अपना परिवार और उसका भावी संगठन

August 1970

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समुद्र मन्थन की तरह जीवन की लंबी अवधि में हम लोक मानस में उत्कृष्टता और आदर्शवादिता के लिये आस्था और हिम्मत उत्पन्न करने का प्रयास करते रहे हैं। संपर्क में जो भी आया-जिस प्रयोजन से भी आया-उसे यही प्रकाश और प्रेरणा देते रहे हैं कि विचारणा और कार्य पद्धति केवल पेट और प्रजनन के लिये ही सीमित न रहने दी जाय। मनुष्य का कलेवर मिला है तो मनुष्यता के उत्तरदायित्व भी वहन किये जायें। चरित्रवान् बनकर ऐसा जीवन जिया जाय जिससे दूसरों को प्रकाश मिले और अनुकरण के लिये प्रस्तुत हो सकने वाले व्यक्ति महामानवों की रीति-नीति अपना सकें।

हमने अपने साथ किसी भी कारण संबंध बनाने वाले हर किसी को यही कहा है कि प्रगति की दौड़ में समाज बहुत पिछड़ गया। यदि पिछड़ापन दूर न किया गया तो इस घुड़ दौड़ के युग में हम इतने पीछे रह जायेंगे कि फिर सभ्य और सम्पन्न देशों की पंक्ति में खड़े हो सकना संभव ही न रहेगा। आज की आवश्यकता यह है कि हममें से प्रत्येक भारतीय कम से कम कुछ दशाब्दियों के लिये व्यक्तिगत तृष्णा वासना को एक ओर रख कर हर क्षेत्र में संव्याप्त पिछड़ेपन और अविवेक को दूर करने के लिये आपत्ति धर्म की तरह सर्वतोभावेन जुट जाये। समय की यही माँग है, कर्तव्य की यही पुकार है। सो इस दिशा में कदम बढ़ाने के लिये कोई जीवित और जागृत अन्तरात्मा वाला व्यक्ति कंजूसी न दिखाये।

धर्म प्रचार कहिए-अध्यात्म साधना कहिए-विवेकशीलों का संगठन कहिए-जन जागृति का बीजारोपण अपना कहिए-नव निर्माण की पृष्ठभूमि कहिए-नाम जो कुछ भी दिया जाय हम जीवन भर एक ही काम करते रहे हैं कि नरपशु जैसा संकीर्ण और स्वार्थी जीवन जीने से आदमी लजाये और कुछ ऐसा करने की उमंग उत्पन्न कर-अनुदान देने की बात सोचे जिससे अपने समाज का पिछड़ापन दूर होने में मदद मिले। आज का सबसे बड़ा धर्म पुण्य यही है कि एक हजार वर्ष की गुलामी ने जिन संकीर्णताओं, स्वार्थपरताओं, क्षुद्रताओं मूढ़ताओं, कुत्साओं और कुण्ठाओं ने आज का भारतीय जीवन तमसाच्छन्न कर दिया है उसे उन्हें उखाड़ने के लिए कुछ शौर्य साहस प्रदर्शित करे और पिछड़ेपन को प्रगतिशीलता में बदलने के लिये यथा संभव त्याग और बलिदान की’ सहयोग पुरुषार्थ की बात सोचे। कह नहीं सकते कि हमारे इस प्रयत्न का कितना परिणाम निकला। कितनों ने उसे हृदयंगम किया और कितनों ने इस कान सुनकर उस कान निकाल दिया। इसका लेखा-जोखा समय लेगा। सफलता-असफलता का मूल्याँकन इतिहासकार करेंगे पर इतना निश्चित है कि हमारी उपासना साधना, तपश्चर्या से लेकर-साहित्य सृजन और प्रचार संगठन से लेकर विविधविध रचनात्मक कार्यों तक इसी प्रयोजन के लिये होते चले आये हैं कि मनुष्य में मनुष्यता की और समाज में देवत्व की मात्रा जो अति न्यून मात्रा में शेष रह गई है उसका अधिकाधिक संवर्धन कर सकने के लिए हर संभव पुरुषार्थ किया जाय।

साठ वर्ष के इस जीवन काल में 45 वर्ष एक निष्ठ भाव से इसी प्रयोजन के लिये लग गये। आरम्भ के 15 वर्ष बालकपन के थे सो खेल-कूद और पढ़ने-लिखने की बाल-क्रीड़ाओं में लग गये। जब से होश संभाला, तब से सावधानी बरती कि समय का एक भी क्षण और शक्ति का एक भी कण किसी अन्य प्रयोजन के लिये खर्च न हो जाये। न दूसरी बात सोची, न दूसरी क्रिया की। काम करने और सोचने के ढंग में परिस्थिति के अनुसार हेर-फेर भले ही होता रहा है, प्रयोजन और लक्ष्य में रत्ती भर भी व्यतिरेक नहीं हुआ। इस प्रकार एक लंबी मंजिल का महत्वपूर्ण भाग पूरा कर लिया और ईश्वर के सामने उपस्थित होने पर उसके अनुदान मनुष्य-जीवन को निरर्थक गंवा देने की लज्जा से बचे रहने की स्थिति बन गईं। सन्तोष इतना भर है कि ब्राह्मण आत्मा की जो चेष्टा और दिशा होनी चाहिये, उसी पर कदम बढ़े। प्रगति चाहे मन्द रही हो, पर व्यतिरेक नहीं हुआ।

