देवाधिदेव आत्मदेव की साधना

October 1972

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

देवत्व और असुरत्व इस संसार में सर्वत्र विद्यमान हैं। वह मानवी अन्तरंग में भी मौजूद हैं। दोनों में से जो जिसे वरण करता है वह उसे प्राप्त कर लेता है। संसार में दुष्ट अनाचारी तत्व भरे पड़े हैं। यदि उन्हें ढूंढ़ा जाय संपर्क बनाया और अपनाया जाय तो सहज ही अपने भीतर बाहर असुरता का ही बाहुल्य होगा। अभिरुचि का आकर्षण सब दिशाओं से अपने स्तर के व्यक्ति तथा साधन इकट्ठे कर लेता है और जिस रंग में मन रंगा था देखते देखते उसी तरह का वातावरण पूरी तरह घिर जाता है। यही बात असुरता के सम्बन्ध में लागू होती है, यही देवत्व के सम्बन्ध में। आसुरी प्रकृति मनुष्य को साधने, सहयोगियों तथा परिस्थितियों, सफलताओं की निरन्तर उपलब्धि होती जाती है और आकाँक्षा के अनुरूप असुरता के सुदृढ़ दुर्ग में अपने को विराजमान पाया जाता है। इसी प्रकार यदि अन्तरंग में दैवी आकाँक्षाएं प्रदीप्त हों, उसी दिशा में कदम बढ़ रहे हों तो सन्त सज्जनों का संपर्क-सत्कर्म करने का वातावरण, सन्मार्ग प्रेरक साधन सहज ही बनने लगते हैं और जीवन-क्रम में देवत्व का सागर हिलोरें लेने लगता है।

बाह्य जगत में संव्याप्त सत और तम-देवत्व और असुरत्व की तरह अन्तरंग में भी यह दोनों प्रवृत्तियाँ यथास्थान विद्यमान रहती हैं। इनमें से जिसे अपनाया बढ़ाया जाय वही पनपती चली जाती है और विचारणा तथा क्रियाशीलता में वही आस्था सक्रिय बनकर झाँकने लगती है। आसुरी अभिरुचि वाले व्यक्ति उसी स्तर के विचारों में डूबे रहते हैं, जैसा सोचते हैं वैसे ही उपाय सूझते हैं- साधन ढूँढ़ते है और प्रयास करते हैं। फलस्वरूप जीवन क्रम उसी दिशा में चल पड़ता है। अन्तरंग में गाया हुआ आकाँक्षाओं का बीज कुछ ही समय में विशाल जीवन वृक्ष बनकर खड़ा हो जाता है। यदि आस्थाएं सतोगुणी हों- आकाँक्षाएं देव स्तर की हों तो स्वभावतः मन और बुद्धि का प्रवाह उसी ओर बहेगा। बूँद-बूँद से घट भरने की तरह सत् चिन्तन और सत्कर्मों की सम्पदा मनुष्य को स्वर्गीय विभूतियों से सुसज्जित कर देती है और क्रमशः व्यक्तित्व में देव मानव के अधिक स्पष्ट दर्शन होते चले जाते हैं।

अध्यात्म क्षेत्र में अनेक देवताओं की मान्यताएं और कल्पना है। हर देश, सम्प्रदाय, क्षेत्र वर्ग के पृथक पृथक देवता हैं आश्चर्य होता है कि ये विभिन्न आकृति-प्रकृति के देवता कैसे अपनी गतिविधियों में परस्पर तालमेल बिठा पाते होंगे। इस असमंजस का हिन्दू धर्म में भली प्रकार समाधान कर दिया गया है। यहाँ कभी 33 करोड़ की जनसंख्या रही होगी तदनुसार 33 कोटि देवताओं की संख्या घोषित कर दी गई। प्रत्येक नागरिक को एक देवता माना गया। यह मान्यता अत्यन्त प्रामाणिक है, गुण कर्म, स्वभाव की दृष्टि से जिसमें देवत्व की प्रचुर मात्रा विद्यमान है जिसने अपनी सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों के आधार पर अन्तरंग और बहिरंग परिस्थितियों में स्वर्गीय वातावरण भर रखा है उसे देवता मानने में किसी को क्यों और क्या आपत्ति होनी चाहिए। इस देश का हर व्यक्ति कभी देव वर्ग में था, इसलिये सहज ही यहाँ की परिस्थितियां भी ‘स्वर्गादपि गरियसी’ बनी रहीं।

