नदी जब समुद्र में मिलने की प्रबल आकाँक्षा से अभियान करती है तो उसकी गति रोकने वाले अवरोधों को परास्त ही होना पड़ता है। समुद्र से मिलने की प्रबल आकाँक्षा, आवश्यकतानुसार उसे विरोधी चट्टानों को कभी काटने पर विवश करती है तो कभी इधर -उधर घूमकर रास्ता निकाल लेने की प्रेरणा देती है। उसकी प्रबल इच्छा उसे अपनी लक्ष्य सिद्धि के लिए कभी टक्कर लेने, कभी निम्न होने, कभी रास्ता बदलने और कभी मन्द मंथर हो जाने का ज्ञान देती है। उसका वाँछित लक्ष्य सागर से मिलन होता है और वह उसे किसी न किसी प्रकार संघर्ष अथवा सामंजस्य पूर्ण नीति से प्राप्त कर ही लेती है। वह किन्हीं कारणों से हार कर निराश अथवा निरुत्साह होकर गतिहीन नहीं होती। इसलिए कि उसकी इच्छा शक्ति में सच्चाई और प्रबलता होती है।
नदी की तरह ही वह मनुष्य भी अपनी सफलता के लिए मार्ग निकाल ही लेता है जिसकी इच्छा दृढ़ और बलवती होती है। उसकी इच्छा स्वयं ही उसका मार्ग प्रदर्शन करती चलती है। सफलता का मूल मनुष्य की इच्छा शक्ति में सन्निहित रहता है। मानवीय शक्तियों में उसकी इच्छा शक्ति सबसे प्रबल और प्रमुख होती है। जिन मनुष्यों की इच्छा शक्ति निर्बल होती है, वे साधन सम्पन्न होने पर भी कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं पा पाते। निर्बल इच्छा शक्ति वाले मार्ग में आई एक साधारण सी कठिनाई अथवा सामान्य विरोध को देखकर हिम्मत खो बैठते हैं।
मनुष्य की शारीरिक शक्ति का अपना महत्व है। लेकिन उसकी संचालिका शक्ति इच्छा शक्ति ही होती है। यदि इच्छा शक्ति का अभाव हो जाय तो मनुष्य की शारीरिक शक्ति भी कुण्ठित हो जाएगी। शरीर पर इच्छा शक्ति का ही शासन होता है। शरीर क्या है? इन्द्रियों का संगठित समूह। इन्द्रियों का कार्य ही शरीर का कार्य होता है। इन्द्रियाँ इच्छा शक्ति से ही कार्य की प्रेरणा पाती हैं। कोई कितना ही आवश्यक काम क्यों न हो, इन्द्रियाँ सक्षम और प्रस्तुत क्यों न हों, किन्तु जब तक इच्छा शक्ति की प्रेरणा न होगी वे बँधी बैठी रहेंगी, किसी काम में हाथ न लगायेंगी। जब इच्छा का स्फुरण होगा, उसकी प्रेरणा होगी तभी इन्द्रियाँ कार्यरत हो जायेंगी। शरीर इन्द्रियों के और इन्द्रियाँ इच्छा शक्ति के अधीन होती हैं। इच्छा शक्ति की जागरुकता के बिना मनुष्य कोई भी कार्य करने में सक्षम नहीं हो सकता।
संसार के छोटे बड़े सभी कार्य शक्ति द्वारा ही पूरे होते है। शक्ति के बिना मनुष्य एक पग भी आगे नहीं बढ़ सकता। श्वास लेने की सामान्य प्रक्रिया से लेकर पहाड़ काटने तक के कठिन काम शक्ति द्वारा ही सम्पादित किये जाते हैं। जब तक शक्ति है, तब तक कर्म है जब तक कर्म है तब तक जीवन है। शक्ति के समाप्त होते ही क्रिया स्थगित हो जाती है और क्रिया के स्थगित होते ही जीवन समाप्त हो जाता है। अपाहिज, असाध्य, अकर्मण्य आदि सब, जिनकी क्रियाएं स्थगित हो गई होती हैं, जो किसी मतलब और मसरफ के नहीं रहते वे एक बार प्राण भले ढो रहे हों, पर होते मृतक समान ही हैं।