अब जबकि हमारे स्थूल जन-संपर्क वाले जीवन का अन्त अति निकट आ गया-कुछ महीने भर ही शेष रह गये तो एक बात अनायास ही मन में उठती रहती है कि जिस प्रयत्नशीलता का क्रम एक लंबे अर्से से चला आ रहा था और जिसके परिणाम देखकर सर्वत्र बड़ी-बड़ी आशायें बाँधी जाने लगी थीं, उनका क्या होगा? बहुत पहले हम सोचते थे कि हमारे बहुत-से साथी, अनुयायी, स्वजन और शिष्य हैं। वे अपना सहज कर्तव्य समझेंगे और उस पुण्य परम्परा को उदार श्रद्धा के साथ सहज ही अग्रसर करते रहेंगे।

पर आशंका या कुकामना ही समझिये अथवा वस्तुस्थिति कहिये-अब ऐसा लगने लगा है कि जो विशाल भीड़ हमें चारों ओर से घेरे रही है, घेरे रहती है उसके कम ही लोग उस स्तर के हैं, जिन्हें हमारे प्रयासों के प्रति सच्ची सहानुभूति हो। अधिकाँश लोग निहित स्वार्थ वाले हैं, जो अपने किसी प्रयोजन विशेष में सहायता प्राप्त करने के लिये हमारा उपयोग भर करना चाहते हैं। उनकी मनोभूमि उस स्तर तक विकसित नहीं हो सकी है कि वे हमारे जीवनोद्देश्य और क्रिया-कलापों के पीछे काम कराके दूरगामी प्रयोजन की उपयोगिता समझें और उसके लिये कुछ सहयोग-अनुदान देने की हिम्मत करें। मनुष्य, मनुष्य से सहायता प्राप्त करे-यह उचित है, पर केवल उतने तक ही सीमित बनकर रह जाये, यह बुरा है। बारीकी से अपने वर्तमान साथियों पर निगाह डालते हैं, तो खोखलापन बहुत नजर आता है। लगता है-ढोल के इर्द-गिर्द ही थोड़ी सी लकड़ी और चमड़ी लगी है, भीतर तो पोल ही पोल है। भीड़ में क्या बनता है। सोमवती अमावस्या को गंगा-तट पर स्नान करने वाले और रामलीला में रावण वध के उत्सव में उपस्थित रहने वाले तथाकथित धार्मिक लोगों की भारी भीड़ जमा होती है, पर उस जनसमूह के पीछे कोई लक्ष्य नहीं होता। अतएव उस एकत्रीकरण का न व्यक्ति को लाभ मिलता है और न समाज को। वह जमघट विडम्बना मात्र बनकर रह जाते हैं। सोचते हैं अपने साथ जुड़ा हुआ लाखों मनुष्यों का जन-समूह कहीं ऐसा ही खोखला न हो जो हमारे पीठ फेरते ही मुँह फेर ले और जिस प्रयोजन को हम विश्वव्यापी बनाने के लिये अपने को तिल-तिल गलाते रहे हैं वे उसकी ओर मुड़कर भी न देखें। यदि ऐसा हुआ तो उन रंगीन सपनों का क्या होगा, जो हमने बड़ी साध के साथ जीवन भर सजाये और संजोये हैं?

विदाई की घड़ियां जैसे-जैसे निकट आती जाती हैं, वैसे-वैसे संबंधी स्वजनों के प्रति हमारी दबी हुई ममता सहसा उभरती चली आ रही है और मोहग्रस्त अज्ञानियों की तरह यह लालसा उठती है कि अपने हर आत्मीय से एक बार तो जी भर कर मिल लें, प्यार कर लें और अपने मन की कह लें, उनकी सुन लें। सो, उस प्रयोजन के लिये इन दिनों 4-4 दिन के शिविर चला रहे हैं। इससे हमारा जी हल्का हुआ है। प्रायः सभी विशिष्ट आत्मीय जन 15 अक्टूबर तक चलने वाली इस शिविर-शृंखला में मथुरा आकर मिल जायेंगे। इससे अपने को बहुत संतोष मिलता है। हो सकता है कि आगंतुकों का भी जी भरता हो। अब अन्तिम विदाई के समय मिलने आने वालों की आवश्यकता नहीं रही और यह शिविर-शृंखला उपर्युक्त ही रही। जो अभी नहीं आये हैं, उन्हें प्रेरणा कर रहे हैं कि वे अपना काम हर्ज करके भी हमसे मिल जाएं अन्यथा वे इस महत्वपूर्ण अवसर से वंचित रह जाने पर जीवन भर पछताते रहेंगे और हमें भी दुख ही रहेगा।