पूजा प्रयोजन में प्रयुक्त होने वाले देवता साधनकर्त्ता की मानसिक सन्तान होते हैं। व्यक्ति अपनी श्रद्धा के अनुरूप एक देव प्रतिमा की कल्पना करता है, आस्था के आधार पर उसमें प्राण फूँकता है और तप साधना द्वारा उसमें सक्रियता उत्पन्न करता है। वरदान आशीर्वाद देने की चमत्कार दिखाने की हर देवता में उतनी ही शक्ति रहती है जितनी कि उस उपासक की आस्था और निष्ठा में परिपक्वता रहती है। एक ही देवता एक साधक के लिये प्रचण्ड शक्तिशाली सिद्ध होता है और वही दूसरे के लिये बिल्कुल निर्जीव बनकर रह जाता है। इस अंतर का एकमात्र कारण साधनकर्त्ता की मनः स्थिति ही है। इस तथ्य को अध्यात्म विद्या के महामनीषियों ने कभी छिपाया नहीं है उन्होंने बराबर कहा है- जिसकी जैसी भावना होगी उसे वैसी ही सिद्धि मिलेगी। इसी बात को यदि यों कहा जाने लगे कि श्रद्धालु की आस्था ही प्राणवान रहती है तो उसे यथार्थ का ही प्रतिपादन माना जाना चाहिए।

इस सचाई को वेदान्त दर्शन ने और भी स्पष्ट कर दिया है। देवाधिदेव परब्रह्म को अद्वैत तत्व विज्ञान ने आत्मदेव के रूप में देखा है। सोऽहम् शिवोऽहम् तत्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म जैसे सूत्रों में आत्मा और परमात्मा की अभिन्नता का प्रतिपादन किया गया है। जीव स्थिति तो तभी तक है जब तक मल आवरण, विक्षेप और कषाय कल्मष अन्तःकरण पर चढ़े हुए हैं। इन विकारों का शोधन हो जाने पर तो आत्मा निस्सन्देह परमात्मा ही है। तत्वदर्शी सदा से यही कहते रहते हैं कि ईश्वरीय समस्त महत्ताएं बीज रूप से जीव में विद्यमान हैं, यदि उन्हें विकसित किया जा सके तो नर में नारायण की झाँकी तत्काल देखी जा सकती है। साधन का एकमात्र प्रयोजन आत्म शोधन है। अपनी शारीरिक-मानसिक और भावनात्मक मलीनताओं को शुद्ध करने के लिए ही तपश्चर्या उपासना की जाती है। भौतिक विज्ञानी भी यही मानते हैं कि ब्रह्माण्ड की विशालता और परमाणु की लघुता में भारी अन्तर दीखते हुए भी मूलतः उनका क्रिया कलाप एक है। मानव शरीर में काम करने वाली परमाणु, जीवाणु परक सत्ता उन समस्त शक्तियों और हलचलों की प्रतिलिपि है जो इस विशाल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त हैं। काय कलेवर एक प्रकार से छोटा ब्रह्माण्ड ही है। यों वह नर कीटकों का घृणित घोंसला भर दीखता है पर यदि उसे व्यवस्थित और परिष्कृत बनाया जा सके तो शरीर भूलोक का-मन भुवः लोक का और अंतरात्मा का स्वः लोक का प्रतिनिधित्व करता प्रतीत होगा। तीनों लोकों की त्रिविध सम्पदाएं अपने भीतर सार रूप से कूट-कूट भरी हुई हैं। जीवन का प्रबलतम पुरुषार्थ उस अप्रकट का प्रकटीकरण करना ही है उसी को साधना तपस्या आदि के नाम से पुकारते हैं।

वेदान्त प्रतिपादित आत्म ब्रह्म के तत्व दर्शन को साधना शास्त्र में आत्मदेव के महात्म्य विस्तार एवं साधन विधान पर विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। शरीर और मन के किन-किन अंग प्रत्यंगों में कौन-कौन देवता, नदी, पर्वत, सागर, लोक, तत्व, तीर्थ शक्तिपीठ आदि विद्यमान हैं इसकी चर्चा भली प्रकार की गई है और बताया गया है कि जो बहिरंग में मौजूद है, अस्तु काय कलेवर को तुच्छ नहीं समझा जाना चाहिए वरन् उसमें श्रेष्ठतम सत्ता की झाँकी की जानी चाहिए। भौतिक संपदा का अहंकार तो हेय है पर आत्मदेव का गौरव हर किसी को अनुभव करना चाहिये और आत्मगौरव की रक्षा करने वाली- आत्मगरिमा को ज्योतिर्मय करने वाली रीति-नीति अपनानी चाहिए।

आत्मदेव की साधना, उपासना के विधि विधानों का अध्यात्म विज्ञान के अंतर्गत सुविस्तृत उल्लेख है। निराकार साधना में अपने कण-कण को नील वर्ण प्रभा ज्योति से ज्योतिर्मय देखने का अभ्यास किया जाता है। आकाश में आत्म सत्ता तनिक सी नील आभा लिये हुए सूर्य के समान प्रकाशवान है और उसकी दिव्य एवं प्रखर किरणें शरीर के रोम-रोम में प्रवेश करके, बलिष्ठता बढ़ा रही हैं- मन में प्रवेश करके मनस्विता को प्रखर कर रही हैं। अन्तरात्मा के भाव संस्थान (हृदय) में प्रवेश करके आत्मशक्ति को ज्वलन्त बना रही हैं। अपना सबकुछ ज्योतिर्मय हो रहा है। प्रकाश से सागर में जल मत्स्य की तरह स्वच्छन्द विचरण किया जा रहा है।

