त्वचा का सामर्थ्य सब इन्द्रियों से बढ़कर

October 1972

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त्वचा यद्यपि बाहर से देखने में आवरण मात्र लगती है पर गहराई से देखने में उसका कण-कण विशेषताओं से भरा है। शरीर शास्त्री उसे काया का संरक्षक आवरण मानते हैं। सौंदर्य शास्त्री उसी के आधार पर रंग रूप का लेखा-जोखा लेते हैं। आत्मवेत्ताओं की दृष्टि में वह सबसे प्रबल और सबसे विस्तृत इन्द्रिय है। आँख, कान, नाक आदि तो सीमित स्थान ही घेरे हैं पर त्वचा ने सारा शरीर ही आच्छादित कर रखा है। उसका शासन विस्तार एवं क्रियाकलाप सम्पूर्ण शरीर को प्रभावित करता है।

जननेन्द्रिय की गणना पृथक इन्द्रिय में न करके उसे स्पर्शेंद्रिय के रूप में त्वचा परिधि में ही गिना गया है। कारण कि इसी की संवेदनशीलता जननेन्द्रिय में एक विशेष स्पर्श संवेदन उत्पन्न करती है। कोमलता का आनन्द त्वचा ही लेती और देती है। स्नेह स्वजनों का स्पर्श चुम्बन आलिंगन त्वचा के माध्यम से होता है। उसकी संवेदनशीलता ही स्पर्श में अन्तःकरण को गुदगुदा देती है। भाव विभोर स्थिति में बिछुड़े हुए प्रियपात्र को अथवा सफल स्वजन को हर्षातिरेक में छाती से लगाये बिना चैन नहीं पड़ता। बालक और अभिभावकों को गोदी में लेना केवल शारीरिक कारणों से ही सुखद नहीं होता वरन् उस स्पर्श सुख में आन्तरिक आनन्द की चेतनात्मक अनुभूति भी जुड़ी होती है। त्वचा इन्द्रिय हमारे भाव संस्थान को कम प्रभावित नहीं करती। इसलिए उसे अवाँछनीय स्पर्श से बचाया जाता है और वाँछनीय स्पर्श के लिए प्रयत्नपूर्वक सचेष्ट रहा जाता है।

भारतीय संस्कृति में छूत-छात के तत्व मौजूद हैं। आज तो वह जाति-पाँति के आधार पर उलट गया। पर प्राचीन काल में यह सिद्धान्त वाँछनीयता और अवाँछनीयता की दृष्टि से प्रयुक्त होता था। दुष्ट दुराचारियों को अस्पर्श मानने का तात्पर्य था उनकी दुष्ट प्रकृति के साथ जुड़ी हुई सम्वेदना के आक्रमण से अपने को बचाना। गुरुजनों के चरण-स्पर्श करने उनके पैर दबाने की प्रक्रिया मात्र सम्मान सूचक ही नहीं वरन् इसमें उनकी महानता को अपने हाथों के माध्यम से ग्रहण करना भी है। शिष्य पुत्र आदि अपने गुरुजनों के अक्सर पैर छूते या पैर दबाते हैं। उसमें थकान मिटाना कारण नहीं वरन् जिस तरह गाय का दूध दुहा जाता है उस तरह उनके शक्ति प्रवाह को लेकर अपने अन्दर भरना ही प्रमुख लाभ है।

साधारणतया इतना ही समझा जाता है कि धूप वर्षा से बचाव करने के लिये जिस तरह छाता लगाया जाता है उसी तरह त्वचा के लिये बाहरी ऋतु प्रभावों से लेकर विकिरण विभवों तक को रोकती है। अपने ऊपर सहन करती है। वह एक सुसज्जित वस्त्र की तरह है जो आन्तरिक अवयवों को ढ़कने के अतिरिक्त बाहर की शोभा सुसज्जा भी रखता है। ईश्वर के दिये हुए इस परिधान से बढ़कर मनुष्य कृत कोई पोशाक हो ही नहीं सकती।