एक ओर यह चल रहा है, दूसरी ओर यह आशंका खाये जाती है कि यह तथाकथित हमारा परिवार यदि व्यक्तिगत संपर्क की परिधि तक ही सीमित रहा और हमारे मिशन के प्रति उसमें आवश्यक निष्ठा उत्पन्न न हुई, तो एक प्रकार से हमारे प्रयोजनों का मटियामेट हो जायेगा। भीड़ बढ़ा लेना और जन-संपर्क फैला लेना, मिलनसारी या प्रतिभा का चमत्कार हो सकता है, पर उस समूह में कोई जीवट न रही, तो बालू की दीवार की तरह उस भीड़ को बिखरने में भी देर न लगेगी, और यदि कहीं ऐसा हो गया, तो हमारी जीवन-साधना की सार्थकता क्या रह जायेगी।

दिन जैसे-जैसे बीतते जाते हैं, वैसे-वैसे हमारे मन की आशंका और उद्विग्नता बढ़ती जाती है। अपने पीछे कर्मठ और आस्थावान् आदर्शवादी नर-रत्नों की एक शृंखला छोड़ जाने की साध हमारे मन में रही है, यदि वह अधूरी रह गई, तो हिमालय में तप करने या परलोक में रहते हुये भी हमें चैन न मिलेगा। सो इस संदर्भ में इन दिनों कुछ ऐसा कर जाने को जी हुआ है, जिससे मन उलझन में पड़ा न रह जाये। स्थिति भली-बुरी जैसी भी हो, हमारे सामने साफ हो जाये-जिससे हम अपने गुरुदेव के सामने-ईश्वर के सामने अपने क्रिया-कलापों और भावी सम्भावनाओं का वास्तविक रूप प्रस्तुत कर सकने का साहस कर सकें। पीछे कुड़कुड़ाते रहने की अपेक्षा अभी से वस्तुस्थिति समझ ली जाये, तो उसके आधार पर कुछ भावी रूपरेखा कल्पना बन सकती है और उसे अग्रगामी बनाने के लिये चले जाने के बाद भी कुछ प्रयत्न किये जा सकते हैं और अनुदान दिये जा सकते हैं।

निश्चय किया गया है कि अपने घनिष्ठ परिवार में मात्र उन लोगों को रखा जाये, जो हमारे प्रति व्यक्तिगत मोह रखने से आगे एक कदम बढ़कर हमारे मिशन का भी कुछ महत्व समझने लगे हों और उसके लिये कुछ सहयोग करने की आवश्यकता अनुभव करने लगे हों। इस कसौटी पर जितने लोग खरे उतरेंगे, उन पर अपनी आशायें केन्द्रित करेंगे और शेष लोगों का हमारे ऊपर जो व्यक्तिगत अनुग्रह रहा है, उसके लिये आभार व्यक्त करके या उनके ऋण चुकाने के लिये यथासंभव प्रयत्न करके अपने कर्तव्य की इति-श्री कर लेंगे। हम स्वयं दृश्य दीखते भर हैं, वस्तुतः एक विचार, मिशन अथवा प्रकाश हैं, जिसे एक विशेष प्रयोजन के लिये परमेश्वर ने ऐसा कुछ करने के लिये जुटा दिया है, जो उसकी इच्छा अथवा योजना है। सो हमें ध्यान तो अपने उस बाजीगर के निर्देशों की ओर ही रखना है, जिसकी उंगलियों में कठपुतली की तरह हमने अपने समस्त सूत्र घनिष्ठतापूर्वक बाँध दिये हैं और उन्हीं इशारों पर सब कुछ करते रहे हैं और आगे भी करेंगे। उसकी इच्छा भारत का पिछड़ापन दूर करके उसमें प्रगतिशीलता का संवर्धन करना है, ताकि अगले दिनों वह विश्व-शाँति’-नव निर्माण धरती पर स्वर्ग का अवतरण और मनुष्यों में देवत्व के उदय का महान् प्रयोजन पूरा कर सकें और दुनिया को-मनुष्य जाति को सर्वांग सुन्दर बनाने की भूमिका का संपादन कर सकें। इसी प्रयोजन के लिये सजीव और सद्भाव संपन्न स्वजनों का एक संभावित परिवार भी छोड़कर जाना है, जिसकी मनःस्थिति को देखकर उससे कुछ कार्य बन पड़ने की आशा रखी जा सके।