प्रकाश ध्यान का अभ्यास करने के लिये आरम्भ में आँख में दीपक की नील वर्ण शुभ्र ज्योति की स्थापना की जाति है और उस पर त्राटक की तरह पलक खोलते बन्द करते हुए ज्योति धारणा का अभ्यास किया जाता है। पीछे यह प्रकाश ध्यान बिना किसी दीपक आदि के स्वतः ही दृश्यमान होने लगता है। हलका नील वर्ण शान्ति एवं सात्विकता का प्रतीक है। राम, कृष्ण आदि भगवान के सभी अवतार नील कमल की आभा वाले शरीर धारण किये हुए हैं। दिव्यात्माओं का तेजोवलय भी ऐसा ही नीलिमा युक्त होता है। अस्तु आत्म देव की ज्योति अवतरण साधना नील झलक युक्त प्रकाश को ही ध्यान चेतना में प्रतिष्ठापित किया जाता है। दीपक पर त्राटक करते समय उन पर नील आवरण चढ़ा लेते हैं ताकि प्रत्यक्ष प्रकाश भी उसी आभा युक्त दिखाई पड़े।

साकार आत्म साधना में अपने शरीर का चित्र ही देव स्थान पर प्रतिष्ठापित किया जाता है। उसी का पूजन, वन्दन और साधन करते हैं। ताँत्रिक विधान के अनुसार ‘छाया पुरुष’ की सिद्धि में अपने ही सूक्ष्म शरीर की सत्ता को प्रखर बनाया जाता है और वह उस साधना क्रम के कारण इतनी सत्तावान हो जाती है कि एक सामर्थ्यवान् अदृश्य मित्र की तरह अभीष्ट सहायता करते रहने के लिये प्रस्तुत रहे। छाया पुरुष के द्वारा दूरवर्ती समाचार मालूम करना-वस्तुएं मँगाना-काम में सहायता करना जैसे प्रयोजन सिद्ध किये जाते हैं। विक्रमादित्य के पास पाँच वीर बेताल बताये जाते हैं, अलादीन के चिराग के साथ सहायक जिन्नों’ के सहयोग की किम्वदंती प्रचलित है। इस स्तर के कार्य छाया पुरुष कर सकता है। मनुष्य काया में अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञान मय कोश, आनन्दमय कोश, यह पाँच कोश आवरण हैं इन पाँचों को ही स्वतन्त्र चेतनाओं के रूप में विकसित किया जा सकता है। पाँच देव यही हैं। जो इन्हें जागृत कर सके वह पाँच सशक्त सहायकों की महत्वपूर्ण सहायता का लाभ निरन्तर उठाता रह सकता है। सभी प्रकारान्तर से छाया पुरुष ही कहे जायेंगे। यों सच बात तो यह है कि प्रत्येक वरदानी देवता अपनी स्वविनिर्मित मानस सन्तान ही है उसमें उतना ही बल रहता है जितना अपनी निष्ठा प्रखर होती है। श्रद्धा विश्वास की प्रतिक्रिया का नाम ही देव अनुकम्पा है। देव अनुग्रह से जो कुछ प्राप्त किया जाता है तत्वतः वह आत्म देवता का ही वरदान होता है। अपनी गरिमा से अपरिचित व्यक्ति को बहिरंग देवता की संरचना करके एक मनोवैज्ञानिक लाभ ही देव साधना द्वारा मिलता है। वस्तुतः उसे अपने लिये अपना अनुदान ही समझा जाना चाहिए।

साकार आत्म साधना के लिए दर्पण का उपयोग किया जाता है। बड़ा दर्पण सामने रखकर उसमें अपना आधा या सम्पूर्ण शरीर ध्यानपूर्वक देखते हैं और उसे परिष्कृत स्तर का देव मानकर उसका पञ्चोपचार पूजन, ध्यान, वन्दन, स्तवन करते हैं। साथ ही यह आस्था जमाते हैं कि इस कार्य कलेवर में निवास करने वाली ‘दिव्य ज्योति’ यदि आत्म भाव की भूमिका में जागृत हो उठे तो निश्चित रूप से देव सत्ता सम्पन्न हो सकती है। विश्व वन्द्य महामानवों की पंक्ति में बैठने का उसे अवसर मिल सकता है। मल आवरण विक्षेपों के कषाय कल्मषों से उसे मुक्ति मिलने ही वाली है, उसका परिष्कार परिशोधन अब सम्पन्न होने ही वाला है। यह देव अपने अवतरण का पुण्य प्रयोजन पूरा करके ही रहेगा। इस भावना के साथ की गई आत्म देव उपासना अपना दिव्य प्रभाव तत्काल ही दिखाना आरम्भ कर देती है। अपने काय कलेवर में परमेश्वर की सत्ता और महत्ता की अनुभूति जितनी गहरी होगी उतनी ही उत्कृष्ट रीति-नीति अपनाने की भावना उमड़ेगी। कहना न होगा कि अन्तःकरण में उत्कृष्टता का उभार ही नर को नारायण बनाया करता है।

