बुढ़िया के इकलौते लड़के का ब्याह था, उत्सव के बीच एक थका माँदा साधु कहीं से आ निकला। उसने आश्रय ओर भोजन माँगा।
बुढ़िया ने कहा संतजी खुशी से ठहर जाइए यह चावल लीजिए और पका कर खा लीजिए मैं ब्याह की व्यवस्था में उलझी हूँ पर एक बात का ध्यान रखिए कोई अशुभ वचन मुँह से न निकालिए। साधु ने उस दिन चावल पकाया खाया। दूसरे दिन वह हाँड़ी पका ही रहा था कि बुढ़िया उधर से आ निकली हाल-चाल पूछने लगी।
साधु ने बुढ़िया को बिठा लिया और कहा-’माता जी’ आपके इकलौते लड़के का ब्याह है सो तो ठीक है, पर कदाचित इन्हीं दिनों लड़का बीमार पड़े और मरणासन्न हो जाय तो आप पर कैसी बीतेगी? साधु अपनी आदत से मजबूर था उसे अप्रिय कहे बिना चैन कहाँ?
बुढ़िया ने कहा-मुझ पर जो बीतेगी सो भुगत लूँगी पर आप इसी समय अपना चावल लेकर विदा लीजिये। साधु के कपड़े में से माँड़ टपकता देखकर राहगीरों ने साधु से पूछा-यह क्या टपकता है।
साधु ने कहा-यह मेरी आदत है, जो इस घिनौने रूप में अपनी असलियत हर किसी को बताती जताती जा रही है।