योग-पूर्व परिचय व प्रारम्भिक तैयारी

August 1970

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गणितीय भाषा में योग का अर्थ ‘जोड़ना या मिलाना’ होता है। एक और एक बराबर दो, यह योग हुआ। किन्तु मनुष्य जीवन के दार्शनिक पक्ष में योग का अर्थ घुलाना होता है। यह भी मिलने के सदृश ही है, पर यहाँ एक और एक मिलकर दो नहीं, एक ही बनता है। अपूर्ण एक परिपूर्ण इकाई में परिवर्तित होता है।

जीवात्मा पानी की एक बूँद की तरह आविर्भूत हुई। वह अपूर्ण है। शक्ति, ज्ञान और समृद्धि की दृष्टि से निताँत अपूर्ण और अभावग्रस्त आत्मा की सम्पूर्ण अशान्ति का अर्थ यह अभाव या अपूर्णतायें ही है। उन्हें दूर करने के लिये मनुष्य आदिकाल से प्रयत्न करता रहा है। उसे एक ऐसे अगाध सिन्धु की आवश्यकता हुई, जिसमें घुलकर वह अपनी लघुता को मिटा डालती किन्तु भौतिक अर्थों में बड़े-बड़े चक्रवर्ती सम्राट् भी पूर्ण न हो सके। दिग्विजयी सिकन्दर ने तमाम दुनिया से सम्पत्ति एकत्रित की, किन्तु जब उसका मृत्यु-क्षण समीप आया और जब उसे पता चला कि उसका जोड़ा हुआ यह धन साथ नहीं जा सकता, तो उसने अपने मन्त्रियों से कहा कि मेरी अर्थों निकाली जाय, तब मेरे दोनों हाथ बाहर निकाल दिये जायें ताकि संसार समझे कि जीवन भर धन-सम्पत्ति और लोकाचार में पूर्णता की प्राप्ति में लगा रहने वाला सिकन्दर अन्ततः खाली हाथ ही मर गया।

मनुष्य का पार्थिव जीवन ही सब कुछ नहीं, उसकी नैसर्गिक जीवन प्रणाली भी है और जब तक वह शाँत और सन्तुष्ट नहीं होती, उसकी तमाम चेष्टायें निरर्थक ही रहती हैं।

जीवन का विस्तृत अध्ययन करने के उपरान्त ऋषियों ने जिस तत्व दर्शन की खोज की, वह यह है कि मनुष्य जब तक अपनी वैयक्तिक चेतना (व्यष्टि) को विराट विश्व में एकरस फैली हुई चेतना (समष्टि या परमात्मा) में नहीं मिला देता, तब तक उसकी अशाँति दूर हो भी नहीं सकती। इसी के साथ-साथ जो मार्ग, जो पद्धति, जो साधनायें उन्होंने आत्मा के विकास के लिए निकालीं, वह सब योग कहलाईं, योग का अर्थ है, अपने आपको परमात्मा में घुलाना, लघु से विभु, अणु से महत् और जीव से परम ऐश्वर्यशाली परमात्मा बनना।

किन्तु इन पंक्तियों का लिखना या उपदेश करना जितना सरल है, योग उतना ही कठिन भी है। वाजिश्रवा के पुत्र नचिकेता ने यमाचार्य से भगवान् को जानने की इच्छा प्रकट की, तब यमाचार्य ने यही कहा था-

देवैरमापि विचिकित्सितं पुरा,

न हि सुविज्ञेय मणुरेष धर्मः।

अन्यं वरं नचिकेतो वृणीश्व,

मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम्॥

-कठोपनिषद् 1। 21

नचिकेता! इस सम्बन्ध में तो देवता भी सन्देहग्रस्त हैं, योग विज्ञान अत्यन्त सूक्ष्म होने से शीघ्र समझ में नहीं आता। इस कठिनाई में न पड़कर तुम अन्य कोई वरदान माँग लो, मुझे दबाओ मत।

किन्तु जब नचिकेता ने भोग और साँसारिक सुखों को भी तृणवत् तुच्छ और क्षण भंगुर मानने का साहस अभिव्यक्त किया, तो यमाचार्य सन्तुष्ट हुए, उन्होंने कहा- दृढ़ निश्चय और कठिनाइयों से लड़ सकने का जिसमें साहस है, वही योगी हो सकता है।

यह कठिनाइयाँ इसलिए और भयंकर हैं, क्योंकि भगवान को प्राप्त करने में जो समर करना पड़ता है, वह अपने आपसे ही करना पड़ता है, अपनी इच्छाओं को ही मारना पड़ता है। इसलिए उसमें प्रवेश से पूर्व ही उसका तत्वज्ञान समझना आवश्यक है। समझ -बूझ के साथ उठाया कदम लाभदायक होता है। औंधे सीधे चल पड़ने और थोड़ी ही दूर चलकर वह मार्ग छोड़ देने से तो योग विद्या का उपहास ही होता है। इसलिए अस्थिर व बालक बुद्धि लोगों को नहीं, निष्ठावान साधकों को ही योग मार्ग पर आरुढ़ होने की आज्ञा दी जाती है।