इस तथ्य को हजार बार हृदयंगम किया जाना चाहिए कि तप साधना का उद्देश्य किसी देवता से मनमानी मुराद पूरी करने के लिए ठाना गया दुराग्रह नहीं वरन् आत्म शोधन और आत्म परिष्कार के लिए तितीक्षा द्वारा प्रचण्ड ऊर्जा उत्पन्न करना है। स्मरण रखा जाय महान उपलब्धियाँ कहीं बाहर से प्राप्त नहीं होती वरन् भीतर से ही उभरती हैं। कुत्साएं और कुण्ठाएं ही अन्तः वैभव को दबाये पड़ी रहती हैं, इन पत्थरों को हटाने के लिये जो साहसिक कदम उठाने पड़ते हैं उन्हीं का नाम योगाभ्यास, तपश्चर्या, व्रत, अनुष्ठान, साधन प्रक्रिया आदि हैं। इन क्रियाकलापों द्वारा जितना आत्म शोधन होता चले समझना चाहिए साधना उतनी ही सफल हो रही है। आत्म परिष्कार का ही दूसरा नाम देव अनुग्रह अथवा सिद्धि वैभव है। नर कीट को देव मानव में परिणत करने का सारा श्रेय इस आत्म सुधार प्रक्रिया को ही मिलना चाहिए। अध्यात्म क्षेत्र की समस्त सिद्धियाँ और विभूतियाँ उसी केंद्रबिंदु के ईद-गिर्द चक्कर काटती हैं।

याद रखना चाहिए कि कपड़े को रंगने से पूर्व उसका धोना आवश्यक है। जप, भजन आरम्भ करने से पूर्व स्नान की जरूरत पड़ती है। भोजन से पूर्व हाथ मुँह धोने का औचित्य है। घाव पर मरहम चढ़ाने से पूर्व उसकी सफाई करनी पड़ती है। साधना उपासना करने से पूर्व सबसे प्रथम कदम इस जन्म से बन पड़े पाप कर्मों का प्रायश्चित किया जाना चाहिए। यों कुविचार भी हानि कारक हैं और कालान्तर में वे भी परिपक्व होकर दुर्गति के कारण बनते हैं पर कुकर्म तो प्रत्यक्ष है, उनके तत्काल संस्कार बनते हैं और उनका ऐसा भला बुरा कर्मफल विनिर्मित होता है जिसे भुगते बिना और कोई मार्ग नहीं। कर्म की गति अति गहन है। श्रवण कुमार को तीन मारने के फलस्वरूप दशरथ को पुत्र विछोह का शाप लगा था और उन्हें राम वनवास के अवसर पर बिलख बिलखकर प्राण त्यागने पड़े थे। बालि को छिपकर बाण मारने का कर्मफल राम को कृष्णावतार के समय भुगतना पड़ा था और बालि ने बहेलिया बनकर कृष्ण के पैर में तीर मारकर उन्हें मृत्यु मुख में पहुँचाया था। जब भगवान भी कर्मफल से नहीं बच सकते तो दूसरों की बात ही क्या है। पुण्यात्मा पुरुषों को भी पूर्वकृत पापों के फलस्वरूप दुःसह दुख सहने के लिये बाध्य होना पड़ता है।

भारतीय धर्मशास्त्रों में इस जन्म के किये पापों का प्रायश्चित करने उनके दण्ड को कर्मफल बनने से पूर्व ही भुगत लेने का आदेश किया है। यह मान्यता शत प्रतिशत मिथ्या है कि नदी सरोवर स्नान, तीर्थ दर्शन, कथा कीर्तन जैसे छुट पुट कर्मकाण्डों से पाप फल से छुटकारा मिल सकता है। इन कृत्यों से भविष्य में दुष्कर्म न करने की प्रेरणा मिल सकती है इसी अर्थ से पाप से छुटकारा पाने का कुछ तुक है। इतने सस्ते में यदि दुष्कर्मों के दण्ड से बचा जा सकता तो फिर न पाप से डरने की जरूरत थी और न उसे छोड़ने की। जब इतनी आसानी से पाप फल निरस्त हो सकता है तो उसके कारण प्राप्त होने वाले भौतिक लाभों को कोई क्यों छोड़ेगा? यदि वस्तुतः ऐसा होता तो फिर भगवान की सारी न्याय व्यवस्था ही गड़बड़ा जाती। सृष्टि में पूरा अन्धेरा छा जाता है। अमुक मन्त्र, देवता, सम्प्रदाय, गुरु कर्मकाण्ड में कर्मकाण्ड को अपनाने वाला पाप दण्ड से बच सकता है इस तरह के प्रतिपादन जिन्होंने भी किये हैं उन्होंने ईश्वर की कठोर न्याय व्यवस्था के साथ निर्भय उपहास किया है। इस सस्ती झाँसेपट्टी की निरर्थकता को जितनी जल्दी समझ लिया जाय उतना ही अच्छा है। भ्रान्ति की सुखद कल्पना में उड़ते फिरने की अपेक्षा यथार्थ को जानकर प्रस्तुत आपत्ति से जूझने के लिये कटिबद्ध होने का उत्तरदायित्व वहन करना लाख गुणा श्रेयस्कर है।