अगले दिनों हमें नव-निर्माण के लिये बड़े कदम उठाने और अभियान को अति व्यापक क्षेत्र में विस्तृत करना है। उसमें कन्धा लगा सकने वाले सहयोगियों की संख्या तथा उत्कृष्टता ही उस प्रयोजन की पूर्ति का आधार बनेगी। सो, जाने से पहले एक सक्रिय, कर्मठ एवं सजीव कार्यकर्ताओं का संघ खड़ा कर देना चाहते हैं, जिस पर भविष्य की आशाओं को केन्द्रित रखा जा सके। इस सजीवता को परखने के लिये भी हम बहुत दिनों से एक घण्टा समय और दस पैसा रोज देने की अपील करते रहे हैं। ढीले-पोले ढंग से उस अपील पर कुछ एक ने ध्यान भी दिया था। पर यह सब कुछ अनियन्त्रित और अस्त-व्यस्त ढंग से चल रहा था। अब उसे नियन्त्रित और व्यवस्थित बनाया जा रहा है तथा कर्मठ परिवार के लिये उसे एक अनिवार्य शर्त के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। जो एक घण्टा समय के हिसाब से महीने में कम-से-कम 30 घण्टा नव-निर्माण के लिये दे सकते होंगे एवं दस पैसे के हिसाब से अनुदान निकाल सकते होंगे, उन्हें कर्मठ कार्यकर्ताओं की श्रेणी में रखा जायेगा और उन्हीं के संगठन को युग-निर्माण परिवार के रूप में गठित कर दिया जायेगा। जो इन दोनों में से एक भी शर्त पूरी न करेंगे, केवल मिशन से सहानुभूति भर रखेंगे और यदा-कदा यथा संभव सहयोग करते रहेंगे, वे सहायक माने जायेंगे। सदस्य वे ही रह जायेंगे, जिन्हें एक घण्टा समय और दस पैसा देने की शर्त मंजूर हो और स्वीकार कर लेने के बाद उसे निष्ठापूर्वक निबाहते रहने का संकल्प कर लिया हो।

कहना न होगा कि नव-निर्माण का प्रथम चरण ‘ज्ञानयज्ञ’ है। व्यक्ति और समाज की असंख्य समस्याओं और दिशाओं पर आवश्यक और अति महत्वपूर्ण सुलझा हुआ प्रकाश डालने वाला साहित्य युग-निर्माण योजना के अंतर्गत तेजी से प्रस्तुत किया जा रहा है। अपने देश को एक ही कमी, एक ही आवश्यकता है कि विवेक और औचित्य के आधार पर सोचना और तदनुरूप गतिविधियाँ अपनाने का साहस पुनर्जीवित किया जाय। इस प्रयोजन के लिये अपना ‘ज्ञानयज्ञ’ अभियान अति उत्साहपूर्वक चल रहा है। यह समय और पैसा विशुद्ध रूप में उसी के लिये निर्धारित और निश्चित है। इस अनुदान का एक-एक कण विचार-क्राँति के लिये ही खर्च किया जाना है। धूपबत्ती, प्रसाद, जप, चिड़ियों को दाना आदि किसी धार्मिक या सामाजिक काम में यह समय या पैसा खर्च नहीं किया जा सकता। अन्य उपयोगी कार्य के लिये प्रयत्न करना चाहिये। अपने सारे आँदोलन की नींव इस बात पर रखी गई है कि नव-निर्माण की प्रखर विचारधारा से अपने सदस्य स्वयं भली-भाँति परिचित अवगत रहने के लिये नियमित रूप से अपने साहित्य का स्वाध्याय करें और अपने घर-परिवार के हर सदस्य को उसे पढ़ाने-सुनाने के लिये आधे घण्टे का नियमित क्रम बनायें। इसके अतिरिक्त संपर्क क्षेत्र में भी, जिनमें कुछ विचारकर्ता दिखें, उन्हें यह सब साहित्य पढ़ाता-सुनाता रहे। हर सदस्य का संपर्क क्षेत्र न्यूनतम दस व्यक्तियों का होना चाहिये और प्रेरणा देने के लिये ही यह एक घण्टे का समय लगाया जाना चाहिये। रोज एक घण्टा निकालना हो सप्ताह में सात दिन या जैसे भी क्रम बनें, बनाया जा सकता है।

दस पैसा इसके लिये निर्धारित है कि मथुरा से निकलने वाली अखण्ड-ज्योति और युग-निर्माण पत्रिकायें तथा ट्रैक्ट-साहित्य, जो अब तक छप चुका है या तेजी के साथ छपने वाला है, उसे माँगते रहा जाये। इसी पैसे से विज्ञप्तियों के वितरण की भी प्रक्रिया चलती रह सकती है। यों इस पैसे का सारा साहित्य सदस्य के घर में ही पहुँचेगा और वह कभी भी बेचना चाहे, तो आसानी से बिक भी सकता है। इस दृष्टि से वह उसकी घरेलू पूँजी ही बनी रहेगी। बाहर के किसी व्यक्ति को उसमें से देना कुछ नहीं है, युग-निर्माण संस्था को भी नहीं। क्योंकि उसका प्रकाशन कागज-छपाई के लागत मूल्य पर ही बिकता है। इस साहित्य का पूरा लाभ स्वयं को, अपने परिवार को तथा मित्र संबंधियों को ही मिलने वाला है। इसलिये उसे बचत या सदुपयोग भी कहना चाहिये। फिर भी हम सम्मान बढ़ाने के लिये उसे दान अनुदान ही मान लेते हैं। क्योंकि जिस उच्च विचारणा का महत्व सारा देश पूरी तरह भूल गया है और जिसकी ओर से पूर्ण उपेक्षा धारण कर आँखें बंद कर ली गई हैं, ऐसे उपेक्षित तथ्य को अपनाने का जिसने साहस किया, उसे दानी से भी कुछ अधिक कहा जाना चाहिये और इस अनुपम साहस की प्रशंसा ही की जानी चाहिये।

