अनुदान लें तो पर उसे वापिस भी करें

October 1972

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अपनी पूँजी से ही काम चलाना नैतिकता भी है और बुद्धिमता भी। स्वाभिमान का तकाजा यह है कि हम जितना उपार्जन कर सकें उसी सीमा में अपनी आवश्यकताएं सीमित रखें। सुविधाएं प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील तो रहें पर आकाँक्षा के अनुरूप उपलब्धि न मिल सके तो उद्विग्न न हों, बल्कि उतने से ही सन्तोष पूर्वक काम चलायें, जब उत्पादन बढ़ जाय तब उपयोग भी बढ़ायें, जब तक अभीष्ट उत्पादन न हो तब तक परिस्थिति से समझौता करके अपनी इच्छाएं सीमित कर लें और हँसती खेलती हलकी फुलकी जिन्दगी जियें। पुरुषार्थ से पीछे न हटें, प्रयत्नों में कमी न रखें, पर लम्बे चौड़े सपने न देखें। प्रयत्न की योजना बनायें पर उपलब्धि को परिस्थितियों से जुड़ी समझकर उनके बारे में अत्यधिक लालायित न हों। यदि मनोभूमि इस स्तर की बनाली जाय तो हर परिस्थिति में मनुष्य अपनी शान्ति और प्रसन्नता को अक्षुण्ण बनाये रह सकता है।

कई बार ऐसे अवसर भी आ सकते हैं जब दूसरों से सहायता लेनी पड़े। ऋण न लेकर सीमित काम चलाना ही बिना झंझट का और उचित तरीका है; पर कभी-कभी ऐसी आवश्यकता भी पड़ जाती है कि बाहर का सहारा लेना पड़े। कुआँ बनाने, बैल खरीदने आदि के लिये किसान लोग अक्सर तकावी लेते हैं। बैंकें भी उद्योगों के लिये ऋण देती हैं। कोई आपत्ति आ जाने पर मित्र सम्बन्धियों से भी लेना पड़ता है। आवश्यकतानुसार ऋण लेने का भी औचित्य है; पर वह लिया यह समझकर ही जाना चाहिए कि उसे चुकाना है।

इस दुनिया में मुफ्त लेने देने का कोई नियम नहीं है। हर वस्तु मूल्य देकर प्राप्त की जाती है और की जानी चाहिए। मुफ्तखोरी को निंदनीय बताया गया है। भिखारी को चोर से बुरा कहा जाता है। इसका कारण यह है कि चुकाने की तैयारी रखे बिना-ऐसे ही किसी का उपार्जन हड़प लेना अनैतिक है। इसी आधार पर मुफ्तखोर, ऋण भार लेने वाले, भिखारी चोर-उचक्के, सटोरिये, जुआरी बुरे माने जाते हैं कि वे जहाँ तहाँ से ऐसे ही झटके में कुछ प्राप्त करने के लालच में डूब रहते हैं। अपने लाभ के लिए दूसरों को क्षति पहुँचाते हैं। दहेज को भी सामाजिक कोढ़ इसलिए कहा जाता है कि वधु ही नहीं उसके साथ दौलत भी मुफ्त में हड़पने के लिये ललचाने की प्रवृत्ति हर दृष्टि से हेय और अनैतिक है। ऐसी कमाई को निन्दनीय ठहराया गया है।

कोई व्यक्ति आशीर्वाद, वरदान प्राप्त करने के लिये भी इसी मुफ्तखोरी का दृष्टिकोण लेकर अपनी घात लगाते फिरते हैं। कोई सन्त, तपस्वी मिल जाय तो उसके हाथ पैर जोड़कर-पूजा प्रशंसा की तरकीब लड़ा कर सस्ती कीमती पर महंगा लाभ प्राप्त कर लेना ही ऐसे लोगों का दृष्टिकोण रहता है। देवी-देवताओं की पूजा पत्री में उत्साह भी इसलिये रहता है कि इस विधि से वह लाभ लिया जा सकेगा जो सीधे रास्ते बहुत श्रम करने और कष्ट सहने पर ही मिल सकना सम्भव है।

औचित्य की कसौटी पर इस प्रकार का दृष्टिकोण सर्वथा हेय स्तर का है। उसे अध्यात्म तो कहा ही नहीं जा सकता। अध्यात्म के साथ नैतिक तथ्य अनिवार्य रूप से जुड़े होते हैं। अनैतिक आचरण की उसमें तनिक भी गुंजाइश नहीं है। मनुष्य की गरिमा देने में है लेने में नहीं। देवत्व का अन्तरात्मा में जितना अवतरण होगा उतनी ही उसकी आकाँक्षा देने के लिए मचलेगी। लेने में संकोच ही बढ़ता जायेगा। अपने उत्पादन को भी वह अपेक्षाकृत कम मूल्य पर ही देना चाहता है। फिर दूसरों का उत्पादन सो भी बिना मूल्य लेने का उसका परिष्कृत अन्तःकरण कैसे स्वीकार करेगा।

