेष जैसी आसुरी-वृत्तियाँ बढ़ती हैं।
यह हमारा कर्त्तव्य है कि गोदुग्ध की उपयोगिता स्वीकार करें तथा उसी को प्रयोग में लायें। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि सरकार नये-नये बूचड़खानों को प्रश्रय दे रही है। आज डालर कमाने के लिये जीवित गायों को काट-काटकर उनका माँस, हड्डियाँ तथा आंतें विदेशों को निर्यात की जा रही हैं। हम गोरक्षा की बात तक करते हैं परन्तु उनकी नस्ल सुधारने के लिए कोई प्रयास नहीं करते। हमारा गोवंश बुरी तरह घटता और नष्ट होता जा रहा है। आज आवश्यकता इस बात की है कि जनता तथा सरकार दोनों ही गाय का महत्व समझें तथा गो-पालन, गो-संवर्धन और गो-रस का उत्पाद बड़े पैमाने पर करें।