समस्त रोगों का एकमात्र कारण-असंयम

October 1972

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इण्डियन मेडिकल ऐसोसिएशन की राजस्थान शाखा के अध्यक्ष एवं हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ. रामेश्वर शर्मा ने जयपुर की एक संवाद गोष्ठी में हृदय रोगों की बाढ़ में दो कारणों को प्रधान बताया उन्होंने कहा -(1) सुन्दर पत्नी (1) बढ़िया रसोइया। यह दोनों ही हृदय रोगों की बढ़ोत्तरी में विशेष रूप से उत्तरदायी हैं।

उनका इशारा इनके आधार पर बरते जाने वाले असंयम से था। यों सुन्दर पत्नियाँ बहुत शालीन, समझदार अपने पारिवारिक स्वास्थ्य की प्रहरी भी होती हैं और अच्छे रसोइये सुपाच्य भोजन बनाकर आरोग्य रक्षा में सहायता ही करते हैं। इसलिये दोष किसी वर्ग विशेष को नहीं दिया जा सकता, न पत्नी को, न रसोइये को। दोष असंयम का है जो अन्य अनेक मार्गों की तरह उनके माध्यम से भी बरता जाता है। चटोरी आदत तरह तरह के गरिष्ठ दुष्पाच्य मिष्ठान और पकवान, मिर्च मसाले वाले भोजन पसन्द करती है और आवश्यकता से अधिक मात्रा में उदरस्थ करती है। इसी प्रकार लोलुप वासनायें स्वास्थ्य का ध्यान रखे बिना अमर्यादित शरीर क्षरण करती है और फिर खोखला हुआ शरीर साधारण कारणों को लेकर हृदयगत बीमारियों से ग्रसित हो जाता है।

यों मानसिक तनाव, उद्वेगों भरी मनःस्थिति, नशेबाजी अस्त-व्यस्त दिनचर्या, सामर्थ्य से अधिक श्रम, अथवा निठल्लापन जैसे अन्य कारण भी हृदय रोगों की वृद्धि में कारण होते हैं पर अधिक दोष इन दो कारणों का ही है। इन्द्रियों का असंयम तत्काल ही सुखद लगता है पर अन्ततः उसका परिणाम इतना विघातक होता है कि पीछे पछताने के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं रहता। हृदय रोग एक बार जिन्हें दबोच लेता है फिर उनके लिये उसके कभी भी उभर खड़े होने का खतरा बना रहता है।

खाओ, पियो, मजा करो की सभ्यता मनुष्य को असंयमी बनने का प्रोत्साहन देती है। जीभ का चटोरापन, माँसाहार, नशेबाजी, अश्लील चिन्तन, व्यभिचार को जीवन का लक्ष्य मानकर चल रही आज की उच्छृंखलता तत्काल तो अच्छी लगती है। उस समय सुखद भी प्रतीत होती है पर इस असंयम का परिणाम हृदय रोग जैसी कितनी ही विभीषिकाओं के रूप में सामने आता है।

हृदय रोगों की संख्या संसार भर में तेजी से बढ़ रही है। अकेले अमेरिका को लीजिये वहाँ सन् 1942 की स्वास्थ्य रिपोर्ट के अनुसार साल में 22000 व्यक्ति हृदय रोगों से मरते थे। अब वह संख्या लगभग पाँच गुनी हो गई है अर्थात् 123000 हर साल। अन्य देशों से उपलब्ध रिपोर्टों के अनुसार संसार भर में कम से कम 600000 मनुष्यों को हृदय सम्बन्धी रोगों से मरना पड़ता है।

दाहिने अलिन्द में होकर पल्मोनरी महाधमनी द्वारा रक्त फेफड़ों में पहुँचता है और वहाँ से पुनः ऑक्सीजन युक्त हो जाता है। शुद्ध रक्त फेफड़ों से हृदय के ऊपरी भाग- बाँये अलिन्द में- पल्मोनरी शिरा द्वारा बाँये वेंट्रिकिल में आता है। वहाँ से महाधमनी चाप की शाखाओं में होकर शरीर के हर भाग तक पहुँचता है।

दांये तथा बाँये अलिन्दों तथा वेंट्रिकिलों के बीच माँस पेशियों की एक दीवार है। हृदय रोग की स्थिति में इस दीवार में छेद या घाव हो जाते हैं। इससे दाहिने अलिन्द या दाहिने वेंट्रिकिल के बीच ट्रिकास्पिड नामक वाल्व तथा बांई ओर के मिट्राल वाल्व सिकुड़ जाते हैं और रक्त प्रवाह में रुकावट पड़ती है। आमतौर से हृदय रोगों में यही स्थिति होती है।

