हारमोन नियन्त्रित और परिष्कृत किये जा सकते हैं।

October 1972

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मोटे तौर पर यह समझा जाता है कि आहार से रक्त बनता है और रक्त की शक्ति से शरीर में गर्मी तथा शक्ति बनी रहती है। पर बारीकी से देखने पर विदित होता है कि आहार को रक्त में परिणत करने वाली एक प्रणाली और भी है और वही अपेक्षाकृत महत्वपूर्ण भी है। स्वसंचालित नाड़ी संस्थान तथा चेतन अचेतन द्वारा उनके नियंत्रण संचालन की बात भी अब मोटी बात ही रह गई है। मस्तिष्क अचेतन नाड़ी संस्थान को दिशा प्रेरणा और सामर्थ्य देने वाले केन्द्र और भी सूक्ष्म हैं; और उनके निरीक्षण से पता चला है कि शक्ति और अशक्ति के मूल आधार और भी अधिक गहराई में छिपे हुए हैं और वे पिछले दिनों प्रायः अविज्ञात ही बने रहे हैं। घी दूध जैसे मोटा बनाने वाले पदार्थों से वंचित व्यक्ति भी जब मोटे होते चले जाते हैं और चिकनाई तथा पौष्टिक आहार में डूबे रहने वाले भी जब दुबले पतले रहते हैं तो आहार का स्वास्थ्य पर पड़ने वाला प्रभाव गलत सिद्ध होता है। इसी प्रकार शरीर में चुस्ती, थकान, सर्दी, गर्मी का बाहुल्य, कद का बहुत छोटा या बहुत बड़ा होना, मन्द और तीव्र बुद्धि, हिम्मत और भीरुता, सौंदर्य और कुरूपता जैसी बातें जब स्वास्थ्य के सामान्य नियमों का उल्लंघन करते हुए घटने या बढ़ने लगती हैं तब भी आश्चर्य होता है कि समुचित सावधानी बरतने पर भी यह अकस्मात् ही क्या और क्यों होने लगता है।

यह आधार वे ग्रन्थियाँ हैं जो ‘हारमोन’ नामक रसों को प्रवाहित करती रहती हैं और वह रस रक्त में मिलकर संजीवन का काम करते हैं। इन रसों के उत्पादन या प्रवाह में तनिक भी व्यतिक्रम या अवरोध उत्पन्न हो जाय तो शरीर का ही नहीं, मन का भी सारा ढाँचा लड़खड़ाने लगता है।

गले के पास थाइराइड नामक एक ग्रन्थि है। इसमें थायराक्सिन नामक हारमोन रस निकलता और रक्त में सम्मिलित होता रहता है। यदि इसकी कमी हो जाय तो पाचन क्रिया बिगड़ जाती है, मस्तिष्क कुन्द हो जाता है, त्वचा और केशों में रुक्षता छाई रहती है, होंठ और पलक लटक जाते हैं, शरीर थुलथुल हो जाता है, उँगली गाढ़ने से गड्ढा बनने लगता है, थकान छाई रहती है, ठण्ड अधिक सताती है, यदि यह ग्रन्थि बढ़ जाय तो गला मोटा होने लगता है, ‘घेंघा’ की शिकायत खड़ी हो जाती है, आहार विहार सब कुछ ठीक रहने पर भी यह ग्रन्थि सूखने या बढ़ने लग सकती है।

