प्राणायाम द्वारा सूर्य-शक्ति का आकर्षण

October 1972

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सोवियत रूस के वैज्ञानिक डॉ. जी. ए. उशाकोव ने अपने ध्रुव शोध के विवरणों में एक और नया तथ्य प्रतिपादित किया है। वे कहते हैं कि जीवन का आधार मानी जाने वाली ऑक्सीजन वायु पृथ्वी की अपनी उपज अथवा सम्पत्ति नहीं है। वह सूर्य से प्राणरूप में प्रवाहित होती हुई चली आती है और धरती के वातावरण में यहाँ की तात्विक प्रक्रिया के साथ संमिश्रित होकर प्रस्तुत ‘ऑक्सीजन’ बन जाती है। यदि सूर्य अपने उस प्राण प्रवाह में कटौती करदे अथवा पृथ्वी ही किसी कारण उसे ठीक तरह ग्रहण न कर सके तो ऑक्सीजन की न्यूनता के कारण धरती का जीवन संकट में पड़ जायेगा। पृथ्वी से 62 मील ऊँचाई पर यह प्राण का ऑक्सीजन रूप में परिवर्तन आरम्भ होता है। यह ऑक्सीजन बादलों की तरह चाहे जहाँ नहीं बरसता रहता वरन् वह भी सीधा उत्तरी ध्रुव पर आता है और फिर दक्षिण ध्रुव के माध्यम से समस्त विश्व में वितरित होता है। ध्रुव प्रभा में रंग बिरंगी झिलमिल का दीखना विद्युत मण्डल के साथ ऑक्सीजन की उपस्थिति का प्रमाण है।

प्राणायाम का- प्राण विद्या का उद्देश्य उसी सूर्य प्राण को अभीष्ट परिमाण में ग्रहण करना, शरीर में धारण करना है। चुम्बकीय विद्युत प्रवाह को दीप्तिमान करने के लिए जिस प्राण अभिवर्धन की आवश्यकता होती है उसे प्राण साधन क्रम में विशेष प्राणायामों द्वारा उपलब्ध किया जाता है। स्वरयोग एवं प्राणविद्या की निर्धारित साधना पद्धति द्वारा कुण्डलिनी अग्नि को ठीक उसी प्रकार प्रदीप्त करते हैं जैसे लुहार अपनी आग की भट्टी को धोंकनी की हवा से तेज करता है। नासिक छिद्रों से प्राणतत्व को अनन्त आकाश से आकर्षित करके सूर्य तत्व द्वारा प्रेरित चुम्बकीय प्रवाह को तीव्र बनाया जाता है।

इस प्रकार उत्पन्न हुए प्रकाश के कारण सारा सोया हुआ प्राण जीवित हो उठता है। सूर्य के निकलते ही पशु, पक्षी, कीट पतंग सभी निद्रा त्यागकर अपने कार्य में उत्साहपूर्वक लगते दिखाई देते हैं। कलियाँ खिलने लगती हैं और वायु का प्रभाव तीव्र हो जाता है। ठीक इसी प्रकार प्राण साधना से जब हमारे दोनों ध्रुव शक्ति प्रवाह से भरने लगते हैं तो सूर्योदय जैसी हलचल उत्पन्न होती है और न केवल स्थूल शरीर के वरन् सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर के भी दृश्य और अदृश्य अंग अवयव अपनी सक्रियता प्रदर्शित करने लगते हैं। साधक को अनुभव होता है मानो वह केंचुली छोड़कर स्फूर्ति, या सर्प की तरह नव चेतना का अपने में अनुभव कर रहा है।