कभी-कभी हृदय की रक्त वाहिनी नलियों में कुछ पदार्थ जमकर भी अवरोध उत्पन्न करते हैं। कोलेस्ट्रॉल नामक रसायन कभी-कभी रक्त नलियों में जमता देखा गया है। उसके कारण थक्के या थ्राँवस बनते हैं और हृदय के लिये कठिनाई उत्पन्न करते हैं। कभी-कभी कैल्शियम भी जमने लगता है।

साधारण श्रम करने वालों के भोजन में 2300 कैलोरी गर्मी पर्याप्त है पर यदि पौष्टिक आहार के नाम पर 3000 कैलोरी या इससे अधिक प्राप्त की जाय तो भी हृदय रोगों की सम्भावना रहेगी।

आयु वृद्धि के साथ-साथ धमनियाँ कड़ी होने लगती हैं पर यदि वे अधिक कड़ी हो जायें तो आर्थेरोस्कलेरोसिस रोग उत्पन्न होता है। रक्त में थक्के- -थ्रोम्विन-बनने लगें तो वे रक्तसंचार में रोड़े जैसे बनकर अटकने लगते हैं। रक्त वाहिनी धमनियाँ कड़ी होते जाने से और भी कई प्रकार के रोग उठ खड़े होते हैं। स्टेनों कार्डिया और मायोकार्डियल (हृत्पेशीय अमिशोष) इसी स्तर के रोग हैं। विकार ग्रस्त हृदय जब शरीर को शुद्ध और समुचित मात्रा में रक्त नहीं पहुँचाता तो मृत्यु की घड़ी सामने आ उपस्थित होती है।

किन्हीं कारणों से जब हृदय की रक्त धमनियाँ सिकुड़ जाती हैं, थक जाती हैं, भर जाती हैं तो हृदय में दर्द होने लगता है। डाक्टरों की भाषा में इस दर्द को ‘ऐजाइना पैकटोरिस’ कहते हैं। इस व्यथा के उठने के साथ-साथ श्वाँस बढ़ना, धड़कन तेज हो जाना, छाती में बाँई ओर हृदय के आस-पास दर्द रहना, थकान, सुस्ती और कभी कभी बेहोशी जैसी अनुभव होना जैसे लक्षण भी प्रतीत होते रहते हैं।

प्रायः 30-40 वर्ष की आयु के बाद हृदय रोग उत्पन्न होते हैं। छोटी आयु में वे कम ही होते हैं। उठती उम्र और ढलती उम्र के बीच शरीरगत कारबोहाइड्रेट प्रोटीन तथा मेटाबॉलिज्म में तो अधिक अन्तर नहीं पड़ता हड्डियाँ और माँस पेशियाँ भी भारी नहीं होती पर चर्बी की मात्रा बढ़ जाती है, त्वचा के नीचे परत में, रक्त में, पेट पर तथा हृदय पेशियों में इस बढ़ी हुई चर्बी का प्रभाव अधिक होता है और वहाँ मुटाई तथा भारीपन में वृद्धि होती है। भार बढ़ने पर उसका दबाव भार वाहन और पोषण का उत्तरदायित्व हृदय को ही वहन करना पड़ता है। निरन्तर अथक कार्य करते रहने से सामान्य उत्तरदायित्व का निर्वाह करने के अतिरिक्त जब भार वृद्धि का अतिरिक्त दबाव भी उस पर पड़ता है तो उसकी थकान बढ़ती है और वह रुग्ण होने लगता है।

यह तो हुई हृदय रोगों में पाई जाने वाली आन्तरिक अवयवों की स्थिति। विचार यह किया जाना है कि ऐसा होता क्यों है। प्रकृति ने हृदय को जितना कोमल बनाया है उतनी ही उसे समर्थता भी दी है। यदि उस पर अनावश्यक दबाव न पड़े तो वह आजीवन अपना काम ठीक से करता रह सकता है। पर यदि आहार-विहार का असंयम बरता गया तो उसके कारण उत्पन्न हुई रक्त की विकृति अपना प्रभाव हृदय पर छोड़ती है और वह अशक्त असमर्थ होकर कितने ही प्रकार के रोगों से ग्रसित हो जाता है। इस रोग का रोगी एक प्रकार से अपाहिज होकर जीता है। तनिक भी मानसिक दबाव, सीढ़ियों पर चढ़ना या छोटा मोटा व्यतिक्रम उत्पन्न होते ही बीमारी फिर उभर आती है।

जहाँ तक चिकित्सा का प्रश्न है अभी विज्ञान कोई सुनिश्चित उपचार ढूँढ़ नहीं पाया है। केवल विश्राम करना ही प्रधान उपाय माना जाता है ताकि प्रकृति उसे अपने ढंग से आप सुधार सके। औषधि उपचार के क्षेत्र में थोड़ी सी ही दवाएं काम में आती हैं और वे थोड़ी रोक-थाम करने में ही सहायता करती हैं।

साधारण हृदय दर्द-ऐंजाइना पेक्टोरिस-में नाइट्रोग्लिसरीन दवा दी जाती है और वह जल्दी ही काबू में आ जाता है। ‘मायोकार्डियल इन्फार्कशन’ कहलाने वाला दर्द अति भयंकर होता है। इसमें रोगी काँपने लगता है और उसकी बोलती बन्द हो जाती है। हृदय पेशियों का भयंकर दर्द-एक्यूट मायोकार्डियल पेन-रोगी को एक बारगी तड़पा देता है। कुछ हृदय रोग ‘इलक्ट्रोकार्डियो ग्राम’ की पकड़ में भी नहीं आते। हृदय पेशियों की विकृति जानने के लिए ‘मायोकार्डियम’ आवश्यक हो जाता है।

हृदय रोगों की खास औषधि इन दिनों एक ही प्रख्यात है-’क्लोट्राइड’ इसी को ब्रिटेन में ‘सैलुरिक’ और अमेरिका में ‘डाडरिल’ कहा जाता है। रोगी की स्थिति के अनुसार इससे वेराट्रम, एप्रेसोलिन, सार्पासील आदि को भी मिला दिया जाता है। भारत की सर्पगन्धा जड़ी जो संसार में ‘सर्पेन्टाइन’ के नाम से प्रख्यात है हृदय रोगों में भी अच्छा काम करती है।

आपरेशन करके किसी का हृदय किसी को लगा देने की प्रक्रिया का परिक्षण भी हुआ पर वह अभी तक सफल नहीं हो पाई। एक तो आज हृदय दान देने वाले मिलते ही कहाँ हैं। फिर मिलें भी तो जिसमें मृत्यु सुनिश्चित हो, ऐसा अनुदान स्वीकार करना कानूनी दृष्टि से भी हेय है। इस पर भी उस प्रत्यारोपण की सफलता नितान्त संदिग्ध है। ऐसे आपरेशन महंगे भी बहुत हैं अमेरिका में उन पर डेढ़ लाख से तीन लाख रुपये तक का खर्च आता है। संसार भर में अब तक लगभग ऐसे 15 ऑपरेशन हुए हैं पर उन पर दृष्टिपात करते हुए सफलता की दिल्ली भी बहुत दूर मालूम पड़ती है। अब तक के प्रयोगों में इस प्रकार के आपरेशनों को उत्साहवर्धक सफलता नहीं मिली। कुछ समय पूर्व बम्बई के के.के. ई.एम. अस्पताल में 19 वर्षीय कुमारी ललता का सिर रेल दुर्घटना में फूट गया था उसकी मृत्यु निश्चित समझकर उनके अभिभावकों ने लड़की का हृदय किसी दूसरे के लगा देने की स्वीकृति दे दी, तदनुसार एक हृदय रोगी के उसका दिल निकाल कर लगाया गया। वह ऑपरेशन डॉ. सेन की अध्यक्षता में 30 डाक्टरों द्वारा लगातार आठ घण्टे तक चला उससे कुछ प्रयोजन सिद्ध न हुआ। रोगी आपरेशन के बाद तीन घण्टे जीवित रहकर चल बसा।

अब से 70 साल पहले विश्व विख्यात सर्जन डॉ. सी.ए.टी. विलरथ ने सर्जरी क्षेत्र को गंभीर चेतावनी दी थी कि ‘हमें यदि अपने पेशे की इज्जत बचानी है तो हृदय आपरेशन की बात नहीं सोचनी चाहिए।’ छुट पुट ऑपरेशन की बात दूसरी है पर हृदय प्रत्यारोपण जैसे गंभीर ऑपरेशनों के सम्बन्ध में उनकी वह चेतावनी सार गर्भित ही दीखती है।

रोगी होने पर चिकित्सा करने और पीछे पछताने की अपेक्षा यह अच्छा है कि सादगी और संयम का जीवन जियें, सात्विक गतिविधियाँ अपनायें, आहार-विहार की मर्यादाओं का पालन करें, प्रसन्न चित्त रहें और सदाचरण का हलका-फुलका जीवन जियें। ऐसी गति-विधि अपनाने से हृदय समेत समस्त रोगों से आजीवन बचा रहा जा सकता है। तब सुन्दर नारी और कुशल रसोइया रोगों का कारण नहीं बनेंगे वरन् वे स्वास्थ्य को सुदृढ़ बनाने में सहायक ही सिद्ध होंगे।


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