जहाँ तक सौंदर्य का प्रश्न है- उसे त्वचा का सौंदर्य ही कहना चाहिए। वस्त्र कितने ही कीमती और आकर्षक क्यों न हों वे तभी शोभा पाते हैं जब हाथ-पैर, मुख आदि अंगों के नग्न प्रदर्शन में अवरोध उत्पन्न करें। नारी अंगों को तो चित्रकार से लेकर मूर्तिकार तक यथासम्भव निर्वस्त्र रखने का प्रयत्न करते हैं। सिनेमा और नृत्यों में सबसे बड़ा आकर्षण त्वचा का अधिकाधिक भाग निर्वस्त्र देखने का होता है। मनुष्य स्वभाव में यह जुगुप्सा इतनी अधिक बढ़ी है कि अमर्यादित नग्नता को अश्लीलता के प्रतिबन्धों से जकड़ कर उसे कानून द्वारा अवाँछनीय घोषित करना पड़ा। निस्सन्देह तत्व के दर्पण से ही मनुष्य का सौंदर्य मुखरित होता है।

वस्त्रों से लादकर उसे दुर्बल बना दिया जाय यह बात दूसरी है अन्यथा वह शीत ताप से प्राणी की रक्षा करने में पूर्णतया समर्थ है। इस धरती के सभी जीव जन्तु, जलचर, थलचर, नभचर इसी पोशाक के बलबूते अपनी जिन्दगी मजे में काट लेते हैं। उन्हें अतिरिक्त वस्त्र पहनने की आवश्यकता नहीं पड़ती। आदिम मनुष्य भी नंगे ही रहते थे। सभ्यता की बात चली तो नर-नारी जननेन्द्रिय ढ़कने तक की आवश्यकता अनुभव करने लगे। अभी भी वन्य प्रदेशों के निवासी न्यूनतम वस्त्र पहनते हैं। त्वचा ही उनके शरीर को ऋतु प्रभाव से बचाती है। कितने ही सन्त तपस्वी भी नंगे रहते हैं। बहुत हुआ तो मिट्टी या राख की एक परत और ऊपर से मल लेते हैं। इस दुहरे आवरण से वे और भी आसानी से ऋतु प्रभाव सहन कर लेते हैं।

चेहरे को सदा खुला ही रखा जाता है। हाथ पैरों में तो मोजे भी पहन लिये जाते हैं, पर नाक, मुँह, आँख गाल आदि पर तो कोई मोजे भी नहीं पहने जाते हैं। वहाँ की त्वचा खुली ही रहने की अभ्यस्त रहने से शीत ताप आदि की शिकायत नहीं करती-न वस्त्रों की माँग करती है, न ऋतु प्रभाव से प्रभावित होती है। अभ्यस्त त्वचा शरीर का संरक्षण कर सकने में पूरी तरह समर्थ है। वस्त्रों ने उनका कुछ उपकार नहीं किया वरन् दुर्बल और परावलम्बी ही बनाया है।

शरीर पर चमड़ी का क्षेत्रफल लगभग 250 वर्ग फुट होता है। वजन 6 पौण्ड। सबसे पतली वह पलकों पर होती है। .5 मिली मीटर। पैर के तलवों में सबसे मोटी होती है 6,00 मिली मीटर। साधारणतया उसकी मुटाई 0.3 से लेकर 300 मिली मीटर की होती है। उसमें बारीक-बारीक अगणित छेद होते हैं जो दूरबीन की सहायता से देखे जा सकते हैं। औसतन इन छेदों से दिन-रात में 10 छटाँक पसीना बाहर निकलता है। गर्मी पड़ने पर या अधिक परिश्रम करने पर जब शरीर का इञ्जन गरम हो उठता है तो उसे ठण्डा करने के लिए स्वेद ग्रन्थियाँ तेजी से पसीना बाहर निकालती हैं और बदन ठण्डा कर देती हैं। पर सर्दियों में शरीर को गरम रखने की जरूरत पड़ती है इसलिये वे छेद सिकुड़ जाते हैं। भीतर की गर्मी रुकी रहती है और ठण्ड से बचाव हो जाता है। इस तरह त्वचा की संरचना शरीर को ‘एयर कंडीशनर’ बनाये रहती है।

