जीवन का स्वरूप और उपयोग सिखा सकने वाली शिक्षा चाहिए।

October 1972

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

समुद्र, जैसा कुछ बाहर से दिखाई पड़ता है, वस्तुतः वैसा ही या उतना ही नहीं है। बाहर की सतह पर सिर्फ कुछ लहरें उठती या तैरती दीखती हैं। समतल लगता है। पर भीतर इसके सिवाय भी बहुत कुछ है। उसकी गहराई मीलों की है। प्रचण्ड जलधारायें बहती हैं। लाखों प्रकार के जलचर इतनी अधिक संख्या में हैं जितने इस धरती पर भी नहीं रहते। खनिज तथा दूसरे प्रकार के पदार्थ असीम मात्रा में भरे पड़े हैं। यही सब मिलकर समुद्र है, न कि उतना स्वल्प जितना कि खुली आँखों से सतह पर दीखता है।

जीवन समुद्र की तरह है। उसकी सतह छोटी है। खाना, कमाना, सोना, हँसना, रोना, जैसे क्रिया-कलापों की हलचल मात्र जीवन नहीं है। शरीर और परिवार मात्र तक वह सीमित नहीं है। जीवन की तह में अनेक प्रकार के सुख, दुख, आनन्द, चिन्तन, आकर्षण, विग्रह, उद्वेग, अवरोध, भ्रम, भय, भरे पड़े हैं। उसमें परस्पर विरोधी प्रचण्ड धारायें बहती हैं जो एक दूसरे से टकराती भी हैं और एक दूसरे को उदरस्थ भी करती हैं। विस्फोट कम्प और तूफान भी आते हैं और कई बार ऐसे अप्रत्याशित शक्ति चक्र उफन पड़ते हैं जिनसे सागर ही नहीं धरती भी प्रभावित होती है। इस प्रकार का दूसरा समुद्र ही जीवन है। इसकी तुच्छता इतनी नहीं है जितनी कि आमतौर से समझी जाती है।

जीवन के आरम्भ से यह सिखाया जाता है कि उसे क्लर्क, अफसर, व्यापारी, डॉक्टर, आदि बनना है इसी के लिये स्कूल उन्हें तैयार भी करते हैं। किन्तु कोई यह नहीं बताता कि जीवन का क्षेत्र कितना बड़ा और कितना गहरा है। उसे ठीक तरह समझने और उपलब्धियों से लाभान्वित होने के लिए सोचने और करने का सही तरीका क्या होना चाहिए।

स्कूली वातावरण, परीक्षाएं पास कराने में व्यस्त हैं। मस्तिष्कीय कुशलता के आधार पर उन्हें श्रेणी प्रदान की जाती है। उपलब्ध परीक्षा अंकों के आधार पर उनके स्तर का वर्गीकरण किया जाता है, जिसे कम परीक्षांक मिले उसे अधिक नम्बर पाने वाले की तुलना में ‘हेय’ ठहराया जाता है। इस प्रकार ऊँच-नीच के आधार पर टिकी एक नये किस्म की जाति बिरादरी खड़ी की जाती है, हो सकता है कि मस्तिष्क का एक अंश प्रकृति प्रदत्त ढंग से विकसित होने के कारण कोई छात्र अच्छी श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ हो किन्तु जीवन के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में उसकी पहुँच बहुत ही भोंड़ी और गन्दी हो। क्या मनुष्य की श्रेष्ठता का श्रेय परीक्षांकों के आधार पर ही निर्धारित होना चाहिए? जिन्हें कम नम्बर मिले हैं क्या उन्हें बुद्धु, निकम्मा, हेय स्तर का घोषित कर दिया जाना चाहिए।

शिक्षा का प्रयोजन छात्रों को कमाऊ बना देना भर नहीं होना चाहिए। यदि इतनी ही बात है तो उन्हें इतना श्रम कराने और समय गँवाने की क्या आवश्यकता है। बाप, दादों के धन्धे में कुशलता बिना पढ़े होने पर भी प्राप्त की जा सकती है और नौकरियों में मिलने वाली राशि की अपेक्षा अधिक आमदनी की जा सकती है। शिक्षा का उद्देश्य इससे अधिक और विस्तृत होना चाहिए। यदि जानकारियाँ मस्तिष्क में ठूँसने का नाम ही शिक्षा है तो उसका सरल तरीका यह है कि कोई साक्षर व्यक्ति ‘विश्वकोष’ उठाकर अपनी रुचि के विषयों का विवरण पढ़ने लगें तो उन्हें इतनी अधिक जानकारियाँ उपलब्ध हो जायेंगी जितनी प्राध्यापकों को भी नहीं होती। इतनी सी बात के लिये कष्ट साध्य पढ़ाई में सिर क्यों खपाया जाय? समय क्यों गँवाया जाय?

शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए-यथार्थता का ज्ञान। दुनिया वैसी ही नहीं है जैसी कि हमें दिखाई देती है- या बताई जाती है। व्यक्ति और समाज की समस्यायें वहीं नहीं है जिनकी चर्चा की जाती रहती है। यथार्थता की तली तक पहुँचने के लिये किस प्रकार की गोताखोरी की जानी चाहिए इसी कला का सिखाना शिक्षा का उद्देश्य है। भ्रान्तियों, विकृतियों और कुरीतियों के बन्धन से छुटकारा पाकर स्वतन्त्र चिन्तन की क्षमता प्राप्त करने और जीवन तथा विश्व का यथार्थ स्वरूप समझ सकने के योग्य तीक्ष्ण दृष्टि प्राप्त करना इसी का नाम मुक्ति है। तत्व दर्शियों के कथानुसार इसी ‘मुक्ति’ को करतल गत बनाना शिक्षा का मूलभूत प्रयोजन है।

शिक्षा लक्ष्य ‘मुक्ति’ प्राप्त करने के लिये छात्र में वह साहस विकसित करना पड़ेगा कि वह विवेक और तथ्य का सहारा लेकर यथार्थता की तह तक पहुँच सके। दादी क्या कहेगी? लोग क्या कहेंगे? पुस्तकों में क्या लिखा है? शिक्षकों ने क्या समझाया है? लोग क्या सोचते हैं और क्या करते हैं? इन सब जञ्जालों के आवरण चीरकर जो लोग सत्य को समझने और स्वीकार करने को तत्पर हो सकें ऐसी ऋतुम्भरा प्रज्ञा को प्रसुप्ति से विरत कर सक्रिय जागरण में संलग्न करना ही विद्या का मूलभूत उद्देश्य है। यदि हमें ऐसा कुछ सीखने को नहीं मिलता तो शिक्षा कैसे पूरी हुई?

आज सर्वत्र भय का साम्राज्य है। हर व्यक्ति बेतरह डरा हुआ है। अवाँछनीय और अनुचित को जानते मानते हुए भी उसे अस्वीकार करने का साहस नहीं होता। अपनी मौलिकता मानो मनुष्य ने खो ही दी है। अपने पास मानो उसकी कोई समझ है ही नहीं। जो कुछ कहा बताया और कराया जा रहा है उसे ही पालतू जानवर की तरह मानने और करने को तैयार रहने वाली मनोभूमि एक प्रकार से पराधीनता के पाश में जकड़ी हुई ही है। ऐसा बंधित और बाधित व्यक्ति शिक्षित कैसे कहा जाय?

आज सर्वत्र भय, अविश्वास, सन्देह और आशंका का साम्राज्य व्याप्त है। एक देश दूसरे से डरता है, दूसरा आक्रमण न कर दे इसलिये आत्म रक्षा के लिये सैन्य शक्ति बढ़ाता है। उसे दूसरा पक्ष अपने ऊपर आक्रमण की तैयारी मानता है। इस प्रकार सन्देह और भय के कारण दोनों पक्ष युद्ध की तैयारी में जुटे रहते हैं और चिर पोषित भ्रान्तियाँ तनिक से कारण पर युद्ध के रूप में परिणत हो जाती हैं। राष्ट्रों के बीच फैला हुआ भय, सामाजिक, धार्मिक, जातीय एवं वैयक्तिक क्षेत्रों में भी व्याप्त है। चिन्तन में यथार्थता की मात्रा घटती और भ्रान्तियों का घटाटोप बढ़ता चला जा रहा है। भौतिक सुख को प्राथमिकता दी गई है और आत्मिक उल्लास को उस पर निछावर कर दिया गया है। कुमार्गगामिता पथ प्रदर्शन कर रही है सत्पथ पर चल सकने का साहस कुण्ठित होता चला जा रहा है। मूढ़ता की परम्परा और धूर्तता की रीति-नीति अब बेहिचक स्वीकार की जाने लगी है। उस अवाँछनीय ढर्रे के विरुद्ध सोच सकने की, बदलने का साहस कर सकने की, क्षमता मानो समाप्त हो ही गई हो। यह दोष हमारी शिक्षा व्यवस्था का है।

अवयस्क बालकों को मिलने वाली स्कूली शिक्षा से लेकर बौद्धिक नेतृत्व करने वाले मनीषियों द्वारा जन साधारण को दिये जाने वाले वयस्क प्रशिक्षण तक का आधार एक ही होना चाहिए कि मनुष्य की स्वतन्त्र चेतना को मूर्च्छना से विरत किया जाय। उसे इस योग्य बनाया जाय कि जीवन का स्वरूप समझ सके, समस्याओं की तह तक पहुँच सके, यथार्थ निर्णय कर सके और औचित्य को अपनाने के लिए साहसपूर्वक अड़ सके।

