मनुष्य को सोचने और करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। उसका उपयोग भली या बुरी, सही या गलत किसी भी दिशा में वह स्वेच्छापूर्वक कर सकता है। भव बंधन में बँधना भी उसका स्वतन्त्र कर्तृत्व ही है। इसमें माया, प्रारब्ध, शैतान, ग्रह, नक्षत्र आदि किसी अन्य का कोई दोष या हस्तक्षेप नहीं है। जीवन के स्वरूप और उद्देश्य से अपरिचित व्यक्ति भौतिक लालसाओं और लिप्साओं में स्वतः आबद्ध होता है। वह चाहे तो अपनी मान्यता और दिशा बदल भी सकता है और जिस तरह बंधनों को अपने इर्द गिर्द लपेटा था उसी प्रकार उनसे मुक्त भी हो सकता है।
रेशम का कीड़ा अपना खोल आप बुनता है और उसी में बँधकर रह जाता है। मकड़ी को बंधन में बाँधने वाला जाल उसका अपना ही तना हुआ होता है। इसे उनकी प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया ही कह सकते हैं। जब रेशम का कीड़ा खोल में से निकलने की बात सोचता है तो बुनने की तरह उसे कुतर डालने में भी कुछ कठिनाई नहीं होती। मकड़ी अपने फैलाये जाले को जब चाहे तब समेट भी सकती है। इन्द्रिय लिप्साओं और ममता, अहंता को प्रधानता देकर मनुष्य शोक-सन्ताप की विपन्नता में ग्रस्त होता है। यदि वह अपनी दिशा पलट ले तो जीवन मुक्त स्थिति का आनन्द प्राप्त करने में भी उसे कोई अड़चन प्रतीत न होगी।
समस्त विभूतियों से सम्पन्न मानव जीवन का अनुदान और सर्व तन्त्र स्वतन्त्रता का उपहार देकर भगवान ने अपने अनुग्रह का अन्त कर दिया। अब मनुष्य की बारी है कि वह सिद्ध कर दिखाये कि उसका सदुपयोग वह कर सकता है जो उसे दिया गया।