चरित्र, सौंदर्य से भी श्रेष्ठ

October 1972

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भगवान् भास्कर शीर्ष से दक्षिणावर्त हो चुके हैं, तथापि उनकी प्रखरता अभी कम नहीं हुई। यही कारण है कि मगध-निवासी अभी तक मध्याह्न विश्राम कर रहे हैं। पक्षी कोटरों से बाहर नहीं आ रहे। राजहंस अवश्य ही अपनी हंसिनी प्रेयसी के साथ जल क्रीड़ा में निमग्न है। उसकी क्रीड़ा से स्पन्दित तरंगें राज-सरोवर के किनारे थपके लगा जाती हैं और उसके साथ ही कमलिनी नाच-नाच उठती है। लगता है ग्रीष्म की प्रखरता का राजोद्यान पर कोई प्रभाव नहीं है। न तो उसकी सुषमा यत्किंचित् म्लान हुई और न सौरभ मुरझाया। उपवन में प्रातःकाल जैसा मादक सौंदर्य अब भी बिखरा पड़ रहा है।

आम्र-निकुंज के सघन एकान्त में राजकुमार कुणाल बैठे हैं। उनकी मुद्रा बताती है कि वे किसी विचार में खोये हैं। यह समाधि न जाने कब तक चलती कि सहसा लौध्र पुष्पों की सुन्दर सुवास नासा रंध्रों को पार कर उनके मर्मस्थल को आलोड़ित करने लगी। नूपुर और पायलों की मन्द मोहक ध्वनि इस तरह सुनाई दी मानो स्वर्ग से कला साम्राज्ञी उर्वशी का पदार्पण हो रहा हो? कुणाल चौंके,- कौन आ रहा है वह देखने के लिये जब तक नयन उठें तब तक सौंदर्य की प्रतिकृति साम्राज्ञी तिष्यरक्षिता सम्मुख आ उपस्थित हुई। उनका वेश विन्यास, नेत्रों की चपलता और मुखड़े की मादकता देखकर रति निष्प्रभ पड़ जातीं। तिष्यरक्षिता का वह सौंदर्य देखकर लताओं में भी काम भाव छा गया। मनुष्य विछल जाता तो यह कोई बड़ी बात न होती।

जननी! आप? कुणाल अब खड़े हो चुके थे और सुस्मित पूँछ रहे थे- आप स्वस्थ तो हैं न? अर्थ श्रेष्ठ विश्राम कर रहे होंगे। आज्ञा करतीं वहीं आ जाता यहाँ तक आने का कष्ट आपने क्यों किया?

“दीप-शिखा का रूप देखकर पतंग नर्तन क्यों करता है राजकुमार?” तिष्यरक्षिता बोलीं कलिका का केसर चूमने के लिये भौंरा क्यों उड़कर आता है? कुणाल! पावस ऋतु आने पर पथिकगण सहसा अपने घरों की ओर क्यों मुड़ते हैं? यह भी कुछ बताने की बात है कि राज कुमार कि लतिका तरु का सघन सान्निध्य प्राप्त करने के लिये क्यों आतुर हो उठती है?

कुणाल मर्माहत हो उठे? आप मेरी माँ के समान हैं भद्रे! आर्य श्रेष्ठ के लिये आप तीसरी धर्म पत्नी होंगी, मैंने तो तुम्हें सदैव अपनी माँ के रूप में ही देखा है। फिर मेरे साथ यह प्रवञ्चना कैसी? नारी धर्म से विचलित न हूजिये माँ?” कहते-कहते कुणाल के स्वर में कुछ तीक्ष्णता आ गई।

कुणाल! सम्बन्ध बनाना बिगाड़ना मनुष्य के हाथ की बात है। महाराज अशोक से विवाह मेरे शरीर ने किया, मन ने नहीं। मन से तो मैंने तुम्हें ही अपना देवता माना है।

यह प्रतारणा है देवि! आर्य संतानें एक पत्नी व्रत पालन करती हैं। मेरी सहचर काँचना ही हो सकती है आप तो मेरी पूज्या हैं, माँ हैं आपकी मनोकामना पूर्ण करना मेरे लिये असम्भव है।

यह कहकर कुणाल एक ओर चल दिये। तिष्यरक्षिता ने इसे सौंदर्य का अपमान समझा और कहा कुणाल तुम्हारी जिन आँखों पर मैं मुग्ध हुई उन्हें ही निकलवा न लूँ तो मैं भी मगध साम्राज्ञी नहीं- मेरे अपमान के लिए तुम्हें एक दिन पछताना ही पड़ेगा।

कुणाल एक क्षण रुके, पीठ फेरे रहे बोले-माँ का हर प्रसाद स्वीकार है बेटे को और चरित्र के धनी कुणाल वहाँ से क्षिप्र गति से दूर- बहुत दूर चले गये रुके नहीं। उनकी आंखें निकलवा ली गईं पर वे अपने पथ से विचलित न हुये। उन्होंने यह दिखा दिया कि चरित्र सौंदर्य से भी श्रेष्ठ है।

अपनों से अपनी बात-


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