इस महत्वपूर्ण किन्तु अनियन्त्रित ग्रन्थि में गड़बड़ी क्यों पड़ती है यह खोजते हुए शरीर शास्त्री सिर्फ इतना जान सके हैं कि ‘आयोडीन’ की कमी पड़ने से ऐसा होता है। वे कहते हैं भोजन में कम से कम 20 माइक्रो ग्राम आयोडीन होनी चाहिए, समुद्री जल, समुद्री नमक, समुद्री घास-पात, समुद्री मछली में वे आयोडीन का बाहुल्य बताते हैं। यह सब करने पर भी बहुत बार निराश ही होना पड़ता है। श्वास नली के ऊपरी भाग को ढके हुए, गहरे लाल रंग की दो पत्तियों वाली, तितलीनुमा यह थाइराइड ग्रन्थि तो भी काबू में नहीं आती। अन्वेषकों ने इस ग्रन्थि के गह्वर में ‘कोलाइड’ नामक एक पीला प्रोटीन और ढूँढ़ निकाला और अनुमान लगाया कि शायद यही थायराक्सिन को प्रभावित करता हो, पर यह निष्कर्ष भी गलत ही निकाला।

थाइराइड में सिकुड़न आ जाने से चमड़ी शुष्क रहने लगती है, बाल झड़ने लगते हैं और रूखे हो जाते हैं, उनकी चिकनाई और मुलायमी नष्ट होती जाती है। उभरी हुई आंखें, लटके हुए होंठ, याददाश्त की कमजोरी, मोटी चमड़ी माँस में उँगली दबाने से गड्ढा जैसा बन जाना जैसी विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं। शरीर में बेहद थकान, मस्तिष्क में जड़ता, याददाश्त घटना, उदासी, किसी भी काम में मन न लगना, जैसी शिकायतें अकारण ही पैदा होने लगें तो उसका कारण थाइराइड से प्रवाहित होने वाले हारमोन थायराक्सिन की कमी पड़ना समझना चाहिए। इस कमी के कारण शरीर में ऑक्सीजन सोखने की शक्ति घट जाती है। स्वच्छ हवा मिलने पर भी वह उसका लाभ नहीं उठा पाता। ऑक्सीजन की कमी से उपरोक्त उपद्रव खड़े होते और बढ़ते हैं।

इस कमी को पूरा करने के लिए दूसरे प्राणियों की थाइराइड का सत्व प्रवेश कराया गया उसका ताल मेल-भी नहीं बैठा। कृत्रिम थायराक्सिन बनाने के लिये डॉ. ई.सी. कैन्डाल और हैरिंगटन तथा बार्गर नामक अंग्रेज ने भारी प्रयत्न किया और कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन तथा आयोडीन के सम्मिश्रण से उसे बना भी लिया। देखने में समतुल्य होने पर भी वह उस कमी को पूरी न कर सका, आयोडीन नमक में मिलाकर खिलाने का भी प्रयोग बहुत चला पर वह भी कुछ स्थायी प्रभाव न दिखा सका।

अधिक मात्रा में यह हारमोन निकलने लगें तो भी मुसीबत खड़ी होती है। इञ्जन तेज हो जाता है और बढ़ी हुई गर्मी हर अवयव की गति तेज कर देती है। धड़कन बढ़ जाती है- पसीना फूटता है, उत्तेजना रहती है, चिड़चिड़ापन बढ़ता है और रक्तचाप बढ़ा हुआ दिखाई देता है। गले की मोटाई बढ़ने लगती है। रेडियम, एक्स किरणें, रेडियो सक्रिय आयोडीन आदि उपचारों का भी इन दिनों इस पर प्रयोग परीक्षण चल रहा है। थाइराइड के भीतर पाई जाने वाली पैराथाइराइड नन्हीं सी ग्रन्थियों की भी तलाशी की जा रही है पर रहस्य का पर्दा तो भी उठता नहीं।

डॉ. इमले से कनाडा के रसायन शास्त्री कोलिय तक से लेकर थाइराइड को नियन्त्रित करने का सिलसिला अद्यावधि चल ही रहा है। कैल्शियम देने से शायद कुछ काम चले, यह भी परख लिया गया है।