अभी भी कुछ साहित्य जीवन-निर्माण की कुछ दिशाओं पर प्रकाश डालने वाला छपा है। आगे बहुत अधिक उपयोगी सामग्री प्रस्तुत करने का क्रम जारी रहेगा। हर सभ्य और विचारवान परिवार में एक ऐसा घरेलू पुस्तकालय रहना ही चाहिये। जो घर के हर सदस्य का सुख-शाँति भरा भविष्य बना सकने योग्य समर्थ मार्ग-दर्शन कर सके। हममें से प्रत्येक को अभी अपनी बौद्धिक भूख बुझाने के लिये जो उपलब्ध है, उससे बहुत अधिक, अनेक गुना उपलब्ध करने से ही काम चलेगा। हजार वर्ष की गुलामी ने हर दिशा में अपनी विचारणा को विकृत किया है। एक तरह से मस्तिष्क का ‘ओवर होलिंग’ ही करना पड़ेगा और गतिविधियों में क्राँतिकारी परिवर्तन लाना होगा। इसलिये उस विचारधारा की नितान्त आवश्यकता है, जो उपरोक्त प्रयोजन पूरा कर सके। इस प्रकार का सृजन युग-निर्माण योजना के अंतर्गत बहुत ही सावधानी के साथ किया जा रहा है। इसका लाभ उठाने के लिये यह दस पैसे ही माध्यम हो सकते हैं, जिनके लिये हर सदस्य को बहुत जोर देकर कहा, समझाया और दबाया जा रहा है।

नियमितता लाने के लिये सरकारी अल्प बचत योजना जैसे टीन के बहुत सुन्दर डिब्बे (गुल्लक) बना दिये गये हैं, जिन पर माता का, दूसरे चित्र एवं निर्देश बहुत ही सुन्दर ढंग से छपे हैं। ताला-चाबी सभी हैं। इसका मूल्य 2) है। कर्मठ कार्यकर्ताओं को इन्हें अपने यहाँ जल्दी-से-जल्दी स्थापित करके अपनी सदस्यता की शर्त पूरी कर लेनी चाहिये।

इन ज्ञानयज्ञ के धर्मघटों (गुल्लकों) के मंगाने में डाक-खर्च बहुत लगता है। इसलिये अच्छा तो यह है कि शिविरों में मथुरा आते-जाते लोगों के हाथों यह मंगा लें अथवा उस क्षेत्र के लोगों के लिये इकट्ठे रेल पार्सल से मंगा लें। डाक से ही मंगाने हों, तो कम-से-कम दो मंगाने चाहिएं। दो पर भी लगभग 2 डाकखर्च लगेगा, पर सुविधा की दृष्टि से 1 ही लिया जायेगा। बाकी खर्च संस्था उठा लेगी। इस प्रकार दो गुल्लकों पर भी 4+1=5 रुपया तो बैठ ही जायेगा और संस्था को भी 1 वहन करना पड़ेगा। इसलिये विवशता में ही डाक से मंगाये। हर हालत में इनकी स्थापना आगामी नवरात्रि से पूर्व हो जानी चाहिये ताकि संगठन का रूप 15 अक्टूबर तक प्रस्तुत किया जा सके।

संगठन का नया स्वरूप इस आधार पर बनाया गया है कि जिनमें अपने मिशन के प्रति इतनी निष्ठा उत्पन्न हो गई है कि उसके लिये कुछ सक्रिय सहयोग कर सकें, उन्हें ही संघबद्ध किया जाये और नव-निर्माण के भावी कार्यक्रमों में कुछ कर सकने की उन्हीं से आशा की जाये। समझने और सहानुभूति रखने वाले भी संपर्क में बने रहें और उनसे भी यह आशा रखी जाये कि वे कभी-न-कभी सक्रिय हो उठेंगे। पर जब तक वैसी स्थिति नहीं आती, तब तक इस वर्ग के लोगों को पकने देने के लिये प्रतीक्षा ही की जा सकती है। संगठन तो उन्हीं का होना चाहिये, जो थोड़ा-बहुत वजन उठा सकें और सहयोग का यत्किंचित् तो परिचय दे सकें। इसलिये न्यूनतम कार्यक्रम यही रखा है कि युग निर्माण आन्दोलन के आधार स्तम्भ बनने के लिये सदस्यता की शर्त एक घण्टा और दस पैसा कर दी है। व्यवस्था और नियमितता का नियन्त्रण ज्ञान-यज्ञ के धर्मघट करेंगे, जिनमें दस पैसा नित्य डालने पड़ेंगे और जिनकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है।