किन्तु मनुष्य की वह वास्तविक शक्ति है क्या? वह वास्तविक शक्ति मनुष्य की इच्छा शक्ति ही है। क्योंकि यही जीवन के चिन्ह-कर्म की विधायिका तथा प्रेरिका होती है। जहाँ इच्छा नहीं वहाँ कर्म नहीं- और जहाँ इच्छा है वहाँ कर्मों का होना अनिवार्य है। इच्छा की ही प्रेरणा से ही मनुष्य कर्मों में प्रवृत्त होता है। यदि उसमें इच्छा की स्फुरणा नहीं उसकी प्रेरणा न हो तो मनुष्य भी जड़ बन कर पड़ा रहे। आदिकाल से मनुष्य अब तक जो विकास और उन्नति करता आया है वह सब इच्छाशक्ति का ही चमत्कार है। मनुष्य में यदि इच्छा शक्ति की विशेषता न होती तो वह अब तक भी दो हाथ-पैरों वाला वनमानुष बना अन्य पशुओं की तरह ही जीवन बिताता, गुफा- कन्दराओं में पड़ा होता। इस प्रकार आश्चर्यजनक साधनों के साथ शान से देवताओं से एक पद पूर्व न रहा रहा होता। तथापि जिनमें इच्छा शक्ति का प्राबल्य होता है वे अब भी अपनी साधना और तपश्चर्या के बल पर देवताओं के समकक्ष होना तो क्या परमात्मा के समकक्ष हो जाते हैं। जीवन की समग्र उन्नतियाँ और सारी सफलतायें इच्छा शक्ति के ही अधीन होती हैं।
नव सृजन, नव चेतना, नव निर्माण की जो भी क्रांतियां संसार में हुई हैं अथवा होती हैं उनका आधार मनुष्य की प्रबल इच्छा शक्ति ही होती है। संसार में अब तक जो भी महान और उल्लेखनीय काम हुए हैं उनको उन्हीं महामानवों ने सम्पादित किया है, जिनकी इच्छा शक्ति प्रबल और प्रखर रही है। निर्बल इच्छा शक्ति वाले लोग संसार में अब तक न कोई उल्लेखनीय कार्य कर सके हैं और न आगे ही कर सकेंगे। निर्बल इच्छा शक्ति वाले व्यक्तियों के मन में, महानता, सफलता और उन्नति के विरोधी भाव, जैसे सन्देह, आशंका, भय और अविश्वास आदि भरे रहते हैं। उसे अपने कुविचारों, कुकल्पनाओं और कुप्रवृत्तियों के जाल से निकलने का अवकाश ही नहीं मिलता जिससे वह श्रेय-पथ पर अग्रसर हो सकें। वह स्वभावतः अस्थिर विचार, अस्थिर उद्देश्य और अस्थिर निश्चय वाला होता है। एक काम को तब तक करते रहने का धैर्य उसमें नहीं होता जब तक कि उसका अन्तिम निष्कर्ष न निकल आये। वह जल्दी ही एक काम को छोड़कर दूसरा और दूसरे को छोड़कर तीसरा पकड़ता रहता है। अपनी इच्छा शक्ति की अदृढ़ता के कारण वे एक छोटी सी कठिनाई से ही भयभीत तथा उद्विग्न हो जाता है और जल्दी ही कर्त्तव्य से हट जाता है। इच्छा शक्ति की निर्बलता मनुष्य के समग्र जीवन की निर्बलता है।
