आत्म-विस्तार-
अग्नि, मरुत, वरुण देवता सब खड़े अनुनय-विनय करते रहे-हे बीज! मुझे धारण करो, हम तुम्हारी क्षमताओं का अनन्त गुना विस्तार कर देंगे। पर बीज इस डर से कि मेरी ऐसी सुन्दर देह सड़-गल कर नष्ट हो जायेगी, जहाँ था, वहीं पड़ा पड़ा सूख गया बीज, मौत तो अन्ततः उसे आनी ही थी।
पास ही एक और बीज पड़ा था, उसे देवों की बात में कुछ सार जान पड़ा-सो वह पृथ्वी की गोद में पड़ा सबको गले लगाने लगा। अग्नि, मरुत, वरुण सबको धारण करने से उसमें अंकुर फूट पड़ा और विकसित होते-होते एक दिन विशाल वृक्ष के रूप में लहलहाने लगा। एक दिन वह वृक्ष फूलों से लदा हंस रहा था, तो मृत्युन्मुख बीज ने सिर ऊपर उठाकर देखा और पश्चाताप के आँसू बहाता हुआ बोला-वृक्ष! तुम्हारा साहस धन्य है। मेरी तरह से तुम भी मोह में पड़ गये होते तो आज यह जो सैकड़ों-सैकड़ों बीजों में परिवर्तित होने का जो सौभाग्य तुम्हें मिल रहा है, वह कहाँ मिलता?