कभी-कभी सूर्यमण्डल में विशेष उत्क्रान्ति उत्पन्न होने से उस प्रवाह की एक लहर पृथ्वी पर भी चली आती है और ध्रुव प्रदेश में चुम्बकीय आँधी तूफानों का सिलसिला चल पड़ता है। इनकी प्रतिक्रिया उसे ध्रुव क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रखती वरन् समस्त विश्व को प्रभावित करती है। कई बार यह चुम्बकीय तूफान बड़े उपयोगी और सुखद परिणाम उत्पन्न करते हैं और कई बार इनमें कुछ ऐसे तत्व घुले हुए चले आते हैं जिनका प्रभाव समस्त विश्व को कई प्रकार के संकटों में धकेल दे। एक बार सन् 1938 में एक चुम्बकीय तूफान ध्रुव प्रदेश पर आया था, उसकी भयानक चमक अफ्रीका तथा क्रीमिया तक देखी गई। उसका प्रभाव न केवल वस्तुओं पर पड़ा वरन् जीव धारी भी बुरी तरह प्रभावित हुए। ऐसी ही विद्युत आँधियों ने धरती पर ‘हिम युग‘ उपस्थित कर दिया। मुद्दतों तक बहुत बड़े भूभाग को बर्फ ने ढके रखा। समुद्र में बाढ़ आई और जमीन समुद्र में, समुद्र मरुस्थल में बदल गया। कहते हैं कहीं ऐसी ही वायु प्रलय, जल प्रलय, अग्नि प्रलय भी उपस्थित हो सकती है और यह चुम्बकीय आँधियाँ धरती के वर्तमान स्वरूप को कुछ से कुछ करके रख सकती हैं।

प्रकृतिगत चुम्बकीय आँधियाँ पंच तत्वों के हेर फेर अथवा नियति के विधान से आती हैं। पर योग साधना से ऐसी चुम्बकीय आँधियाँ सूक्ष्म जगत में उठाई जा सकती हैं और आकाशस्थ ग्रह नक्षत्रों को ही नहीं, दिव्य सत्ता केन्द्रों, देवताओं को भी उससे प्रभावित किया जा सकता है। इस जगत को प्रभावित करने वाले चेतना केन्द्र सविता को तपस्वी लोग हिलाजुला सकते हैं। ध्रुव प्रकाश में प्रखर तीव्रता मार्च और सितम्बर में (चैत्र और आश्विन की नव रात्रि के दिनों में) अत्याधिक होती है। इसका कारण पृथ्वी का अक्ष- सूर्य के साथ उचित कोण पर होता है। बीज बोने का वही समय अधिक प्रभावी होता है। गर्भ स्थापनाएँ भी उन्हीं दिनों अधिक होती हैं। फूल खिलने का समय यही है। साधक लोग साधनाओं में अधिक सफलता भी इन्हीं दिनों पाते हैं। हम अपनी पृथ्वी काम कला को सूर्य- तेज कला के साथ जब भी जोड़ सकें तभी यह प्रकाश प्रवाह में तीव्रता आने वाली स्थिति पैदा हो सकती है और उसकी प्रतिक्रिया व्यक्तिगत जीवन में आश्चर्यजनक परिणाम लेकर प्रस्तुत हो सकती है। इतना ही नहीं व्यापक वातावरण को भी उससे प्रभावित किया जा सकता है।

अलेक्जैंडर मार्शेक के साधन अन्तरिक्ष में प्रकाश के रूप में ही नहीं शब्दों के रूप में भी सौरमण्डल तथा मन्दाकिनी आकाशगंगा से आने वाले शक्ति प्रवाहों को सुना है। उसका यंत्र अंकन किया है। यह आवाज क्रमबद्ध संगीत एवं स्वर लहरियों की तरह है। यों कान से वे ध्वनि मात्र सुनाई पड़ती हैं उनका कोई विशेष महत्व समझ में नहीं आता पर खगोल विद्या की नवीनतम शोधें यह स्पष्ट करती चली जा रही हैं कि यह शब्द प्रवाह भी सूर्य से ध्रुव प्रदेशों पर बरसने वाले गति प्रवाहों की तरह ही अतीव सामर्थ्यवान हैं और उनके द्वारा प्राणियों के शरीर तथा मन पर ऐसा प्रबल प्रभाव पड़ता है जैसा व्यक्तिगत प्रयत्नों से बहुत परिश्रम करने पर भी संभव नहीं। यह प्रभाव भले और बुरे दोनों ही स्तर का होता है।