त्वचा छिद्र पसीना ही नहीं निकालते वे एक प्रकार से साँस भी लेते रहते हैं। वाष्प की तरह कुछ चीजें बाहर निकलती रहती हैं और जरूरत की चीजें भीतर घुसती रहती हैं। इस तरह यह छोटे छेद एक प्रकार से नाक के छोटे छेदों का भी काम करते हैं। यदि यह छेद सर्वथा बन्द हो जायें तो आदमी घुटकर मर जायेगा। पुराने जमाने में अपराधी को मौत की सजा देने का एक तरीका यह भी था कि उसके शरीर पर मोम पोत दिया जाय, हाथ बंधे होने से वह उसे हटा नहीं सकता था और त्वचा का श्वास बन्द हो जाने पर घुट-घुट कर मर जाता था। एकबार एक लड़के के शरीर पर शीरा पोत कर रुई चिपकाई गई और लंगूर का स्वाँग बनाया गया। त्वचा छिद्र बन्द हो जाने से लड़का थोड़ी ही देर में बेहोश हो गया और अस्पताल पहुँचते-पहुँचते मर गया। जो लोग स्नान की उपयोगिता नहीं समझते। चिह्न पूजा का स्नान करते हैं। चमड़ी पर मैल की परतें जमने देते हैं उन्हें जानना चाहिए कि यह गन्दी आदत स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत ही अहितकर है।

साँप की केंचुली सबने देखी है। मनुष्य की त्वचा भी केंचुली बदलती है पर उसका क्रम बहुत हलका और धीमा होने से दिखाई नहीं पड़ता। किसी बीमार के बहुत दिन तक चारपाई पर पड़े रहने के बाद उसकी चमड़ी पर से भूसी उतरती देखी जाती है। सिर में भी अक्सर भूसी जमती रहती है। शरीर को रगड़ने पर मैल की तरह से भी केंचुली के अंश रहते हैं। हमें दिखाई भले ही न दें पर चमड़ी की कोशिकाएं मरती रहती हैं और उनका स्थान नई ग्रहण करती रहती हैं। इस प्रकार केंचुली बदलने का क्रम चलता रहता है। साँप ही नहीं मनुष्य भी केंचुली बदलता है।

त्वचा के भीतर बिखरे हुए ज्ञान तन्तुओं की लम्बाई 45 मील कूती गई है। यह शरीर को स्पर्श होने वाले अनुभवों को मस्तिष्क तक पहुँचाते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य प्रकार के तन्तु भी हैं जो दृश्य, गन्ध, ध्वनि, दबाव, स्वाद, सर्दी-गर्मी की अनुभूतियाँ नाक, कान, आँख, जीभ आदि ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से विशिष्ठ प्रकार की अनुभूतियाँ कराने में योगदान करते हैं।

त्वचा में एक विशेष तेल रहता है जो ‘कोरियम’ कहलाता है। शरीर पर इसी चिकनाई की चमक रहने से सौंदर्य बढ़ता है और तेजस्विता झलकती है। इसी प्रकार त्वचा की रंजक कोशिकाएं- ‘मेलानिक’ नामक रंग उत्पन्न करती है। इन्हीं के कारण गोरा, काला गेहुँआ, पीला आदि रंग मनुष्य का होता है।

चोट लग जाने पर क्षत स्थल की पूर्ति करने के लिए समीपवर्ती पड़ौसी पदार्थ दौड़ पड़ते हैं और वह घाव जल्दी भर देते हैं। योगसाधना के षटचक्रों की तरह त्वचा की छह परतें हैं (1) स्ट्रेटम कोर्नियम-सबसे ऊपर की (2) स्ट्रेटम ल्यूसीडम-पारदर्शी (3) स्ट्रेटम-ग्रेन्यू लोसम- मूर्छित (4) स्ट्रेटम एस्यूलीटम-अपेक्षाकृत मोटी परत (5) स्ट्रेटम वेसेल-क्षति पूरक (6) कोरियम या डर्मिस सहायक। हाथ पैरों के पोरुवे हथेली तलवे आदि पर जहाँ तहाँ जो मोटी गद्दी सी पाई जाती है उसे पेपिली-कहते हैं।

