विद्रूप और उसकी साधना दृष्टि

August 1970

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महात्मा ‘निष्कम्प’ नगर के बाहर एक उपवन में रुके हैं- यह समाचार पाकर जिज्ञासु साधक उनके ज्ञान का लाभ लेने पहुँचे। विद्रूप ने भी सुना। वे परमार्थ तथा आत्म-कल्याण की साधना में रत थे। अपनी साधना में गतिरोध सा उन्हें अनुभव होता था। अवसर का लाभ उठाने वह भी पहुँचे।

सहज शिष्टाचार के बाद अवसर देख विद्रूप ने पूछा- ‘महात्मन्! साधना में भौतिक वैभव बाधक बनता है। किन्तु उनको छोड़ा भी नहीं जा सकता और बिना छोड़े गति भी नहीं। कृपया कोई मार्ग बतलावें।’

महात्मा हँसे, बोले- ‘वत्स! तुम्हारी समझ को अपच हो गया है- हलका आहार दो।’

विद्रूप न समझ सकने के कारण अवाक् खड़े रह गये। महात्मा ने उनकी स्थिति समझ ली तथा पुनः बोले- ‘मस्तिष्क पर अधिक तनाव मत दो। अपने खेल में तल्लीन बच्चों की गतिविधि में रस लिया करो, वहीं तुम्हारे प्रश्न का व्यवहारिक उत्तर प्राप्त हो जायेगा।’

‘बच्चों के खेल में इस गम्भीर प्रश्न का उत्तर?’ विद्रूप मन ही मन संकल्प करने लगे- क्या कहें, कैसे पूछें? बोले- ‘भगवन्! स्वयं अपने श्रीमुख से शंका निवारण कर दें, तो अति कृपा होगी।’

महात्मा मुस्करा उठे। प्रेम से विद्रूप की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहने लगे-’वत्स! शब्द से क्रिया का शिक्षण अधिक उपयोगी होता है। तुम्हें सम्भवतः यह शंका हो रही है कि बच्चों के खेल में क्या सीख मिलेगी? किन्तु ध्यान रखो, यह संसार उस प्रभु का क्रीडाँगन ही है। इसके महत्वपूर्ण पक्ष क्रीडा सिद्धान्तों से समझे जा सकते हैं। फिर भगवान दत्तात्रेय को प्रकृति व जीव जन्तु शिक्षा दे सकते हैं, तो क्या तुम्हें बच्चे भी न दे सकेंगे? जाओ, प्रयास मनोयोग से करना।’

विद्रूप प्रणाम करके लौट आये। आदेशानुसार उन्होंने क्रीडारत बालक बालिकाओं को देखना प्रारम्भ किया। प्रारम्भ में ही उन्हें अन्तःकरण में हलकापन अनुभव हुआ। उन्होंने पाया कि बच्चे खेल के समय कितने तन्मय हो जाते हैं। उनकी तन्मयता के साथ विद्रूप भी तन्मय होने लगे। प्रश्न का उत्तर न मिला, तो भी सहज शाँति मिलने लगी। और एक दिन अचानक उनके गम्भीर प्रश्न का क्रियात्मक उत्तर भी मिल गया।

तीन बच्चे खेल रहे थे। दो बालक एक बालिका। घुड़सवारी के खेल का प्रस्ताव हुआ। घोड़े खोजे गये। दो लाठियाँ मिलीं। उन्हें राँगों के बीच दबाकर बच्चे घुड़सवार बन गये। चाबुक के स्थान पर ज्वार के डण्ठल ले लिए गये। किन्तु घोड़े दो ही थे तथा सवार तीन। निर्णय हुआ कि बारी-बारी से सवारी की जाये। दोनों बच्चे घोड़ों पर सवार होकर चल पड़े चाबुक घुमाते! बच्ची एक क्षण खड़ी देखती रही, फिर अचानक झपटकर उसने दो डण्ठल उठाये। एक को राँगों के बीच दबाकर घोड़ों बनाया तथा दूसरे से फटाफट चाबुक जमाना प्रारम्भ किया। विद्रूप बालिका के भोलेपन पर हँसे-’बेचारी को ठीक घोड़ा भी न मिल सका।’

किन्तु उनकी हँसी रुक गई। उन्होंने देखा- बालिका का दुर्बल घोड़ा उसे सबसे आगे पहुँचा चुका था। दोनों बालकों के बढ़िया (भारी) घोड़े उनके पैरों की गति में बाधक बने थे और बालिका का मरियल (हल्का) घोड़ा उसके लिए वरदान सिद्ध हो रहा था घोड़ा किसका अच्छा कहा जाये, लड़कों का या उस बेचारी बच्ची का?

मस्तिष्क ने करवट ली। रसानुभूति के साथ विवेक कार्य करने लगा। दृश्य स्थूल से सूक्ष्म दृष्टि का विषय बन गया। विद्रूप को जैसे दिव्य दृष्टि मिल गयी थी। वे देख रहे थे विश्व क्रीड़ा को। अपने आपको बुद्धिमान ज्ञानी कहने वाले प्रौढ़ बच्चे जीवन का खेल खेल रहे हैं। नाम, यश, वैभव, कीर्ति आदि के सुगढ़ सुन्दर लकड़ी के घोड़े उन्हें आवश्यक लगते हैं। प्रगति पथ पर बढ़ना, दौड़ना तो अपने पैरों की शक्ति से ही पड़ता है। प्रतिभा, चरित्र, साहस, धैर्य, सौजन्य, उदारता आदि गुणों की शक्ति ही गतिशीलता लाती है, किन्तु ‘घुड़सवार’ विकास के साधक कहलाने के लिए स्थूल प्रतीक भी उन्हें आवश्यक लगते हैं।

विद्रूप को ध्यान आया महात्मा का वचन - ‘वत्स! तुम्हें बुद्धि का अपच हो गया है।’ वास्तव में वह जो विचार सोच समझ रहे थे, उन्हें आत्म सात कहाँ कर पा रहे थे। चित्त में हलकापन आते ही- बच्चों के खेल से ही तत्व की बात मिल गई। जीवन साधना में लौकिक दृष्टि से आवश्यक समझे जाने वाले वैभव आदि को भारी क्यों बनने दिया जाये। जब हर हालत में दौड़ना अपने ही पैरों से है, तो क्यों न बालिका जैसा हलकापन स्वीकार कर लिया जाए?

विद्रूप पुनः महात्मा निष्कम्प के पास पहुँचे। अपना अनुभव सुनाया। सुनकर महात्मा ने साधुवाद दिया- ‘वत्स! सही दृष्टिकोण अपनाया तुमने। क्या अब भी अपनी साधना के लिए भौतिक वैभव आवश्यक लगता है?’ विद्रूप ने स्वीकार की अपनी भूल। महात्मा ने आशीर्वाद दिया-’तुम्हारी साधना आगे बढ़ेगी। उसके लिए भौतिक वैभव का अभाव नहीं। उसका भार ही गतिरोध उत्पन्न करता है। लोक मर्यादा के लिए भी आवश्यक पड़े, तो तुम उसका प्रत्यक्ष समाधान देख ही चुके हो।’

विद्रूप ने अपने को धन्य माना तथा महात्मा के निर्देशानुसार साधना में श्रेष्ठ गति प्राप्त की।


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