भोजन का ग्रास पेट में पहुँचते ही वहाँ उसका परिवर्तन होने लगता है। स्टार्च तथा शुगर दोनों अंश ग्लूकोस शर्करा में बदल जाते हैं। इस ग्लूकोस का कुछ अंश तत्काल खून में चला जाता है और शरीर को गर्मी तथा शक्ति देने के काम आता है। शेष ग्लाइकोजन के रूप में जिगर में जाकर जमा हो जाता है और आवश्यकतानुसार उसका उपयोग होता रहता है।

पर जिन्हें मधुमेह- डायबिटीज की शिकायत हो जाती है उनकी भोजन से बनी हुई शर्करा शरीर में काम नहीं आती वरन् रक्त में उसकी मात्रा बढ़ती चली जाती है उधर उसका शर्करा अभाव के कारण शरीर क्षतिग्रस्त होता चला जाता है। यह गड़बड़ी अग्न्याशय नामक ग्रन्थि से निकलने वाले इन्सुलिन नामक हारमोन की कमी पड़ जाने के कारण उत्पन्न होती है।

फैडरिक वैटिंग ने इस सम्बन्ध में भारी शोध की। लैंगर हैंस की द्वीपिकाओं में बनने वाले इस रसायन को पहले आइजलीटिन कहा जाता था पीछे इसे इन्सुलिन कहा जाने लगा। इसी शोध पर वैटिंग तथा मैकलियाड को नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ।

आधी लीटर रक्त में एक ओंस के साठवें भाग के बराबर शर्करा रहती है। इसे एक प्रकार का ईंधन कहना चाहिए जिसके आधार पर कोशिकाओं तथा माँस पेशियों को समस्त अवयवों को गरम और गतिशील रहने का अवसर मिलता है, इस कार्य में इन्सुलिन की सहायता एड्रीनेलिन भी करता है।

गुर्दों के पास दो छोटी ग्रन्थियाँ हैं इन्हें एड्रिनल या अधिवृक्क कहते हैं। दोनों का मिलाकर कुल वजन लगभग 12 ग्राम बैठता है। वे लगभग दो इंच लम्बी, एक इंच चौड़ी होती हैं। इनके दो भाग होते हैं। भीतरी भाग बाहर के भाग से खोल की तरह घिरा होता है और बाहरी भाग छाल (कौटेक्स) कहलाता है। भीतर के गूदे को ‘मनडुला’ कहते हैं। कोई विपत्ति की घड़ी या तात्कालिक उत्तेजना का अवसर आने पर यह ग्रन्थियाँ सक्रिय हो उठती हैं और उससे इतनी शक्ति मिलती है जो सामान्य शरीर बल की अपेक्षा कई गुनी होती है।

यह छोटी सी गांठें उपेक्षित सी एक कोने में पड़ी थीं, इनका कार्य ठीक तरह समझ में नहीं आता था पीछे वे बड़ी महत्वपूर्ण मालूम हुई। उनके द्वारा स्रवित होने वाला रस एड्रीनेलिन कहा जाने लगा।

भय या खतरे के समय पाचन यन्त्र ठप्प हो जाते हैं और उस ओर लगी हुई शक्ति खतरे का सामना करने के लिये असाधारण शक्ति उत्पन्न करना आरम्भ कर देती है। दिल जोरों से धड़कता है, श्वास तेज चलता है, रक्त की चाल बढ़ जाती है ताकि उस अतिरिक्त शक्ति के आधार पर शरीर उस संकट का सामना करने के लिए जोरदार प्रयत्न करने में लड़ने या भागने में समर्थ हो सके। श्वास नली चौड़ी हो जाती है ताकि अधिक हवा फेफड़ों में भरी जा सके। रक्त में शर्करा बढ़ जाती है ताकि शक्ति के लिये आवश्यक ईंधन जुट सके। खतरे का सामना करने के लिये इस प्रकार हर अवयव अपनी क्षमता को तीव्र करता है। माँस पेशियाँ तन जाती हैं समस्त शरीर उत्तेजित दीखता है, चेहरा लाल हो जाने के रूप में इस बढ़ी हुई शक्ति को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

