हाथ-पाँव, आँख, नाक, हृदय, मस्तिष्क आदि अंगों के समूह का नाम ही शरीर है। जीवाणुओं की सामूहिक हलचल का नाम ही जीवन है। इन समूह शृंखला से पृथक रहकर एकाकी जी सकना किसी के लिये सम्भव नहीं। व्यक्ति समाज का एक अंग मात्र है। जब वह समूह की उपेक्षा करके व्यक्तिवादी संकीर्णता से ग्रसित होता है और क्षुद्र स्वार्थों के साधनों में लगता है तब वह ऐसे मार्ग पर भटकता है जो उसके स्वरूप और गौरव के न अनुरूप है और न अनुकूल।
समाज से जो जितना पृथक होता है वह उतना ही अपने को एकाकी और अभावग्रस्त अनुभव करता है। समूहगत आत्मीयता की सम्पदा से जो वंचित है उसे भावनात्मक दृष्टि से दरिद्र ही कहना चाहिए। अपने को समाज से पृथक मानने की जिसकी जितनी मान्यता है वह उतना ही भयभीत, आशंकाग्रस्त और अनिश्चित स्थिति में अनुभव करेगा। अपने निज के सुखों के लिये सचेष्ट व्यक्ति जब सामूहिक सुखों की अपेक्षा करने के लिये-नीति और समाज की मर्यादाओं का उल्लंघन करने लगता है तो वह उस समष्टि सहयोग से वंचित रह जाता है जो आनन्द, सन्तोष और उल्लास का प्रमुख आधार है। व्यक्तिवादी भले ही छीन झपट से कुछ आगे निकल जाय पर उसे असुरक्षा और आत्महीनता की भावना दिन-दिन अधिक ग्रसित करती चली जायेगी। ऐसा व्यक्ति बाहर से सुख साधन युक्त दीखते हुए भी भीतर उद्विग्न और अशान्त ही बना रहेगा।
व्यक्ति वस्तुतः समूह का एक अविच्छिन्न घटक मात्र है। उसकी सत्ता का समुचित विकास तभी हो सकता है जब वह समाजनिष्ठ होकर रहे। घड़ी का एक पुर्जा अलग अपनी अहंता प्रकट करे तो उसका यह उपहासास्पद प्रयास है। यदि वह घड़ी का अंग बनकर रहता है तो ही उसका कुछ महत्व हो सकता है। मछली को शान्ति अगाध जल राशि में विचरण करते हुए ही मिल सकती है यदि वह जलाशय की उपेक्षा कर स्वतन्त्र निवास की बात सोचे तो वह सुख की अपेक्षा दुख के जाल जञ्जाल में ही जा फंसेगी।
मनुष्य के लिये डरने और लड़ने के लिये कोई सत्ता इस संसार में नहीं है। केवल उसकी स्वनिर्मित भ्रान्तियाँ और विकृतियाँ ही हैं जो क्षोभ उद्वेग बनकर सामने आती हैं। दर्पण के सामने आकर चिड़िया अपने आप से ही लड़ती है। उसे लगता भर यह कि सामने कोई दूसरा पक्षी उसे ललकार रहा है और प्रतिद्वन्द्वी चुनौती दे रहा है। पर यथार्थता यह है कि चिड़िया का अपना आप ही शत्रु बनकर सामने खड़ा होता है। मनुष्य के सामने प्रस्तुत विपत्ति और विपन्नता उसकी निजी उपार्जित हैं। यदि वह यथार्थता के अनुकूल अपने को ढाल सके तो मृत्यु भी चिर विश्रान्ति के लिए प्रस्तुत शालीन शान्ति जैसी प्रिय मधुर प्रतीत हो सकती है।
एक दिन ऐसा आवेगा ही जब मनुष्य अपनी सत्ता के स्वरूप और सृजन को समझ सकेगा तब उसे विदित होगा कि वह न तो अकेला है और न बाधित। कैदी उसे किसी ने बनाया नहीं- वह स्वयं ही बना है। वह कैद जिसमें निरंतर तड़पना पड़ रहा है- लगती भर अष्ट धातु की है वस्तुतः वह ऐसे झीने पर्दे की बनी है जिसे तनिक से प्रयास में तोड़ फोड़कर फेंका जा सकता है। जिस दिन मनुष्य अपनी सर्व तन्त्र स्वतन्त्र और अपरिमित शक्ति सम्पन्नता पर विश्वास करेगा उस दिन उसे न किसी से शिकायत करने की आवश्यकता पड़ेगी और न शत्रुता ठाननी पड़ेगी। तब उसे किसी की सहायता भी अपेक्षित न होगी। आत्मबोध की किरणें उस अन्धकार को दूर कर देती हैं जिसके कारण पग-पग पर ठोकरें खाने के लिये विवश होना पड़ता है। पाने योग्य इस संसार में एक ही वस्तु है आत्म-ज्ञान और उससे बढ़कर किसी को देने योग्य वस्तु भी किसी के पास और कुछ नहीं हो सकती।