जीवन के अन्तिम अध्याय में कर्मठ कार्यकर्ताओं का एक सजीव संगठन छोड़कर हम जाना चाहते हैं। इसलिए परिवार के प्रत्येक सदस्य को यह कह दिया है कि वे अपनी स्थिति स्पष्ट कर दें। उनको सहानुभूति मात्र हो, तो भी हम आभारी और प्रसन्न हैं, पर यदि वे अधिक घनिष्ठता और समीपता की स्थिति में आ पहुँचे हैं, तो उन्हें प्रारंभिक शर्त को बिना किसी ननुनच के तुरन्त पूरा करने लग जाना चाहिये। 15 अक्टूबर तक शिविर भी समाप्त हो जायेंगे, उनमें जो लोग नहीं आ पा रहे हैं, उन्हें भी अपनी स्थिति के स्पष्टीकरण का अवसर मिल जायेगा। जिन्हें सदस्यता-सक्रियता स्वीकार हो, तो सूचना दे दें। इन सब लोगों की सूचियाँ 31 अक्टूबर तक बना देने का विचार है। सक्रिय सदस्यों में से एक को कार्य वाहक नियुक्त कर देंगे। चुनाव का झंझट खड़ा करना और पदलिप्सा के नाम पर सिर-फुटौल का तमाशा खड़ा करना हमें अभीष्ट नहीं। इस संगठन में भले ही कम व्यक्ति हों पर उनकी सजीवता के आधार पर यह आशा की जा सकेगी कि यह लोग अगले दिनों कुछ कह सकने योग्य कर्तृत्व प्रस्तुत कर सकेंगे।

संगठन को सजीव, सक्रिय और अग्रगामी बनाये रहने और शाखाओं की गतिविधियों की विस्तृत चर्चा करने के लिये ‘युग-निर्माण आन्दोलन’ नामक बड़े साइज का मासिक समाचार पत्र इसी वर्ष प्रारम्भ हो जायेगा। वर्तमान ‘युग-निर्माण योजना’ में समाचार छप नहीं पाते। सारे समाचार छपे, तो उसका साहित्यिक एवं वैचारिक स्वरूप नष्ट होता है। लोग उसे अब बहुत पसन्द करते हैं और सर्वत्र उसका स्वागत किया जा रहा है। समाचार भर देने से उसका यह स्तर न रह सकेगा। इसलिये दोनों पत्रिकाओं को अपना-अपना काम करने दिया जायेगा और समाचारों का प्रसारण करने के लिये उपरोक्त समाचार पत्र आरम्भ किया जायेगा। अगले दिनों अपनी हलचलें इतनी तीव्र हो सकती हैं कि अभी मासिक रूप में आरंभ किया जाने वाला उपरोक्त समाचार पत्र साप्ताहिक या दैनिक करना पड़े। अभी तो उसे संगठित शाखाओं में ही एक-एक प्रति भेजने जितनी ही छापेंगे और ऐसा प्रबन्ध करेंगे कि सभी सदस्य उसी एक प्रति को मिल-जुलकर पढ़ लिया करें। आगे आवश्यकतानुसार उसकी संख्या बढ़ाने की बात सोची जाती रहेगी। समाचारों का सचित्र और विस्तृत विवरण छपते रहने से अपने आन्दोलन की आशाजनक प्रगति होगी, ऐसा सोचा गया है। सब शाखायें एक दूसरे की गतिविधियों का परिचय भी इसी माध्यम से प्राप्त करती रहेंगी और एक दूसरे से संबंध बढ़ाकर प्रेरणा भी अधिक प्राप्त करती रह सकेंगी। सन् 70 में ही अपने वर्तमान परिवार में से सक्रिय-निष्क्रिय की छाँट हो जाने और सजीवों का संगठन बन जाने पर वस्तुस्थिति स्पष्ट हो जायेगी और भावी कार्यक्रमों के लिये एक सुव्यवस्थित आधार खड़ा हो जायेगा, इस दृष्टि से इस कदम को अति महत्वपूर्ण और अति आवश्यक ही माना गया है। इसके अतिरिक्त अगले दिनों संगठन को पाँच बड़े काम करने हैं-

