अमरबेल जिस पेड़ पर चढ़ती है उसे चूसना शुरू करती है यह धीरे धीरे उसे सुखाती जाती है। पेड़ की खुराक पर जीवित रहने वाली इस परजीवी बल की जीव पद्धति शोषण पर ही निर्भर है। स्वयं का उत्पादन कुछ होता नहीं। उसकी सारी चेष्टा पेड़ के शोषण पर ही लगी रहती है। उसकी डालियों में अपने पंजे फंसा देती है और धीरे धीरे उसी से रस चूसती हुई स्वयं पुष्ट होती है।
ऐसे ही अनेक शोषक व्यक्ति भी पाये जाते हैं। जिनका अपना ऐसा कोई उत्पादन नहीं होता जिससे अपने और दूसरों के विकास की आवश्यकता पूरी हो। वे शोषण को ही अपना व्यवसाय बनाते हैं। कुकर्मी लोगों की यह शैली रहती है। चोरी, ठगी के ही वे अभ्यस्त बन जाते हैं और ठगने फँसाने के जाल बुनते रहते हैं।
अमर बेल की स्थिति न सुखकर होती है न सन्तोषजनक। उस पर न पत्ते आते हैं न फूल न फल। एक प्रकार से वन्ध्या ही बनी रहती है। जिसने दूसरे के फलने फूलने में व्यवधान उत्पन्न किया वह स्वयं भी कैसे फल फूल सकता है।
अमरबेल सदा पतली रहती है- पतले हाल पीली रहती है। पीलिया रोग के रोगी जैसे उसके चेहरे पर कभी गुलाब जैसी लालिमा आ ही नहीं सकती, पेड़ को सुखाती हुई यह सोचती है कि मैंने अपना काम बना लिया। पर करनी का फल सामने आया बिना रहता नहीं। पेड़ को सुखाने के उपरान्त -आहार के अभाव में उसे स्वयं भी सूखना पड़ता है। शोषकों का अन्त ऐसा ही दुखद होता है।