गहन अन्त चेतना को प्रभावित करने की आवश्यकता

October 1972

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को तर्क, प्रमाण विचार, परामर्श आदि देकर प्रभावित कर सकता है इसकी जानकारी सभी को है। अध्यापक अपने छात्रों के मस्तिष्क को विकसित करते हैं, पहलवान अपने शागिर्दों को कुश्ती, कसरत सिखाकर बलवान बनाते हैं। वक्ता, लेखक विचारों से हलचल उत्पन्न करके लोगों के सोचने के तरीके में परिवर्तन करते हैं। नर-नारी के बीच शारीरिक आकर्षण भी काम करता है और प्रतिभाशाली व्यक्ति अपने रौब-दौब, आतंक का भी उपयोग करते हैं।

उपरोक्त प्रभाव प्रक्रिया का स्तर उथला ही रहता है। अध्यापक गणित, इतिहास, भाषा, भूगोल आदि की जानकारी करा देने पर अपने कर्त्तव्य से छुट्टी पा लेते हैं। वे चिन्तन की शैली, आकाँक्षा और दिशा नहीं बदल सकते हैं। अखाड़े के पहलवान शागिर्दों की माँस-पेशियाँ मजबूत कर सकते हैं उनमें मनोबल उत्पन्न नहीं कर सकते। अखाड़े में जाकर कोई संयमी, सदाचारी, मनस्वी साहसी बन जाय यह आवश्यक नहीं, क्योंकि पहलवानी की शिक्षा उथले स्तर पर ही समाप्त हो जाती है वह अन्तरंग की गहराई में नहीं उतरती है।

इसी प्रकार लेखक, वक्ता, नेता, प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति अपनी तेजस्विता के सम्मोहन से तत्काल तो कुछ भी सोचने करने को आवेश उत्पन्न कर सकते हैं पर वह क्षणिक होता है और उथला रहता है। वह नशा उतरते ही लोग अपने पुराने ढर्रे पर आ जाते हैं और वह कृत्रिम उत्साह अपनी क्षणिक चमक दिखाकर तिरोहित हो जाता है। कारण स्पष्ट है, जो शिक्षण दिया गया था वह अन्तः करण की गहराई तक प्रवेश न कर सका; केवल उथले बौद्धिक स्तर तक टकराकर बिखर गया। उस टकराहट की प्रतिक्रिया जितनी देर रह सकती थी उतनी देर रही और इसके बाद व्यक्ति की वही संस्कार गत स्थिति आ गई।

मनुष्य का समग्र व्यक्तित्व विकसित एवं परिवर्तित करने से ही उसकी गरिमा और महत्ता बढ़ सकती है। महामानव ही इस विश्व की सच्ची सम्पत्ति होते हैं। कोई देश और समाज उन्हीं के कारण गौरवशाली बनते हैं और उन्हीं के अभाव में पतन के गर्त में गिरते चले जाते हैं। राष्ट्रीय सम्पदा का मूल्याँकन, धन के आधार पर नहीं मनस्वी, तेजस्वी और आत्म बल सम्पन्न प्रतिभा के आधार पर ही किया जाना चाहिए। वे यदि उद्भूत नहीं तो विपुल सम्पदा सम्पन्न होते हुए भी कोई समाज दरिद्र ही रहेगा। उसकी वह आर्थिक उन्नति भी ठोस प्रगति की दिशा में कुछ अधिक सहायता न कर सकेगी।

यह उच्चस्तरीय व्यक्तियों का निर्माण कैसे हो? इसके लिए उसी स्तर के साँचे चाहिए। टकसाल के साँचे जैसे होते हैं वैसे ही सिक्के ढलते चलते जाते हैं। बुद्ध के अनुगामी ढाई लाख व्यक्तियों ने संसार भर में सत्य अहिंसा का संदेश पहुँचाया था। गान्धी के अनुचर स्वतंत्रता संग्राम में एक से एक बढ़े अनुदान लेकर आगे आये। यह प्रेरणाएँ बौद्धिक आधार पर नहीं-भावना स्तर पर दी जाती हैं और इसके देने के लिए वैसा ही आत्म शक्ति सम्पन्न व्यक्तित्व चाहिये। आज आवश्यकता ऐसी ही हस्तियों की है जो अपने आत्मबल से जन साधारण के भावस्तर को विकसित और परिष्कृत कर सकें। विज्ञान इस संभावना को स्वीकार करता है कि अदृश्य शक्ति प्रवाह के द्वारा भी मानवीय चेतना को अभीष्ट दिशा में मोड़ा या ढाला जा सकता है।