पिछले जन्मों के पाप कर्म इस जन्म के लिये प्रारब्ध बन चुके, उन्हें भुगतने के लिए आवश्यक धैर्य, साहस और सन्तुलन एकत्रित करना चाहिए। विवेकवान् आपदाओं को हँसकर सहते हैं और अधीर अविवेकी रोते चिल्लाते उपहासास्पद बनते हैं। और सम्बन्धित लोगों को विक्षुब्ध करते हैं। अकाट्य प्रारब्धों को भुगतते हुए ऑपरेशन प्रक्रिया के साथ तुलना करनी चाहिए और सोचना चाहिए फोड़ा चीरकर मवाद निकल जाने से दुस्सह वेदना से छुटकारा मिल जायेगा। गीता की सन्तुलन शिक्षा ऐसे ही प्रसंगों पर काम आती है। ऐसी मनः स्थिति में विपत्ति का बोझ एक चौथाई ही रह जाता है स्पष्टतः तीन चौथाई विपत्ति तो अधीरता और भीरुताजन्य हड़बड़ी की ही होती है।

इस जन्म के पाप और पुण्यों का जमा खर्च बनता रहता है। अन्त में जो घटोत्तरी बढ़ोत्तरी होती है उस लेख-जोख के अनुसार भावी जीवन के लिए स्वर्ग नरक की-सुख दुख की प्रारब्ध व्यवस्था बनती है। वर्तमान जीवन में हर किसी को यह अवसर उपलब्ध है कि अब तक के ज्ञात पापों का स्मरण करके उनका प्रायश्चित कर लें। यह एक स्वविनिर्मित दण्ड व्यवस्था है। इसमें सदाशयता का गहरा पुट है और ईमानदारी की स्पष्ट झाँकी है। बिना पुलिस के पकड़े कोई अपराधी स्वयं न्यायाधीश के सामने उपस्थित हो अपने अपराधों का विवरण बताये और दण्ड की याचना करे तो निश्चय ही न्यायाधीश उससे प्रभावित हुए बिना न रहेगा और अपेक्षाकृत हलका दण्ड देगा। ठीक यही बात प्रायश्चित विधान में भी लागू होती है। विधि व्यवस्थानुसार जितना दण्ड मिलना चाहिए प्रायश्चित के लिए साहस करने पर उससे कहीं कम में वह संकट निपट जाता है।

पाप कर्मों का फल नारकीय दुख दण्ड तक ही सीमित रहता हो केवल इतना ही नहीं वरन् उनके कारण उससे बड़ा व्यवधान अन्तःकरण की सत्प्रवृत्तियों की दिशा में उत्पन्न होता है। कुकर्म के फलस्वरूप कुसंस्कार बन जाते हैं और वे सत्मार्ग पर चलने के प्रयास में हजार प्रकार से रोड़े अटकाते हैं। कुकर्म और उसके फलस्वरूप नारकीय यातना के दो सिरों के बीच की कड़ी यह कुसंस्कार ही हैं। वे ही अपने आप समयानुसार दैवी कोप की तरह सामने आ खड़े होते हैं। यह कुसंस्कार ही जप ध्यान के समय मन में उच्चाटन उत्पन्न करते हैं और एकाग्रता नहीं जमने देते। श्रद्धा विश्वास की जड़े उन्हीं के कारण जमने नहीं पातीं। तप साधना के अवसर पर अनेक प्रकार के विघ्न बनकर वे ही बाधक बनते हैं। सन्मार्ग पर चलने की उत्कट इच्छा होते हुए भी उस आकाँक्षा को सफल न होने देने वाली परिस्थितियों के पीछे इन्हीं कुसंस्कारों का हाथ रहता है। अश्रद्धा और अरुचि के रूप में साधना को वे ही असफल बनाने वाले प्रधान कारण बने रहते हैं। जिस प्रकार गलित कुष्ठ का रोगी बहुमूल्य औषधियाँ खाने पर भी मुक्त नहीं हो पाता उसी प्रकार संचित पाप कर्मों के फलस्वरूप उत्पन्न हुए कुसंस्कार साधना की सफलता में प्रधान बाधा बनकर खड़े रहते हैं। अस्तु आत्मिक प्रगति के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए सच्चे मन से तत्पर मनुष्य को प्रथम चरण इस जन्म के पाप कर्मों का परिशोधन करने वाले प्रायश्चित के रूप में उठाना पड़ता है।

