विज्ञापन (Kavita)

October 1972

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कलाकारों और कवियों के नाम

ओ कलाकार! ओ गीतकार!! युग निर्माता-

सन्तुलित तूलिका और लेखनी करो आज ॥

मत करो कला को निर्वसना बाजारों में-

पैसे लेकर मत बेचो वैश्या के तन-सा-॥

मत दुहराओ इतिहास, दुशासन वाला फिर -

मत खोलो सबके बीच, नारी-तन कञ्चन-सा॥

विज्ञापन का साधन न बनाओ तुम इसको-

आँचल के नीचे ही रहने दो छिपी-लाज ॥ संतु0

क्यों भाता है बस, रंग गुलाबी ही तुमको-

है रंग और भी जीवन की गहराई में ॥

कल्पना करो चित्रित पट पर पतझर की भी-

मत रह जाओ बैठे-मादक अमराई में॥

है कला, सत्य, शिव, सुन्दर की शुचितम व्याख्या-

इसको न अशिव का पहनाओ अपवित्र ताज ॥ संतु0

फिर से न कामिनी मात्र बना दो कविता को-

मत भ्रमर बनाओ प्रज्ञाशाली पौरुष को॥

मत गन्दे गीतों का इनको अभ्यस्त करो-

रामायण गाने दो फिर युग के लव-कुश को॥

भूषण बन दृढ़ता और वीरता सिखलादो-

कर सके अनागत इनके ऊपर बहुत नाज॥ संतु0

मत घोलो गीतों में बस, खुशबू फूलों की-

है गीत चुभन की, और दर्द की भी भाषा॥

जन्मी थी पहली पंक्ति, आदि कवि के स्वर में-

है वही जिन्दगी की चिर-शाश्वत परिभाषा॥

क्वारी कन्या का ही घूँघट मत उठने दो-

संस्कृति के महानाश की तुम मत बनो गाज॥ संतु0

अपनी क्षमता को पहचानो ओ कलाविदों-

तुम युग की आत्मा के गायक, साहित्यकार॥

तुमको पुकारती गिरती हुई सभ्यता फिर-

मत करो अनसुनी घायल युग की चीत्कार ॥

तुम युग के-जन मानस के-सबल सृजेता हो-

तुम से ही उठता है या गिरता है समाज ॥ संतु0

(माया वर्मा)

*समाप्त*


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