मानव मस्तिष्क की अन्तस्त्वचिका के भीतर एक विशेष प्रकार की तंत्रिकाएं पाई जाती हैं उनका समूह भावात्मक मस्तिष्क कहलाता है। भय, क्रोध, शोक, चिन्ता, अवसाद, हर्ष, संतोष, प्रेम, त्याग, संयम और कामोद्वेग जैसी प्रवृत्तियां इसी भाग से संबंधित हैं। इसका स्वरूप बहुत कुछ वंश परम्परा से उत्तराधिकार में मिला था, कुछ वातावरण एवं संगति में और कुछ व्यक्तिगत चिन्तन की दिशा के आधार पर विकसित होता है। अविकसित और विकसित प्राणियों का यों मानसिक अन्तर कुछ तो बुद्धि के आधार पर भी होता है पर मुख्य अन्तर यह भावात्मक ही है। भावनाओं के आवेश में ही मस्तिष्क उत्तेजित होता है और मस्तिष्क सक्रिय होता है। इन दोनों की बिखरी हुई दिशाओं को एक केन्द्र पर एकत्रित करने और क्रियाशील बनाने का श्रेय इस भावात्मक मस्तिष्क केन्द्र को ही है।

येल विश्वविद्यालय के न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. जोसे डैलगेडों ने ऐसे विधुदग्र रेडियो उपकरणों का आविष्कार किया है जिनके आधार पर बिना शल्य चिकित्सा के ही रेडियो किरणों द्वारा मस्तिष्क के किसी भाग से संपर्क बनाना और उसे प्रभावित कर सकना संभव हो सके। भावनात्मक मस्तिष्क की तंत्रिकाओं और कोशिकाओं को उन्हीं शरीर के आर-पार जा सकने वाली किरणों के द्वारा वहाँ के असंतुलन को मिलाया जा सकेगा। विशेष प्रकार का भावावेश उत्पन्न किया जा सकेगा। यह किरणें ‘क्ष’ किरणों से मिलती जुलती हैं जिन्हें शरीर के आरपार जाने में मस्तिष्क की कठोर खोपड़ी में भी कोई बड़ी बाधा नहीं पहुँचती।

अब तक भावनाओं का समाधान भावनाओं से ही किया जाता रहा है। क्रोध को विनय से, घृणा को प्रेम से, असंतोष को उपलब्धियों से शमन किया जाता रहा है। इसके लिये सामने वाले व्यक्ति को वैसा विश्वास दिलाकर उसे उद्वेग का समाधान करना पड़ता था जिसके अभाव में उसे असंतुलित होना पड़ा। इतनी लम्बी प्रक्रिया के बाद तब कहीं उत्तेजित व्यक्ति सामान्य स्थिति में आता था। उसके समाधान के लिए व्यक्ति विशेष को माध्यम बनाकर अथवा वातावरण को बदल कर मनोविकार ग्रस्त मनुष्य की शान्ति संभव की जाती थी। उचित ही नहीं अनुचित समाधान भी प्रस्तुत करने पड़ते थे। पर अब उपरोक्त वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण यह कठिन प्रक्रिया सरल हो गई। रेडियो विद्युत धाराएँ आवेश ग्रस्त मस्तिष्कीय खण्ड का शमन कर दिया करेंगी और मनुष्य चिकित्सक के इशारे पर अपने भाव संस्थान में आवश्यक परिवर्तन कर लिया करेगा। इस सफलता के कारण न केवल भावनात्मक रुग्ण ग्रन्थियों को खोला जा सकेगा वरन् उपयोगी ऐसे भाव बीज भी जमाये जा सकेंगे जो उसे किसी दिशा विशेष में चलने के लिये आवश्यक रुचि एवं स्फूर्ति पैदा कर सकें।

मानवीय मस्तिष्क पर इलेक्ट्रॉनिक नियमन की इस प्रक्रिया पर विज्ञान के क्षेत्र में शोध कार्य बहुत तेजी से चल रहा है और काफी प्रगति भी हुई है। दो दशक पूर्व स्विट्जरलैंड के विज्ञानी डॉ. डब्ल्यू. आर. हेस ने इस दिशा में प्रयास आरम्भ किया था उन्होंने जीवित प्राणी के मस्तिष्क में एक सुई घुसेड़ कर उसके माध्यम से विविध स्तरों की विद्युत तरंगें पहुँचाई थीं और उनके प्रभाव का अध्ययन किया था। उन्होंने पाया कि चेतन और अचेतन मस्तिष्क भागों में विभिन्न स्तर के जो चेतन केन्द्र बने हुए हैं उनसे संबन्ध स्थापित किया जा सकता है और उन केन्द्रों को उत्तेजित करके उसी स्तर की विचारणा से प्राणी को ओत प्रोत किया जा सकता है।