(1) ज्ञान-यज्ञ के महान् प्रयोजन को अति व्यापक बनाने का क्रम बराबर जारी रहेगा। सक्रिय सदस्य दस पैसे रोज बचाकर जो घरेलू पुस्तकालय स्थापित करेंगे, उनका प्रकाश वे दस व्यक्तियों तक पहुँचाने का भी प्रयत्न करेंगे। अपने घर-परिवार से आरम्भ कर मित्र, पड़ौसी और परिचितों पर नजर डाली जाये, तो दस की ऐसी संख्या हर जगह मिल सकती है, जिसको पुस्तकालय में लगातार आते रहने वाले साहित्य को पढ़ाया-सुनाया जा सके। इस प्रकार लाखों की संख्या में लोगों को निरन्तर विचार-क्राँति के प्रकाश से प्रभावित किया जा सकेगा। यह क्रम निरन्तर बढ़ेगा और करोड़ों व्यक्तियों को इस स्तर का बनाया जा सकेगा कि उपलब्ध प्रेरणाओं के आधार पर अपना व्यक्तिगत जीवन, परिवार का स्वरूप एवं समाज का निर्माण आदर्शवादिता के आधार पर विनिर्मित करने में साहसिक कदम उठा सके। भावी परिवर्तन इसी पृष्ठभूमि पर अवलंबित हैं, इसलिये ज्ञान-यज्ञ का वर्तमान क्रम आगे और भी अधिक उत्साह एवं साहसपूर्वक जारी रखा जायेगा।

(2) इसके अतिरिक्त चार चरण और हैं, जो स्थानीय परिस्थिति तथा संगठन की शक्ति के अनुरूप निरन्तर उठाये जाते रहेंगे। जून की अखण्ड ज्योति में विचार-क्राँति के लिये खड़ी की जाने वाली शिक्षा-योजना की चर्चा कर चुके हैं। इसके लिये रात्रि पाठशालायें हर जगह चलाई जानी हैं और प्रस्तुत पाठ्यक्रम की वर्ष में दो बार परीक्षायें लेकर, उत्तीर्ण छात्रों को सुन्दर प्रमाण-पत्र देकर एक देशव्यापी व्यवस्थित प्रशिक्षणक्रम चलाया जाना है। जहाँ पूरे समय के विद्यालय संभव होंगे, वहाँ गृह-उद्योगों सहित उनका स्वरूप मथुरा के युग-निर्माण विद्यालय जैसा बनाया जायेगा, नहीं तो रात्रि पाठशालाएं तो हर जगह चलेंगी ही। विषय ऐसे अनुपम और आवश्यक होंगे कि जिनसे अशिक्षित, अल्पशिक्षित और उच्च शिक्षित सभी समान रूप से लाभान्वित हो सकें। शाखायें अगले दिनों ऐसी प्रशिक्षण व्यवस्था अपने यहाँ बनायेंगी।

(3) जुलाई के अंक में कला के माध्यम से जन-जागृति पर चर्चा की गई है। साहित्य, चित्र, संगीत, अभिनय आदि सभी माध्यमों से जन-जागृति का प्रयोजन पूरा करने के लिये एक युग-भारती कला मंच खड़ा किया जा रहा है। उसका उपयोग शाखायें करेंगी। नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्राँति के लिये चित्रावलियाँ प्रकाशित की जा रही हैं और बहुत बड़े साइज के चित्र बनवा कर उनके द्वारा जगह-जगह चित्र प्रदर्शनियों का क्रम चलाया जायेगा। मैजिक लालटेन, सेमिटेस्कोप, सिनेमा जैसे प्रकाश-चित्रों से भी यही क्रम चलाया जायेगा। साहित्य-प्रकाशन में और तेजी लाई जायेगी। कथा-साहित्य की तैयारी की जा रही है, जो हल्के मनोरंजन के साथ-साथ जन-जागृति का प्रयोजन पूरा करे। हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं में नव-निर्माण की विचारणा को प्रकाशित करने की व्यापक तैयारी कर ली गई है। इसके अतिरिक्त अति सुरुचिपूर्ण और कलात्मक ऐसी नाटक मण्डलियाँ बनाई जा रही हैं, जो अपनी विशेषताओं के कारण लोकप्रिय ही न बनें, स्वस्थ मनोरंजन का प्रयोजन ही पूरा न करें वरन् लोक-मानस को उलट देने के क्राँतिकारी प्रयोजन को भी बड़ी खूबी के साथ पूरा कर सकें। मथुरा केन्द्र द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाले उपरोक्त कला माध्यमों को स्थानीय जनता के लाभ दिलाने की योजनायें शाखायें बनाएंगी। ऐसे ग्रामोफोन रिकार्ड बनाये जाने हैं, जिन्हें लाउडस्पीकरों के माध्यम से बजाकर सुनने वालों में एक नई लहर पैदा की जा सके। शाखायें इनका उपयोग भी किया करेंगी।

(4) शत सूत्री रचनात्मक कार्यक्रमों पर बहुत दिनों से जोर दिया जाता रहा है। व्यायामशालायें, प्रौढ़ पाठशालायें, पुस्तकालय, हरी क्राँति अभियान, स्वच्छता एवं सुरक्षा दल प्रतियोगितायें, गृह उद्योग, सत्कर्मों के अभिनन्दन, पर्व-त्यौहारों के प्रेरणाप्रद आयोजन, श्रमदान द्वारा सामूहिक निर्माण, प्राकृतिक चिकित्सा, सहकारी व्यापारी एवं उत्पादन, गौ-संवर्धन आदि रचनात्मक कार्यों के द्वारा नव-निर्माण के लिये प्रोत्साहन एवं प्रशिक्षण दिये जाने से जनसाधारण में नव-निर्माण के लिये आवश्यक रुचि उत्पन्न होगी और सेवाभावियों को सुसंबद्ध होने का अवसर मिलेगा।