पातंजलि योग-दर्शन का कथन है-

योगरचित्तवृति निरोधः।

-योग दर्शन पापद 1। सूत्र 2

अर्थात्- ‘चितवृत्तियों को रोकना ही योग है।” यदि मनुष्य अपने मन में उठने वाली अनेक प्रकार की कामनाओं और वासनाओं को रोक लेता है और उनका प्रयोग इन्द्रियों की इच्छा से नहीं, अपनी इच्छा से उस तरह कर सकता है, जिस प्रकार सारथी रथ में जुते हुए घोड़ों को, तो वह निश्चय ही अपनी शक्तियों का ऊर्ध्वगामी विकास करके परमात्मा की उपलब्धि कर सकता है।

साधारणतया चितवृत्तियों का समझ पाना भी सरल कार्य नहीं है। कौन-सी कामना, कौन सी इच्छा उचित है, कौन-सी अनुचित- इसका निर्णय कर सकना अजानकार के लिए उतना ही कठिन है, जितना मोटर न चलाना जानने वाले के लिए मोटर चलाना। आत्मिक आवश्यकताओं और इन्द्रियजन्य वासनाओं में घोर विरोध है। आत्मा शरीर से स्थूल पदार्थों में इस तरह घुला हुआ है कि उन दोनों को अलग-अलग करना बहुत कठिन हो जाता है। इसलिए योग दर्शनकार अपने आप ही प्रश्न करता है कि वह चित्तवृत्तियाँ कौन सी हैं, जिनका विरोध किया जाये। योग दर्शन के पाद 1 सूत्र 6 में उसी का उत्तर देते हुए लिखा है-

प्रमाण विपर्यय विकल्प निद्रा स्मृतयः॥

अर्थात्- प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति यह पाँच चित्तवृत्तियाँ हैं, जिनको वशवर्ती करना योगी के लिए परमावश्यक है।

प्रमाणवृत्तियाँ वह कहलाती हैं, जो किन्हीं इन्द्रियों से सम्बन्ध रखने वाली विषय वस्तुओं को देखकर जागृत होती हैं। इनके सूक्ष्म भेदोपभेदों की क्लिष्टता में जाकर विभ्रमित होने की अपेक्षा यह जान लें, तो पर्याप्त है कि श्रोत अर्थात् कान मधुर ध्वनि सुनने को इच्छुक रहते हैं। जहाँ कही भी प्रचुर शब्द सुनाई देते है, संगीत या सुन्दर वाद्य हो रहा होता है, उधर ही चल पड़ने को मन करता है। त्वचा में स्पर्श से सुख अनुभव करने का गुण होता है, आँखें रूप पसन्द करती हैं और वहीं रमे रहना चाहती हैं, जहाँ सौंदर्य दिखाई देता है। चाहे वह वस्तुओं का सौंदर्य हो, स्थान अथवा स्त्री पुरुषों के शरीर का। जिह्वा रस की प्यासी रहती है- सदैव अच्छा-अच्छा खाने की ही उसकी तलाश रहती है और उसी तरह घ्राण या नासिका का गन्ध से सम्बन्ध है। उसका प्रिय विषय सुगन्ध है, चाहे वह फूलों में मिले अथवा इत्र-गुलाब में। यह इन्द्रियाँ अपने-अपने सुख आवरण रहित प्राप्त करना चाहती हैं, जितना इन सुखों में व्यक्ति रमण करता है, उतना ही शरीर दुर्बल और निस्तेज होता है। शरीर के साथ ही मन और आत्मा भी दुर्बल होता जाता है इसलिए यह प्रत्यक्ष सुख की सी अनुभूति कराने वाली चित्तवृत्तियाँ सबसे प्रमुख हैं, उनको नियन्त्रण में रखना चाहिए।

इन आकर्षणों को छोड़ने और मन को उनसे विमुख करने का अर्थ यह नहीं है कि इससे इन्द्रियाँ सन्तुष्ट हो जायेंगी। हम फ्रायड के इस सिद्धाँत को मानते हैं कि दमित वासनाएं और भी वेग से उठती हैं, किन्तु एडलर और जंगु के स्थानापत्ति (सब्लीमेशन) सिद्धाँत के अनुसार इन कामनाओं को हम अंतर्वर्ती बना लें, तो जो सुख प्रत्यक्ष पदार्थों में दिखाई देते हैं, वही क्रमशः कल्पना मन और आत्मा में उतरता चला जा सकता है अर्थात् आज का दिखाई देने वाला घाटा इस अर्थ में एक पूर्णता की ही तैयारी है। अभी हम थोड़े-से रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और श्रोम में अपनी शक्ति गंवाकर बेचैन हो सकते हैं, पर अपना अंतर्वर्ती जगत इतना परिपूर्ण है कि उसमें किसी भी इन्द्रिय की वासना को पूर्ण करने की उतनी सामग्री अपने ही आप में इतनी मात्रा में उपलब्ध है, जो करोड़ों वर्षों तक उपभोग करने से भी चुक नहीं सकती। इस पूर्णता के प्राप्त करने के लिए प्रारम्भ की इन सम्पूर्ण और क्षणिक वासनाओं को, जो प्रत्यक्ष सुख प्रतीत होती हैं, आवश्यक हो जाता है।