इसके बाद अमरीकी मस्तिष्क विद्या विशारद डॉ. जेम्स ओल्डस् ने इस कार्य को ओर आगे बढ़ाया। उन्होंने मानवी मस्तिष्क को हाथ में लिया जब कि पूर्ववत् स्विस विज्ञानी वैसे प्रयोग अन्य प्राणियों पर करते रहे। भूख, भय, इच्छा, कामुकता, क्रोध, पीड़ा, निराशा, उत्साह जैसे मस्तिष्क क्षेत्र तो पहले भी मालूम थे पर उनके केन्द्रीय कण उन्होंने ढूंढ़े और इस खोज के बाद उन्होंने वह पद्धति खोजी जिसके अनुसार उस केन्द्र तक बाह्य प्रभाव को पहुँचाया जा सकना संभव हो सके। इसमें सबसे बड़ी बाधा खोपड़ी को चारों और से जकड़ी हुई कपाल अस्थियों की थी। यह अस्थियाँ सिर की केवल सर्दी गर्मी चोट आघात आदि से ही रक्षा नहीं करती वरन् बाहरी विद्युत प्रभावों को भी भीतर जाने से रोकती हैं। विचारों की बिजली अति सूक्ष्म होने से भीतर प्रवेश कर सकती है। एक संकल्प शील व्यक्ति के विचार दूसरे व्यक्ति पर आरोपित करने का सफल प्रयोग तो जर्मनी के डॉ. शेक्सर पहले ही कर चुके थे। मैस्मरेजम हिप्नोटिज्म आविष्कारों ने उनमें इसी तथ्य को प्रत्यक्ष किया था, पर यह तो प्रश्न विचार तरंगों की नहीं- विद्युत तरंगों के प्रवेश का था इसमें कपाल अस्थियाँ प्रधान रूप से अवरोध उत्पन्न कर रही थीं। इसलिए उन्होंने चोर रास्ते से प्रवेश किया, रेडियो प्रभावित रसायनों को रक्त में मिलाकर और उस प्रभावित रक्त में विद्युत तरंगें पहुँचाकर नया रास्ता खोज लिया गया और अमुक केन्द्र को उत्तेजित करने के लिए अमुक स्तर की विद्युत का प्रयोग करने की पद्धति का निर्धारण कर लिया गया।

यह प्रयत्न और भी अधिक तेज कर दिये गये हैं और वह सरलता खोजी जा रही है जिससे जिसे प्रभावित करना हो उसके सहयोग की आवश्यकता न रहे। अभी तो यह कार्य तभी हो सकता है जब व्यक्ति पर लोह पट्टी बँधवाने और औषधालय सेवन के लिए सहायता हो। बाँधकर बलात्कार पूर्वक तो यह किया नहीं जा सकता। यदि व्यक्ति अपने ऊपर इस प्रकार का प्रभाव डलवाने के लिए सहमत न हो तब तो सारी योजना ही निरस्त्र हो जायेगी। अस्तु शोध के चरण इस दिशा में चल रहे हैं कि मनुष्य को पता भी न चले और परोक्ष रूप से उसे बौद्धिक पराधीनता के पास से मजबूती से जकड़ा जा सके। अभी तो मछली पकड़ने के लिए काँटा फेंकने वालों की सफलता मछली की इच्छा पर निर्भर रहती है।

ये वैज्ञानिक मछुए यह प्रयत्न कर रहे हैं कि काँटा डालने की जरूरत ही न पड़े मछली का सहयोग अपेक्षित ही न रहे वरन् उनमें ऐसी प्रेरणा उत्पन्न की जाय कि ये जाल में आने के लिए खुद ही दौड़ती चली आयें। मानवी मछलियों को फाँसने के लिये यह शोध प्रयास इसी स्तर का है। प्रकृति की शक्तियों को वशवर्ती करने में बहुत बड़ी मात्रा में सफलता प्राप्त कर लेने के बाद अब चेतना की स्वतंत्रता को विज्ञान मुट्ठी में कैद करने के लिये अन्वेषण गतिविधियाँ तीव्र कर दी गईं हैं और विज्ञान क्षेत्र में समुन्नत देश गुप चुप इस दौड़ में परस्पर बाजी मारने के लिये खुले हुये हैं। अन्तरिक्ष पर नियन्त्रण करने से भी भी बढ़कर यह आविष्कार होगा।

इस दिशा में संतोषजनक सफलता मिलती है तो फिर युद्ध का सब से बड़ा माध्यम यही होगा, एक अणु बम, हाइड्रोजन बम जैसे अस्त्र को बेकार समझ कर त्याग दिया जायेगा क्योंकि उससे शत्रु देश के विनाश के साथ-साथ विश्वव्यापी वातावरण के विकरण उत्पन्न होने से मित्र देशों को भी खतरा उपस्थित होता है। फिर उसमें कई तरह के खतरे और झंझट भी हैं। खर्चीली तो वह प्रक्रिया है ही उसकी सुरक्षा के लिये भी कम चिन्ता नहीं करनी पड़ती।

प्रगति जिस चरण में पहुँची है उसे देखते हुए मिशिगन विश्वविद्यालय अमेरिका के इस संदर्भ में संलग्न विज्ञानी डॉ. ओटो शिमल ने घोषणा की है अब हमारे हाथ में मानव मस्तिष्क को नियन्त्रित करने की शक्ति आ गई, पर आशा की जानी चाहिए कि उसका प्रयोग केवल अच्छाई के लिये ही होगा; किन्तु साथ ही इस खतरे को भी ध्यान में रखना होगा कि इस नव उपार्जित शक्ति का प्रयोग निजी महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति एवं राष्ट्रीय विस्तार वाद के लिये भी किया जा सकता है। यदि ऐसा किया गया तो यह आविष्कार संसार का सबसे अधिक विघातक अस्त्र सिद्ध होगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles