पूर्वाग्रह पर अड़े ही रहना, बुद्धिमत्ता नहीं

October 1972

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प्राचीन और अर्वाचीन की दीवार सत्य और असत्य के निर्णय में सहायक नहीं हो सकती। पुराना अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी। जो नया है उसमें उपयुक्त भी है और अनुपयुक्त भी। यह परख विवेक एवं गुण अवगुण की कसौटी पर की जानी चाहिए। उसमें नये और पुराने का पक्षपात, नहीं रखा जाना चाहिए। जो पुराना सो अच्छा जो नया सा बुरा यह कोई तथ्य नहीं। इसके लिए दुराग्रह करने पर हम सत्य के निकट नहीं पहुँचते वरन् उससे दूर ही हटते जाते हैं।

पुराने समय के लोग सत्य की शोध में जितने सफल हुए उसे अन्तिम नहीं मान लेना चाहिए। वरन् यह समझकर चलना चाहिए सत्य के परम लक्ष्य तक पहुँचने में अभी लम्बी मंजिल पार करनी है और उस पर पीढ़ी दर पीढ़ी आगे ही बढ़ते चलना पड़ेगा। जो निष्कर्ष पूर्वजों ने निकाले वे अन्तिम नहीं थे। उसने भावी प्रगति का मार्ग अवरुद्ध कर दिया। यह मानकर नहीं चलना चाहिए। एक समय पर परिस्थिति में जो बात उपयुक्त जँचती है उसमें आगे चलकर सुधार करना पड़ सकता है। ऐसा विशाल दृष्टिकोण रखकर ही सत्य की शोध में प्रगति हो सकती है।

किसी जमाने में पृथ्वी को चपटी-ब्रह्माण्ड का केन्द्र, स्थिर माना जाता था। ग्रह गणित का खाँचा इस मान्यता पर भी फिट बैठ गया। पीछे उस ज्ञान में प्रगति हुई। पृथ्वी को गोल असंख्य सौर मण्डलों में से अपने आदित्य सूर्य का छोटा ग्रह पाँच गतियों में भ्रमण करने वाला माना गया। पुराने आग्रह पर अड़े रहना आवश्यक नहीं चन्द्रमा सौरमण्डल का स्वतंत्र ग्रह है इसी बात पर अड़े रहने से कुछ लाभ नहीं। चन्द्रमा पृथ्वी का उपग्रह है, इस तथ्य से इनकार करके यदि पुरातन वादी ही बने रहे तो सत्य से विमुख ही अपने को सिद्ध करेंगे।

अनेक प्राचीन सिद्धान्त सही हैं। वे प्राचीन जैसे काल में सत्य थे उपयोगी थे वैसे ही आज भी यथावत हैं। सत्य न्याय, प्रेम, समय, सद्व्यवहार की उपयोगिता भूतकाल की तरह वर्तमान में भी अक्षुण्ण है। सत्य के लिए काल का आग्रह उचित नहीं। तन ढ़कने की आवश्यकता प्राचीन काल में समझी गई थी वह तथ्य आज भी यथा स्थान है। पर पोशाक जिस तरह की पुराने लोग पहनते थे वैसी ही आज भी पहनी जाय यह आवश्यक नहीं।

सर्दी के दिनों में भारी और गर्मी में हलके वस्त्र पहनने पड़ते हैं। ऋतु परिवर्तन के साथ-साथ वस्त्रों का स्तर बदल जाता है। बदली हुई परिस्थिति का ध्यान न रखकर यदि कोई व्यक्ति पूर्व परम्परा का पालन करे और एक ही तरह के वस्त्र हर ऋतु में पहनने के लिए अड़ा रहे तो उसे बुद्धिमान नहीं कहा जायेगा। भले ही वह अपने को पुरातन पंथी मानता रहे।

समयानुसार कितनी ही प्रथा परम्पराओं में भारी हेर फेर होता रहा है। सघन वन प्रदेशों में कृषि और पशु पालन के लिए भूमि और जल की व्यवस्था देखकर लोग किसी जमाने में बिखरे हुए छोटे गाँव बसा कर रहते थे। हिंसक पशुओं और दस्युओं से जूझने के लिए आजीविका के लिए बड़े कुटुम्ब की आवश्यकता पड़ती थी। उन दिनों बहु पत्नी प्रथा तथा अधिक सन्तान को सौभाग्य चिन्ह मानने का कारण था। तब उन्हें उचित समझा जाता था। आज के विकसित समाज में बहुपत्नी प्रथा अवाँछनीय हो गई और जनसंख्या बढ़ने से संतान निग्रह की आवश्यकता अनुभव हुई। पुरानी मान्यता को बदलने के लिए समय ने हमें विवश कर दिया है। अब पूर्वाग्रह के लिए अड़ने वाला परम्परावादी अदूरदर्शी ही माना जायेगा।

पुरानी रस-भस्में अच्छी मानी जाती हैं पर पुराना घी कोई नहीं खाता। एक समय की उपयोगी वस्तुएं समयानुसार निरर्थक हो जाती हैं तब उसे सुधारने या बदलने की आवश्यकता पड़ती है। मान्यताओं और परम्पराओं में भी हेर फेर होते रहने का क्रम अनादि काल से चल रहा है। उसके लिए हमें अपना मस्तिष्क खुला हुआ ही रखना चाहिए।


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