योग साधना में शब्द साधना का विशेष स्थान है। कुण्डलिनी साधना में नाद, बिन्दु, कला की साधनाएं इन अविज्ञात शक्ति प्रवाहों को समझना और उनके साथ अपना संबंध स्थापित करना ही है। शंख, घन्टा, सीटी, नफीरी, झींगुर, निर्झर, मेघ गर्जन आदि के शब्द नाद साधना में सुने जाते हैं। यह मात्र चित्त वृत्तियों को एकाग्र करने के लिए ही नहीं वरन् इसलिये भी है कि लोक लोकान्तरों में ग्रह−नक्षत्रों, आकाश गंगाओं एवं देव संस्थानों में जो अनुदान सूर्य की भाँति ही बरसाये जाते रहते हैं उन्हें ग्रहण कर सकना और उनका लाभान्वित हो सकना संभव हो सके। कुण्डलिनी साधक को यह प्रक्रियाएं अपनानी पड़ती हैं, फलतः वह दैवी वरदानों की तरह अपने में बहुत कुछ अनुपम और अद्भुत तत्व समाविष्ट हुआ अनुभव करता है।

ध्रुव प्रभा का स्वरूप सर्च लाइट की तरह होता है। वह उत्तर की अपेक्षा दक्षिण की ओर काफी तीव्र होती है। इससे प्रकट होता है कि वह प्रवाह एक स्थान पर दक्षिणी ध्रुव की ओर तीव्र गति से दौड़ रहा है। हमारे मस्तिष्क में अवतरित होने वाला दिव्य तेजस् भी योनि गह्वर की ओर, कुण्डलिनी केन्द्र की ओर ,दौड़ता है दक्षिणी ध्रुव में ‘पेन्गुइन’ नामक पक्षी पाया जाता है यह अति मृदुल स्वभाव का होता है और आगन्तुकों से अत्यन्त मधुर प्रेम भरा व्यवहार करता है। वस्तुतः दक्षिणी ध्रुव कला केन्द्र ही है। वहाँ प्रेम की कोमलता मधुरता और सरलता की अजस्र धारा बहती है। पेन्गुइन पक्षी की तरह ही- योनिगह्वर में सरसता और रसिकता का आनन्द और उल्लास का मिठास भरा पड़ा है। इसे जागृत किया जा सके तो जीवन में कलात्मक सरसता का उल्लास निर्झरिणी की तरह फूटकर प्रवाहित हो सकता है। दक्षिणी ध्रुव समुद्रतल से 19000 फुट उभरा हुआ है। इसे विश्व शरीर की जननेंद्रियां का उभार कह सकते हैं। पुराणों में इसे शिवलिंग कहा गया है। नारी जननेन्द्रिय में भी यह उभार छोटे रूप में पाया जाता है।

ध्रुवों पर सूर्य की किरणों की विचित्रता के फलस्वरूप वहाँ सब कुछ जादू नगरी जैसा दीखता है। वहाँ पर अक्सर अपनी छाया दुहरी दिखाई पड़ती है। आत्म वेत्ता भी अपने साथ परा और अपरा प्रकृति की दो सहेलियाँ साथ फिरते देखता है और अपने को इन छायाओं से स्थूल और सूक्ष्म शरीरों से भिन्न अविनाशी आत्मा ही मानता है।

भारतीय प्राण विद्या का प्रयोजन यह है कि दोनों ध्रुवों पर बरसने वाली सूर्य शक्ति सन्निहित प्राण धारा को अभीष्ट मात्रा में आकर्षित करके उनके द्वारा स्थूल और सूक्ष्म चेतना की समग्र दृष्टि से पुष्ट किया जाय।


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