सत्य के लिए क्रूरता का सामना

August 1970

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सत्य के लिए क्रूरता का सामना-

बगदाद के सन्त हंबल बन्दी बने, खलीफा के न्यायालय में खड़े थे। उनका मन बार-बार शासन की क्रूरता के प्रति सोच रहा था। वह बड़े असमंजस में थे, तभी द्वार पर पहरा देने वाले सिपाही ने आकर उनके कान में कहा-’हजरत! आज सच्ची वीरता दिखाने का दिन है और आप असमंजस में पड़े हुए हैं। मुझे आश्चर्य है कि आप पर कुरान का अपमान करने का आरोप लगाया गया है, जबकि आपने सारा जीवन कुरान की शिक्षाओं पर चलने में लगा दिया है! ऐसे महापुरुष की तो पूजा होनी चाहिए थी, जबकि उसके विपरीत कैदी बनाकर उपस्थित किया गया है। एक बार मैंने चोरी की, तो खलीफा ने एक हजार कोड़े की सजा सुनाई थी। सचमुच मैं चोर था, मुझे अपना अपराध स्वीकार कर लेना चाहिये था, पर मैं अपनी जिद पर डटा रहा और हजार कोड़ों की मार सह कर भी उस चोरी का रहस्य न खुलने दिया। आखिरकार मुझे छोड़ दिया गया। जब मैं झूठ के लिये अपने कलेजे को इतना मजबूत कर सकता था, तो फिर आप सत्य बात के लिये इतने भयभीत क्यों होते हैं?’

सन्त के मन पर छाया भय का भूत जाने कहाँ चला गया। उन्हें अन्धकार में प्रकाश की एक किरण दिखाई देने लगी। वे बोले-’सचमुच तुम ठीक ही कहते हो। तुमने समय पर मुझे जगा दिया, इसके लिये सदैव तुम्हारा आभारी रहूँगा।’ और दूसरे ही क्षण सन्त ने खलीफा के न्यायालय में धर्मांधों के रोष का बहादुरी के साथ सामना करने के लिये करने अपने को समर्थ पाया।

दूसरे दिन खलीफा द्वारा पूछे गये सारे प्रश्नों का सन्त ने सही-सही उत्तर दे दिया। वह पहले ही सोच चुके थे कि अधिक-से-अधिक मृत्यु-दण्ड ही तो दिया जा सकता है। खलीफा ने हजार बेंत लगाने का आदेश सुना दिया। उनका शाँत चेहरा जैसा था, वैसा ही बना रहा। न्यायालय के बाहर खड़े सैंकड़ों व्यक्ति तरह-तरह की बातें कर रहे थे। नौकरों द्वारा कोड़े बरसाये जाने लगे। सन्त का शरीर चोट खाकर बेहोश हो गया। वह सत्य के लिये मरते दम तक शासन की क्रूरता को सहन करते रहे, पर उस चोर सिपाही के वचन को न भूले।


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