संसार में अनेक उदार व्यक्ति मौजूद हैं। दानी लोग दीन दुखियों की सहायता करते रहते हैं। उनका यह दृष्टिकोण उचित है। भगवान ने जिनको दिया है उन्हें दूसरों को देने में प्रसन्नता अनुभव करनी चाहिए और उदारता को कर्त्तव्य मानना चाहिए, वे अपने स्थान पर सही हैं।

पर जो लोग दूसरों की उदारता से लाभ उठा लेना अपना अधिकार मान लेते हैं और उसे संकोच छोड़कर प्राप्त करने के लिए आतुर रहते हैं वे भूल करते हैं। वे भूल जाते हैं कि ‘मुफ्त’ नाम की कोई चीज इस दुनिया में नहीं है; यदि है तो उसे ‘ऋण’ ही कहा और माना जाना चाहिए। किसी का दान तभी स्वीकार करना चाहिए जब उपार्जन के सारे रास्ते बन्द हो जायँ और वह भी इतना लेना चाहिए जितना उस समय की कठिनाई को हल करने के लिये नितान्त आवश्यक है। सो भी इस दृढ़ निश्चय के साथ लेना चाहिए कि जिसका लिया है उसे समय आते ही निश्चित रूप से लौटा दिया जायेगा।

विवेकशील व्यक्ति भीख नहीं देते वरन् दीन-दुखियों को श्रम करने की सुविधा देकर उन्हें स्वावलम्बी बनाने का प्रयत्न करते हैं। आपने उदारता तो दिखा दी- स्वयं तो पुण्य कमा लिया पर दूसरों को आलसी, अकर्मण्य, मुफ्तखोर और अनैतिक बना दिया तो फिर वह दान सार्थक कहाँ रहा। जितना पुण्य हुआ उतना ही पाप हो गया। अपनी आत्मा का उत्थान हुआ और दूसरे की का, पतन। यह प्रक्रिया तो सही नहीं रही। इसलिये दान की प्रशंसा तभी है जब वह पात्रता, प्रयोजन और परिणाम को समझकर प्रदान किया जाय। ऐसे ही अन्धाधुन्ध बिना विचारे चाहे जिस को चाहे जो कुछ देते रहना उचित नहीं, अनुचित ही माना जायेगा। विवेकवान दानी इसका ध्यान रखते हैं और लेने वाले को उस अनुदान को ऋण मानने और समाज के दूसरे सत्प्रयोजनों में उसे वापिस लौटाने की प्रेरणा करते हैं।

धनीमानियों की तरह सन्त और तपस्वियों के पास भी पुण्य और तप की पूँजी होती है। साथ ही उदारता और आत्मीयता भी। फलस्वरूप वे सम्बन्धित व्यक्तियों को सुखी और समुन्नत बनाने के लिए अपनी तप पूँजी आशीर्वाद, वरदान के रूप में प्रदान करते रहते हैं। उनके लिए यह उचित भी है और शोभनीय भी।

किन्तु प्राप्त करने वालों को लेते समय हजार बार विचार करना चाहिए कि उनकी याचना का औचित्य क्या है? क्या वे ऐसी कठिनाई को हल करने के लिए यह प्रतिग्रह ले रहे हैं जो नितान्त अनिवार्य और आवश्यक हो गया है? क्या वे ऋण भावना से ले रहे हैं? जो मिलेगा उसे ब्याज समेत वापिस करने का क्या उनने अपने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया है? यदि ऐसा नहीं है; केवल अपनी तृष्णा की पूर्ति के लिए मुफ्त का माल जितना मिल जाय उतना अच्छा, सोचकर यदि लेने के लिए हाथ पसारा हो तो उचित यही है कि हाथ को तुरन्त वापिस खींच लिया जाय।

यह पूरी तरह स्मरण रखा जाय आशीर्वाद या वरदान जीवन की नोंक हिला देने भर से पूरे नहीं हो सकते। उसके साथ यदि अपनी तप साधना दी गई होगी तो ही वह फलित होगा। किसी ने कितना कष्ट सहकर कुछ उपार्जन किया है, उसे हम मुफ्त में प्राप्त करते हैं तो इसमें अपने ऊपर ऋण भार ही बढ़ेगा। प्रकृति के नियम उस ऋण को वापिस कराने के लिए बाध्य करेंगे। इस जन्म में नहीं तो अगले में वह कर्ज वापिस करना पड़ेगा। काम रुका न होने पर भी जो लोग उधार कर्ज लेकर गुलछर्रे उड़ाते रहते हैं, उन्हें हेय दृष्टि से ही देखा जाता है।


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