प्रायश्चित्य की प्रक्रिया इस प्रकार सम्पन्न होती है (1) इस जन्म में अब तक बने पड़े पाप कर्मों की सूची बनाना। उसके लिए दुख मनाना। भविष्य में उनकी पुनरावृत्ति न करने की प्रतिज्ञा करना (2) किसी ऐसे उदात्त और विश्वस्त व्यक्ति के सामने अपने पाप कर्मों का विस्तृत वर्णन करना और प्रायश्चित्य विधान के लिए परामर्श लेना। (3) इसी प्रयोजन के लिए शास्त्रानुमोदित व्रत, तप, तितीक्षा, मौन, एकान्त सेवन, आदि शारीरिक मानसिक कष्टों के दण्ड उपचार सम्पन्न करना (4) पाप कर्मों द्वारा व्यक्तियों की या समाज की जो हानि की हैं उनकी क्षतिपूर्ति के लिए शारीरिक मानसिक, आर्थिक अनुदान समाज को सुखी बनाने के लिए प्रस्तुत करना। (5) अपने अनाचार से जिन लोगों को कष्ट सहना पड़ा उनसे सच्चे मन से क्षमा याचना करना। यह पाँचों ही प्रक्रिया जुड़कर एक प्रायश्चित्य विधान बनता है। किसी कर्म का कोई निश्चित दण्ड निर्धारित नहीं है। किस स्थिति में पाप किया गया और उसके फलस्वरूप किसकी किस तरह की हानि हुई इसकी गहराई को समझकर ही पाप का मूल्यांकन किया जायेगा और उसी के आधार पर दण्ड निर्धारण होगा। इसलिए उसका निर्णय कोई तत्वदर्शी ही कर सकता है। अस्तु इस संदर्भ में किसी सूक्ष्मदर्शी तत्ववेत्ता का ही परामर्श लेना चाहिए। किये हुए कुकर्मों की सूची बनाना, उन पर दुख प्रकट करना और भविष्य में उन्हें न दुहराने का संकल्प बिना किसी दूसरे की सहायता के एकाकी भी किया जा सकता है। इसके बाद दूसरी प्रक्रिया के लिए किसी की सहायता की जरूरत पड़ती है। इसके लिए अत्यन्त प्रामाणिक और उदात्त प्रकृति का व्यक्ति ही होना चाहिए। आज लोगों का स्तर इतना घटिया हो गया है वे दूसरों की दुर्बलताएं जानने पर उससे घृणा किये बिना नहीं रह सकते। उसे पचा भी नहीं सकते। अनुपयुक्त व्यक्तियों में उसकी चर्चा हर दृष्टि से अहितकर है। यदि व्यभिचार का रहस्योद्घाटन किया जाय तो अपनी तो सफाई हो सकती है पर जो दूसरा साथ में था उसका सम्मान समाप्त होता है, यह उसके साथ में एक प्रकार का विश्वासघात है। प्रायश्चित्य के सिलसिले में यदि किसी लड़की को बदनाम कर दिया जाय तो उसके जीवन स्तर का सत्यानाश ही होता है और यह उसकी हत्या कर डालने से बढ़कर पाप है। अस्तु अपना मन हलका करने के लिए-अनाचार की ग्रन्थि खोलने के लिए जहाँ किसी विश्वस्त व्यक्ति के सामने अपने पाप कर्मों का संक्षिप्त नहीं सविस्तार वर्णन करना आवश्यक है वहाँ यह भली प्रकार परख लिया जाना चाहिए कि रहस्य जिसके आगे खोले जायँ वह उतना उदार हो कि घृणा के स्थान पर सदाशयता का आत्मीयता का मूल्य समझे और पूर्व की अपेक्षा भी अधिक सम्मान का भाव बनाये रह सके। केवल कह देना ही पर्याप्त नहीं वरन् उसके लिए दण्ड विधान की प्रायश्चित्य प्रक्रिया भी उसी के द्वारा बताई जानी है अतएव उसका सूक्ष्म दर्शी और शास्त्र मर्मज्ञ भी होना आवश्यक है।