त्वचा परतों में कितनी ही वस्तुएं विद्यमान हैं। (1) केश ग्रन्थि, (2) स्वेद ग्रन्थि, (3) तैल ग्रन्थि, (4) बाह्य त्वचा, अन्तः त्वचा (5) स्नायु, (6) मज्जा कोष, (7) रक्त नलियाँ इनमें से मुख्य है। इसके अतिरिक्त अधिक गहराई से जानने पर उनमें और भी बहुत कुछ मिलेगा।

यह त्वचा सम्बन्धी शारीरिक जानकारी हुई चेतनात्मक परिचय यह है कि वाह्य वस्तुओं को स्पर्श करके मस्तिष्क तक उसकी जानकारी पहुँचाने का अति महत्वपूर्ण कार्य त्वचा का ही है। संसार में व्यक्ति का संबंध बनाने-वस्तुओं को शरीर के साथ जोड़ने मिलाने का कार्य उसी के द्वारा सम्पन्न होता है। अतएव उसे अन्य समस्त इन्द्रियों से अधिक व्यापक और समर्थ बनाया गया है। त्वचा में इतनी अद्भुत शक्तियाँ भरी पड़ी हैं कि यदि उन्हें विकसित कर लिया जाय तो वह अन्य समस्त इन्द्रियों का काम कर सकती है। त्वचा से देखा जा सकता है, सुना जा सकता है, सूँघा जा सकता है, चखा जा सकता है। स्पर्श सुख तो उसका प्रधान कार्य है। मैथुन ही नहीं-काम स्पंदन के अन्य प्रकार भी लगभग उसी के द्वारा अनुभव होते हैं और हलचल मचाने वाली अन्तःस्थिति उत्पन्न करते हैं।

त्वचा अन्य इन्द्रियों का भी काम कर सकने में समर्थ है। मूलतया यह शक्ति उसमें पूरी तरह विद्यमान है। काम में न आने से वह प्रसुप्त पड़ी है। योग साधनाओं द्वारा यदि त्वचा की संवेदनशीलता बढ़ाली जाय तो अन्य इन्द्रियों की शक्ति बचाकर त्वचा से ही काम चलाया जा सकता है। वह बची हुई अन्य इन्द्रियों की शक्ति अन्य उपयोगी कार्यों में खर्च हो सकती है। जिनकी कोई इन्द्रिय नष्ट हो गई है वे अभ्यास करके त्वचा से ही उस प्रयोजन को पूरा कर सकते हैं। नेत्रों का काम त्वचा कर सकने में समर्थ है। इस सम्बन्ध में रूस में लगातार कई उदाहरण सामने आये हैं और वहाँ इस सम्बन्ध में काफी खोज भी हो रही है।

त्वचा के पारदर्शी परत केवल आर-पार दिखाने वाले ही नहीं हैं वे ऐक्सरे का काम करते हैं। यदि उन्हें विकसित किया जा सके तो ऐक्सरे यन्त्र के स्थान पर अपनी त्वचा के संस्पर्श से ही अज्ञात और अदृश्य का एक बड़ा भाग हमारी जानकारी में आ सकता है।

कुछ समय पूर्व मास्को में एक टेलीविजन कार्यक्रम पर यह दिखाया गया था कि किस प्रकार बिना आँखों की सहायता के मात्र स्पर्श से देखने का काम लिया जाना सम्भव है। निझनी तगिन की 22 वर्षीया कुमारी रोजा कुलेशोवा ने अपने दाहिने हाथ की तीसरी चौथी उँगली में दृष्टि शक्ति की विद्यमानता का परिचय दिया। आँख से मजबूत पट्टी बँधवाकर वैज्ञानिकों की उपस्थिति में उसने इन दो उँगलियों के सहारे अखबार का एक पूरा लेख पढ़कर सुनाया और फोटो चित्रों को पहचाना। इससे रूसी वैज्ञानिकों की शरीर में संव्याप्त चेतना को बहुमुखी प्रयोजन पूरा कर सकने की क्षमता का ज्ञान हुआ और नेतृत्व विज्ञान की एक नई शोध करने की दिशा मिली।


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