दूसरी वृत्ति है अज्ञानता या विपर्यय। मरुभूमि में दूर से चमकते सिकताकण देखकर जिस प्रकार जल होने का मिथ्या-बोध होता है, उसी प्रकार पदार्थों के प्रति हमारा अज्ञान ही विपर्यय है। रुपये-पैसे, सोने-चाँदी, स्त्री पुत्रों के प्रति हमारे अन्दर कोई तात्विक व्याख्या न होकर आसक्ति मात्र होती है जो वस्तु बहुत प्रिय लगती है, भले ही उसका आत्म-हित से कोई सम्बन्ध न हो, उसी के पीछे लगे रहते हैं। विपर्यय वृत्ति को रोकना भी योगी के लिए आवश्यक है। उसे संसार के प्रत्येक पदार्थ के वैज्ञानिक स्वरूप को समझना चाहिए ताकि उसमें से कितना और क्या ग्रहणीय है, इस पर स्थिर चित्त से विचार किया जा सके। केवल अपनी मनो-मान्यता के आधार पर ही किसी वस्तु को अपने लिए उपयोगी मानने की वित्तेषणा को छोड़कर ही व्यक्ति योगी बन सकता है।

विकल्प वृत्ति का सीधा सम्बन्ध भय से है, जैसे बड़े दाँतों और मुँह से आग उगलते हुए भूत का चिन्तन, सींगों वाले आदमी आधा आदमी आधा भैंसा इस तरह की भ्राँत कल्पनाएं जिनका अर्थ तो कुछ भी नहीं होता, पर अपनी मानसिक दुर्बलता के कारण वैसे विचार मस्तिष्क में आते और डराते रहते हैं। साधना काल में यह स्थिति बड़ी ही कष्टदायक प्रतीत होती है। इसलिए दुर्बल मनोभूमि के व्यक्तियों को योग की दीक्षा नहीं दी जाती। यदि मस्तिष्क की इन विकल्पनाओं पर विजय न प्राप्त की जा सके, तो उच्च भूमिका में पहुँचे हुए साधक भी स्त्री और बालकों के समान भयग्रस्त होकर साधनाएं छोड़ सकते हैं।

चौथी निद्रावृत्ति का सीधा सम्बन्ध तामसिक आहार-बिहार से ही मनुष्य का शरीर शुद्ध नहीं रहता। आहार घृणित, बासा, बुसा होता है, तब वह बहुत सोता है या जागते हुए भी उसे आलस्य घेरे रहता है। योगाभ्यासी के लिए अपनी तामसिक वृत्तियों का नियन्त्रण कर निद्रा में कमी करनी चाहिए, अपने आलस्य को दूर करना चाहिए।

पांचवीं वृत्ति स्मृति कहलाती है। ऊपर कहे हुए सभी सुखों को बार -बार याद करना भी सुखों की ओर आकर्षित करना है। यह मानसिक चिन्तन भी कम शक्ति क्षय नहीं करता। फ्रायड का कथन है कि मनुष्य जो इच्छाएं प्रत्यक्ष संसार में पूर्ण नहीं कर पाता, अवचेतन मन उसकी सृष्टि स्वप्नावस्था में करता है। साधक को कुछ ही दिन के अभ्यास से रात में मधुर-मधुर स्वप्न दिखाई देने लगते हैं। जागने पर उनका बार-बार स्मरण होता है और मन अपने आपको उसी तरह का सुख प्राप्त करने की चेष्टा कराता है। साधक स्वयं वैसा नहीं चाहता, पर वह स्मृति उसे बार-बार उस सुख की याद दिलाती है। कई सुख और भोग, जो पिछले जन्मों में भोगे गये हैं और अब जिनके केवल मात्र संस्कार अवचेतन मस्तिष्क में पड़े हैं, वह भी स्वप्न में विलक्षण स्मृतियों के रूप में प्रकट होते हैं।

यह सब मिलकर आत्मा को परमात्मा में मिलने से रोकते हैं और बार-बार पार्थिव सुखों की प्रेरणा देते हैं। इसलिए इन्हें बार-बार रोकने और अपने लक्ष्य में आरुढ़ रहने को कहा जाता है। जो इन चित्तवृत्तियों के चंगुल में नहीं आता, वही योगी अन्त में अपने उद्देश्य में सफल होता है।


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