तीसरा चरण कुछ काल तक शारीरिक मानसिक तप तितीक्षा की कष्ट साधना एवं असुविधाएं स्वीकार करना है। इस संदर्भ में शास्त्रकारों ने चान्द्रायण, कृच्छ चान्द्रायण, महाव्रत, शिर मुण्डन, सप्तासि व्रत, तप्तयान गव्योच्छेदन, शान्तापन, महाशान्तापन, कष्ट मौन, महा मौन, उर्ध्ववाहु, अधोपाद, रात्रि जागरण, परिभ्रमण आदि कितनी ही कष्ट साध्य तप तितीक्षाओं का उल्लेख किया है और विधि विधान बताया है। बाल, वृद्ध, रुग्ण एवं गर्भ धारण जैसी विशेष परिस्थितियों में उपरोक्त दण्ड विधानों की कठोरता को सरल बनाने के भी अपवाद रखे गये हैं। इनका विस्तृत विवेचन प्रायश्चित्य परक ग्रन्थों में बताया गया है। इन तपश्चर्याओं का आधार यह है कि व्यक्ति शारीरिक और मानसिक कष्ट सहकर वैसी ही दण्ड प्रताड़ना का अनुभव करे जैसी अपराधियों को न्यायालयों द्वारा दी जाती है। कारागार यातना सहकर जब बन्दी निकलते हैं तो समझा जाता है कि जो कुकृत्य उन्होंने किये थे उनका दण्ड भुगत लिया गया। धर्मानुमोदित प्रायश्चित्य करने वाले को भी अपने का उस प्रक्रिया में होकर गुजरा हुआ अनुभव करने का अधिकार है। निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह यदि धर्माधिकारी ने उचित तितीक्षा बताई है तो उससे भी न्याय का प्रयोजन पूरा हो जाता है। अपराधी और न्यायाधीश गुप्त संधि करके यदि दण्ड हलका कर लेते हैं तो उसमें अपराधी से अधिक दोषी न्यायाधीश होता है। इसी प्रकार प्रायश्चित्य को यदि अति सरल बनाया गया है तो उसका भार उस निर्धारणकर्त्ता पर पड़ेगा, जो प्रकारान्तर से उसे ही भुगतना पड़ेगा।

पाप कर्मों में व्यक्ति को या समाज को आर्थिक अथवा शारीरिक, मानसिक, नैतिक क्षति पहुँचाई गई होती है। इस अनाचार उत्पादन की खोदी हुई खाई को पाटना प्रजापति ने आजीवन उद्यान लगाते रहने का आदेश किया था। चोरी करके धनवान बने लोगों को उचित है कि उस पाप भार में से धन का अधिक भाग लोक मंगल के लिए वापिस कर दें। धन गबन करने वालों पर भारी रकम जुर्माने की की जाती है ताकि उनने जो कमाया है उसे वापिस लिया जा सके। अपने पाप पर सच्चे मन में शर्माने वाले के लिये यही उचित है कि उस अनीति उपार्जित सम्पदा को पूरे या अधूरे रूप में वापिस करे। प्रायश्चित्यों में तरह-तरह के दान विधानों का नियोजन इसी दृष्टि से हुआ है।

जिस व्यक्ति को क्षति पहुँचाई गई थी हो सकता है, स्वर्गवासी हो चुका हो, ऐसी दशा में उसे आर्थिक वापिसी नहीं की जा सकती और न जो शारीरिक, मानसिक आघात लगाये थे उनकी भरपाई हो सकती है। कई बार जीवित होने पर भी वैसा किया जा सकना सम्भव नहीं जैसे किसी लड़की को फुसलाकर उसका सतीत्व नष्ट किया गया था अब उसका कौमार्य कैसे वापिस किया जाय। यदि उसे कुछ मुआवज़ा दिया जाय तो उसकी बदनामी होने से और भी भारी विपत्ति उस पर आवेगी और यह पहले से भी बड़ा अपराध हो जायेगा। कोई व्यक्ति जब गरीब था तब उसकी पुरानी चप्पलें चुराई गई थीं अब वह गरीब अमीर है यदि उसकी पुरानी चप्पलें वापिस की जायँ तो वह उसे अपना अपमान समझेगा और उस प्रायश्चित्य पर और भी अधिक क्रुद्ध होगा। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए ऋषियों ने यह सिद्धान्त रखा है कि समस्त समाज को एक अंग माना जाय और उसके एक अंग या अनेकों अंगों को पहुँचाई हुई क्षति समाज, मानव समाज की क्षति मानी जाय। प्रायश्चित्य के लिए वह वापिसी ब्याज सहित, बिना ब्याज के अथवा आधी अधूरी जितनी भी सम्भव हो सके वापिस करनी चाहिए। खोदी गई खाई को पाटने का यही तरीका है। समाज में सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ाने के किसी उपयोगी प्रयोजन के लिये यदि अपना समय, श्रम, एवं साधन अर्पित किये जाते हैं तो उससे पाप कर्मों की क्षतिपूर्ति हो सकती है। यह प्रायश्चित्य का चौथा वर्ग है।