अन्तः स्रावी ग्रन्थियों के उपभेद तो कई हैं और उनसे निकलने वाले स्रावों की भेद उपभेद की दृष्टि से संख्या भी बढ़ती जा रही है पर साधारणतया उनमें से छह प्रमुख हैं (1) पीयूष ग्रन्थि (2) कण्ठ ग्रन्थि (3) अधिवृक्क ग्रन्थि (4) अग्न्याशय ग्रन्थि (5) अण्डाशय ग्रन्थि (6) वृषण ग्रन्थि।

शरीर का आकार सामान्य रखने या उसे असाधारण रूप से घटा या बढ़ा देने का यकायक भारी हेर फेर उत्पन्न कर देने का कारण मस्तिष्क स्थित पीयूष ग्रन्थि ही है। उसमें जहाँ बाल की नोंक की बराबर अन्तर पड़ा कि शरीर में वैसी ही विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के सर्जन डॉ. हार्वे कुशिंग ने एक पिल्ले की पीयूष ग्रन्थि निकाल दी। बस फिर वह बढ़ा ही नहीं। सदा के लिये पिल्ला ही बना रह गया। चूहों के बच्चे पीयूष ग्रन्थि रहित किये गये तो वे बढ़िया से बढ़िया भोजन देने पर भी उतने ही छोटे बने रहे न उनका कद बढ़ा और न वजन में रत्ती भर अन्तर आया। बूढ़े होने तक वे बच्चे ही बने रहे। कोलम्बिया विश्वविद्यालय के सर्जन फिलिप स्मिथ ने एक चूहे की पीयूष ग्रन्थि दूसरे में फिट कर दी तो दूने हारमोन बढ़ने से वह चूहा असाधारण रूप में बढ़ा और अपने साथियों की तुलना में तीन गुना दैत्य जैसा हो गया।

हारमोन ग्रन्थियों में अन्तर आने से शरीर का विकास असाधारण रूप से रुक सकता है और आश्चर्यजनक रीति से बढ़ सकता है। 25 इंच ऊँचा आदमी टामथम्ब और 24 इंच ऊँची स्त्री लेवोनिया लोगों की दृष्टि में आश्चर्यजनक हैं, पर यह हारमोन ग्रन्थियों की एक मामूली सी उलट-पुलट मात्र है। टामथम्ब जन्म के समय 9 पौण्ड 2 औंस था, पर न जाने क्या हुआ कि आशा के विपरीत वह जहाँ का तहाँ रह गया। बाजीगरों का धन्धा करता था। उसने अपने ही जैसी बौनी लड़की भी ढूंढ़ निकाली उससे शादी करके अपने व्यवसाय को और भी अधिक आकर्षण बनाया। उनका यह पलड़ा दूसरी तरफ झुक जाय फिर लम्बाई ही लम्बाई बढ़ती चली जायेगी। 8 फुट 11 इंच ऊँचा आदमी राबर्ट वाडली ताड़ के पेड़ जैसा लगता था। पलामू (बिहार) में साड़े सात फुट ऊँचा तिलवर नामक व्यक्ति अभी कुछ दिन पहले तक लोगों का ध्यान अपनी अनोखी लम्बाई की ओर खींचता रहता था।

रूस का शासक जार पीटर स्वयं लम्बे कद का था, उसे लम्बे आदमी बहुत पसन्द थे। उसका एक प्रिय लम्बा सार्जेन्ट जब मरा तो जार ने उसके अस्थि-पिंजर को कुन्सत्कैयर के संग्रहालय में सुरक्षित रखने का आदेश दिया तब से वह रखा ही हुआ था। अब दो सौ वर्ष बाद एक्स किरणों की सहायता से उस कंकाल की असाधारण लम्बाई का कारण खोजा गया है तो उसमें पीयूष ग्रन्थि से अधिक स्राव होना ही कारण पाया गया है।


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