महात्मा जी तीर्थ यात्रा को निकले तो उनकी भेंट एक धनी व्यक्ति से हुई। उसे अपने धन पर बड़ा गर्व था। महात्मा को आर्थिक सहायता देना तो दूर रहा वरन् एक शीशा देकर कहा ‘आप पूरे देश का भ्रमण करेंगे, यदि आपको सबसे बड़ा मूर्ख कोई मिल जाये तो यह शीशा उसी को दे दें।
सन्त स्वभाव, शीशा लेकर झोली में डाल लिया महात्मा ने। वह शीशा भी बड़ा विचित्र था, उसमें एक व्यक्ति की अनेक प्रतिमायें दिखाई देती थीं। महात्मा पर्यटन से लौट कर आये तो उस धनी को मृत्युशय्या पर पड़ा पाया। उन्होंने पूछा ‘साहूकार! क्या तुम्हें किसी ऐसी विद्या का ज्ञान है जो मृत्यु से बचा सके।’
‘नहीं!’
‘क्या तुम्हारे धन में इतनी शक्ति है जो तुम्हारे काल को परास्त कर सके,’
फिर वही छोटा सा उत्तर उस धनी ने दिया, ‘नहीं’।
‘तो तुमसे बड़ा मूर्ख तो इस संसार में मुझे कोई दिखाई नहीं देता। यह लो अपना शीशा। आश्चर्य इस बात का है कि तुम सभी वस्तुओं की निस्सारता को जानते हुये भी अपने जीवन को इसी में खपाते रहे फिर तुमसे बड़ा मूर्ख और कौन होगा।’
शिक्षित दिखाई देने वाले आज के लोग भी उस साहूकार की तरह हैं जो प्रमादवश दूसरों को तो मूर्ख समझते हैं पर स्वयं कहाँ जा रहे हैं इसका पता उन्हें भी नहीं है।