पाँचवाँ वर्ग यह है कि भावना के बदले भावना को प्रस्तुत किया जाय। अनाचार पीड़ित व्यक्ति को निस्सन्देह क्रोध, रोष उपजा होगा। संभव है उसने विलाप क्रन्दन किया हो। उत्पीड़न का अभिशाप अंतरिक्ष में घुमड़ता है और क्रुद्ध सर्प की तरह अवसर पाते ही काटता है। प्रायश्चित्य कर्ता को उसकी घायल मनः स्थिति का अनुमान लगाना चाहिए और अपने मन में उसके लिये उतनी संवेदना सहानुभूति उपजानी चाहिए जो अन्तरिक्ष में घुमड़कर उसे शान्ति प्रदान कर सके। भूल से अथवा आवेश में यदि अपने ही अति निकटवर्ती कुटुम्बी को कोई भारी आघात पहुँचा दिया जाय तो उस गलती के लिए भारी आत्मग्लानि उठती है-आहत के प्रति संवेदना का उफान उमड़ता है और अन्तः करण का रोम-रोम उससे क्षमा माँगता है; तथा बदले में बड़ी से बड़ी क्षतिपूर्ति करने का भाव रहता है। यही मनः स्थिति यदि अपराधकर्ता अपने भीतर उदय कर सके और वह भी मात्र कल्पना बनकर न रह जाय वरन् इतनी सक्रिय हो उठे कि पश्चाताप के आँसू बनकर उस क्रूर निष्ठुरता को दुष्ट असुरता को अश्रुबिन्दुओं के साथ बहा दे।

कहावत है कि जो अपनी सहायता आप करता है उसी की सहायता ईश्वर भी करता है। सरकार केवल प्रतिभा बनाने को छात्रवृत्ति देती है। स्वयंवर में गुणवान और रूपवान युवकों के गले ही जयमाला पड़ती है। बादल की वर्षा का अधिक अनुदान गहरे सरोवरों को मिलता है। स्वाति की बूंदें उन्हीं सीपियों में मोती बनाती है जिनका मुँह तो अमृत वर्षा का भी लाभ नहीं ले सकता मधुमक्खियाँ, भ्रमर, तितलियाँ केवल खिले हुए फूलों के इर्द-गिर्द मँडराती हैं। किसी के सामने गिड़गिड़ाने से काम नहीं चलता। दुर्बल का तो दैव भी भी घातक होता है। दीनता प्रदर्शित करके कुछ बड़ी उपलब्धि नहीं मिल सकती। कुत्ता पूँछ हिलाने और पैर चाटने पर भी जूठन के टुकड़े पाता है पर स्वाभिमानी हाथी की सशक्तता उसके लिए उचित भोजन अपने स्थान पर मँगा लेती है, भौतिक और आत्मिक प्रगति के लिये हमें किसी के सामने गिड़गिड़ाने नाक रगड़ने की आवश्यकता नहीं यहाँ तक कि देवता और ईश्वर के सामने भी नहीं। हम अपना सारा ध्यान प्रसुप्त आत्म गरिमा को सजग एवं बलिष्ठ बनाने में लगायें तो सहज ही वह चुम्बकत्व प्रबल होगा जिसके आकर्षण से अभीष्ट सिद्धियाँ, सफलताएं अनायास ही खिंचती हुईं अपने पास चली आवेंगी।

बहिर्मुखी प्रवृत्तियों का प्रवाह सहज ही तिनके जैसे हलके स्तर के लोगों को बहा ले जाता है। मृगमरीचिका में भटकते हुये अज्ञानी ही मरते खपते हैं। कस्तूरी की गन्ध के लिये लालायित अशान्त मूढ़ मृग ही दिशाओं में मारा-मारा फिरता है। यदि उसे पता हो कि कस्तूरी अपनी ही नाभि में है और उस सुगन्ध का लाभ आत्माभिमुख होने पर सहज ही मिल सकता है; वासना और तृष्णा को मृग तृष्णा मात्र समझ लिया जाय तो शक्ति के अपव्यय को रोककर जलाशय की यथार्थ खोज संभव हो सकती है। इस तथ्य को गीताकार ने अत्यंत स्पष्ट कर दिया है “उद्धरेदात्मनात्मानं” अपना उद्धार आप करो। अपनी प्रगति का पथ स्वयं प्रशस्त करो। जो माँगना है अपने आप से माँगो। क्योंकि जो कुछ बाहर रुचिर, मृदुल, सुखद दीखता है उसका उद्गम केन्द्र अपने ही अन्तरंग में विद्यमान है। आत्मदेव की साधना ही अध्यात्म तत्व ज्ञान का केन्द्र बिन्दु है। जिस प्रकार भौतिक सुखों को अज्ञानवश बाहर खोजा जाता है उसी प्रकार आत्मिक विभूतियों के लिए मूढ़ मति हमें वाह्य जगत के देवताओं, गुरुओं, तीर्थों, कर्मकाण्डों में भटकाती है। यदि हम अपनी बहिर्मुखी प्रवृत्ति को अंतर्मुखी बना लें- देवाधि देव आत्म देव की साधना के लिए तत्पर हों तो वह सब कुछ निश्चित रूप से मिल सकता है जिसकी शान्ति और प्रगति के लिए आनन्द और उल्लास के लिए वास्तविक आवश्यकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118