बाहुबलि की दूरदर्शिता

October 1972

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राजा ऋषभदेव यह नहीं चाहते थे कि उनकी मृत्यु के बाद राजगद्दी के लिए सन्तानों में झगड़ा हो अथवा राज्य की जनता को किसी प्रकार का कष्ट उठाना पड़े। पुत्र दो चार होते तो समझा बुझाकर ठीक कर लेते। एक साथ सौ पुत्रों के पिता बनने का उन्हें सौभाग्य मिला था। अतः उन्होंने अपने जीवन में ही यह व्यवस्था कर दी कि ज्येष्ठ पुत्र भरत को राजगद्दी दी जाये और शेष 99 पुत्र गृह त्याग कर संन्यासी हो जायें।

पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर 98 पुत्रों ने संन्यास ले लिया। साधना और समाज सेवा उनके जीवन के अंग बन गये। बाहुबली नहीं चाहता था कि उसका अग्रज भरत राजसिंहासन पर इसलिए आसीन हो कि वह उम्र में बड़ा है। उम्र के साथ-साथ योग्यता में भी बड़ा होना चाहिए।

विवाद खड़ा हुआ दोनों अपनी-अपनी योग्यता के प्रमाण प्रस्तुत करने लगे। राजनीति, धर्म, अर्थ और शास्त्रज्ञान की प्रतियोगिताएं हुईं। भरत पराजित हुआ और बाहुबली को निर्णायकों ने श्रेष्ठ सिद्ध कर दिया। योग्य और गुणवान की सर्वत्र पूजा होती है। प्रजा भी बाहुबली के प्रति आकर्षित होने लगी। निर्णायकों के निर्णय सुनने के बाद उपस्थित नागरिकों ने बाहुबली की जय-जयकार करना प्रारम्भ कर दिया।

भरत के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वह किसी भी तरह बाहुबली को नीचा दिखाने का प्रयत्न करने लगा अपने मार्ग के इस काँटे को निकालने के लिये उसके प्रयत्न चलने लगे। राज्य के लोभ में आकर भरत ने बाहुबली पर प्राणघातक प्रहार कर दिया। किसी को यह आशा न थी कि राजगद्दी भाई-भाई के मध्य भेद की इतनी बड़ी दीवार खड़ी कर देगी और प्राणों के मूल्य पर उसकी सौदेबाजी होगी। राजमद जो कराये कम ही है।

बाहुबली भी किसी से कम न था, जैसा उसका नाम वैसी ही उसमें शक्ति थी। उस तेजस्वी ने प्रहार के लिए जैसे ही हाथ उठाया लोग समझ गये भरत का अन्त आ गया है, वह बाहुबली की एक मुष्टिका में ही धराशायी हो जायेगा।

बाहुबली के विवेक की किरणें अभी भी थीं जो उसके मस्तिष्क को ज्ञान से आलोकित कर रही थीं। उसमें जोश और होश दोनों ही थे। उसने सोचा यदि मेरा भाई राज्य के लोभ में विवेक शून्य तथा अधम बन सकता है तो मैं उसका प्रतिद्वन्द्वी क्यों बनूं। यदि मैंने अपने भाई के प्राण लेकर राजगद्दी संभाली तो राज्य की जनता यही कहेगी जो राजा पद के लिये अपने भाई का खून पी सकता है वह जनता की सेवा क्या करेगा?

दूसरे ही क्षण शक्ति से उठा हुआ हाथ वापिस आ गया। बाहुबली ने महत्वाकांक्षा को त्यागकर भरत को राजगद्दी सौंप दी और स्वयं विरक्ति को अपनाकर दुःखी मानवता के आँसू पोंछने के लिए चल पड़ा।


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