(5) संघर्षात्मक कार्यों में वैयक्तिक दोष-दुर्गुणों का त्याग, परिवारों की न्यायसंगत विधि-व्यवस्था, सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन, विवाह-शादियों में अपव्यय का विरोध, अपराधों का नियन्त्रण, राजसत्ता में घुसे अनाचार का प्रतिरोध, जन-जीवन में संव्याप्त भ्रष्टाचार को उखाड़ना, नर-नारी और मनुष्य-मनुष्य के बीच ऊँच-नीच का निवारण, निहित स्वार्थों का भण्डाफोड़, अर्थ वैषम्य की खाई पाटना, मूढ़ता और रूढ़िवादिता से विग्रह जैसे असंख्य संघर्षात्मक मोर्चे अगले दिनों खड़े किये जाने हैं क्योंकि अनीति द्वारा अनुचित लाभ लेते रहने का चस्का जिनकी दाढ़ में लग गया है, वे मात्र अनुरोध से मानने वाले नहीं हैं। उन्हें प्रचण्ड प्रतिरोध के द्वारा विवश ही किया जायेगा कि दुष्टता से बाज आयें। सैनिकों द्वारा सीमा-संघर्ष के लिये लड़े जाने वाले युद्धों में नहीं, व्यापक अविवेक और अनीति के विरुद्ध खड़े किये गये इंच-इंच भूमि पर लड़े जाने वाले संघर्ष से ही सदा के लिये असुरता का अन्त होगा और मनुष्य में देवत्व एवं धरती पर स्वर्ग के अवतरण का लक्ष्य पूरा होगा।

युग-निर्माण योजना के भावी पाँच चरणों की संक्षिप्त चर्चा की गई है। इन्हें कार्यान्वित करना एक व्यक्ति का काम नहीं, उसे तो समर्थ संगठन ही पूरा कर सकता है। इसलिये हम अपने परिवार को सक्रिय संगठन के अंतर्गत आबद्ध करके और उसे एक सजीव संगठन के रूप में छोड़ कर जाना चाहते हैं ताकि हमारे चले जाने पर भी वह मशाल बुझने न पाये, जो मानव-जाति का भविष्य उज्ज्वल करने और विश्व में स्नेह-सहयोग का वातावरण उत्पन्न करने के लिये अति भावनापूर्वक जलाई गई हैं। हम अपने हर प्रियजन को इस सक्रिय संगठन में सम्मिलित होकर अपनी सद्भावना का प्रमाण, परिचय देने के लिये सादर आमन्त्रित करते हैं।

गायत्री तपोभूमि में पोस्ट आफिस खुला

प्रसन्नता की बात है कि ‘गायत्री तपोभूमि’ में पोस्ट आफिस खुल गया है। इससे नव-निर्माण आन्दोलन की डाक-व्यवस्था में बहुत सुविधा होगी।

अब युग-निर्माण आन्दोलन, युग-निर्माण, विद्यालय, शिविर, विज्ञप्ति, साहित्य एवं संस्था से संबंधित सारा पत्र-व्यवहार तथा धन-निर्यात आदि ‘गायत्री तपोभूमि मथुरा’ के पते पर ही करना चाहिये। वहाँ इस प्रकार की डाक संभालने के लिये सुयोग्य कार्यकर्ता नियत कर दिये गये हैं।

साधना तथा व्यक्तिगत परामर्श संबंधी डाक ‘अखण्ड-ज्योति संस्थान’ के पते पर ही भेजनी चाहिये, क्योंकि इन दिनों इस प्रकार की डाक माताजी ही खोलती हैं। जब हम रहते हैं, तो हम स्वयं उत्तर लिखते या लिखाते हैं-हमारे न रहने पर माताजी उत्तर देती हैं। चूँकि माता जी अखण्ड-ज्योति संस्थान में ही रहती हैं और वहीं की व्यवस्था संभालती हैं, इसलिये व्यक्तिगत पत्र वहीं भेजे जाने उचित हैं।

दोनों पत्रिकायें इस वर्ष घीयामण्डी से ही निकलेंगी। जनवरी से ‘युग-निर्माण योजना’ का प्रकाशन गायत्री तपोभूमि से होगा और ‘अखण्ड-ज्योति’ घीयामण्डी से निकलेगी। पर अभी इस वर्ष दोनों पत्रिकाओं का दफ्तर घीयामण्डी ही है, सो चन्दा शिकायतें आदि इसी पते पर भेजने चाहिएं। पाठक इस डाक-विभाजन को ध्यानपूर्वक समझ लें और नोट कर लें।


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