धर्म शास्त्रों, राजनेता, मनीषी और कलाकारों के प्रतिपादन परस्पर विरोधी और भ्रान्तियों से भरे पड़े हैं। इनमें से किसे सही ठहराया जाय किसे गलत कहा जाय, अथवा इनमें कितना अंश उपयोगी कितना अनुपयोगी है, इसका निर्णय स्वतन्त्र चिन्तन का विकास किये बिना और किसी तरह हो ही नहीं सकता। जब तक यथार्थता को समझा और अपनाया न जायगा तब तक मानव-जीवन की विश्व वसुधा की कुरूपता को हटाया ही नहीं जा सकता। यह संसार, मानव जीवन सुन्दर और सुखद बनाया गया है पर दुर्बुद्धि ही है जिसने सब कुछ विकृत और दुखद बनाकर रख दिया, इस विडम्बना से मुक्ति दिला सकने की क्षमता केवल स्वतन्त्र चिन्तन में ही है। शिक्षा वही है जो विवेक को जागृत कर सके। ढर्रे में घुसे हुए अनौचित्य को हिम्मत और निर्भयता के साथ स्वीकार कर सके।

माता-पिता, शिक्षक धर्म शास्त्र, रीति रिवाज, पड़ौसी सम्बन्धी, नेता हमें सिखाते हैं और जिस रास्ते पर चलने के लिए विवश करते हैं आवश्यक नहीं कि वह उचित और यथार्थ हो। यदि हम आंखें बन्द करके किसी लकीर पर चलने के अभ्यासी रहेंगे तो अपनी आत्मा को खो बैठेंगे। एक अन्धे कैदी की तरह पराश्रित मात्र रह जायेंगे। बौद्धिक पराधीनता सबसे बुरे किस्म की गुलामी है। सच्चे शिक्षक वे हैं- सच्चे अभिभावक और हितैषी वे हैं जो अपने प्रभाव और ज्ञान का उपयोग अपने प्रभाव क्षेत्र में स्वतन्त्र चेतना विकसित करने के लिये करते हैं। यदि कहीं कोई सच्चे अर्थ में ‘विद्यालय’ जीवित हो तो उसका लक्ष्य भी विद्यार्थियों में स्वतन्त्र चेतना का विकास करना ही होगा।

पुरानी दुनिया अब टूट रही है। प्रचलित ढर्रे अब बिखरने ही वाले हैं। युद्धों से- दाव-पेचों से- अभाव दारिद्रय से- शोषण उत्पीड़नों से- छल प्रपञ्चों से- आदमी आजिज आ गया है। सुविधा साधनों की अभिवृद्धि के साथ साथ दुर्बुद्धि और दुष्प्रवृत्तियों की बढ़ोतरी भी बेहिसाब हो रही है। जो चल रहा है उसे चलने दिया जाय तो आज का समय शोषण कल वीभत्स और नग्न रक्तपात के रूप में सामने आ खड़ा होगा और मानवी सभ्यता बेमौत मर जायेगी। उस स्थिति को बदले बिना और कोई चारा नहीं। नई दुनिया अगर न बनाई जा सकी तो इस बढ़ती हुई घुटन से मनुष्यता का दम घुट जायेगा।

नई दुनिया के निर्माण से पूर्व जीर्ण-शीर्ण खंडहरों को धराशायी करना पड़ेगा। इसके लिए प्रचण्ड विद्रोह की आवश्यकता है। वह तब तक नहीं उभर सकता जब तक स्वतन्त्र चिन्तन की गरिमा स्वीकार न की जाय और जो अवाँछनीय है उससे इनकार करने का साहस उत्पन्न न किया जाय।

जीवन उसी का नाम है जो यथार्थ की तह तक पहुँच सके, उचित और अनुचित का सही निर्णय कर सके। स्वतन्त्र चिन्तन की जिसमें क्षमता हो और हर प्रकार के अवाँछनीय दबावों को निर्भयता पूर्वक अस्वीकार कर सके, ऐसा जीवन ही उस विस्तार और आनन्द का उपभोग कर सकता है जो उसे सम्पदा के रूप में उपलब्ध हुआ है।

सड़ी दुनिया की अन्त्येष्टि किये बिना कोई चारा नहीं। सड़न को यथावत् चलने दिया जाय तो उससे असह्य विपत्ति बढ़ेगी। नई दुनिया में ही मनुष्य जीवित रह सकेगा और विश्व का सौंदर्य स्थिर रह सकेगा। ऐसा नवीन विश्व जीवन्त लोगों द्वारा ही विनिर्मित हो सकेगा। अस्तु जीवन की गरिमा को समझा सकने वाली और उसे परिष्कृत कर सकने वाली समग्र शिक्षा की हमें व्यवस्था करनी ही होगी। इसके बिना प्रगति की समस्त संभावनायें अवरुद्ध ही पड़ी रहेंगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118