सबल इच्छा शक्ति जहाँ एक प्रकार की अमोघ औषधि है वहाँ निर्बल इच्छा शक्ति विविध प्रकार के रोगों की जननी होती है। जिसकी इच्छा शक्ति निर्बल होती है वह एक छोटे से रोग में ही अपनी मृत्यु ही कल्पना करने लगता है। उसके विचार प्रतिगामी होते हैं। वह रोगों का उपचार भी करता है तो भी सोचता रहता है कि औषधि उसे लाभ नहीं कर रही है। बहुत बार तो वह काल्पनिक रोगों के भय से ही ग्रस्त बना रहता है और देर सवेर उस प्रकार का रोग उत्पन्न ही कर लेता है। मानस चिकित्सा शास्त्रियों ने अपने अनुभव के आधार पर बतलाया है कि वास्तविक रोगियों की अपेक्षा ऐसे रोगियों की संख्या अधिक होती है जो अपनी प्रतिगामी कल्पना के कारण अपने को रुग्ण तथा अस्वस्थ समझते रहते हैं। यह अनेक प्रयोगों के आधार पर सिद्ध किया जा चुका है कि यदि मनुष्य की इच्छा शक्ति प्रबल हो तो वह बिना किसी उपचार के रोगों पर विजय प्राप्त कर सकता है।
निर्बल इच्छा शक्ति की हानियाँ केवल व्यक्ति तक ही सीमित नहीं रहतीं। वे समाज पर भी अपना प्रभाव डालती हैं। मनुष्य की इच्छा शक्ति में एक प्रकार की अदृश्य तरंगें होती हैं जो मानसिक गतिविधियों से निकल कर वातावरण में फैल जाती हैं और दूसरों को प्रभावित करती हैं। उनके मानसिक भावों को अपने प्रकार का बनाने का प्रयत्न करती हैं। यही तो कारण है कि जिस स्थान पर कमजोर और कायर मन वाले लोग रहते हैं वहाँ प्रायः भय और आशंका का वातावरण बना रहता है। किसी संगठन में दुर्बल इच्छा शक्ति वाले अपनी गतिविधियों से औरों को भी निर्बल और हतोत्साह बना देते हैं। युद्ध में एक कायर सैनिक भागकर और भी अनेक सैनिकों को भागने की प्रेरणा देता है। जिस देश, समाज अथवा राष्ट्र के नेता निर्बल इच्छा शक्ति वाले होते हैं वह देश, समाज अथवा राष्ट्र बहुधा अवनति और पराभव के ही अधिकारी बनते हैं। नेता का प्रभाव विस्तृत होता है, उसमें जनगण का विश्वास होता है। इसी कारण, नेता यदि निर्बल इच्छा शक्ति वाला होता है तो उसकी संक्रामकता निर्बलता जनता का भी हृदय दुर्बल बना देती है। सारे राष्ट्र में भय आशंका और कायरता का वातावरण उत्पन्न हो जाता है। जहाँ इस तरह के पाप अभिशाप जनगण को दबाये होते हैं वहाँ उन्नति, प्रगति अथवा विजयश्री का पदार्पण नहीं होता।
इसके विपरीत जिस समाज अथवा राष्ट्र के नेता प्रबल इच्छा शक्ति वाले होते हैं, वह समाज और राष्ट्र भी प्रबल तथा शक्तिशाली बना रहता है, फिर चाहे वह विस्तार और जनसंख्या की दृष्टि से छोटा ही क्यों न हो। जापान, इंग्लैण्ड और जर्मनी आदि देश इस बात के ज्वलंत प्रमाण हैं। भारत में भी राणा प्रताप, शिवाजी, गुरुगोविन्द सिंह, हम्मीर देव आदि के ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं जो साधन और सैन्य शक्ति की दृष्टि से नगण्य होने पर भी सर्वसम्पन्न मुगल बादशाहों के अत्याचारों से टक्कर लेते रहे। महात्मा गाँधी तो प्रबल इच्छा शक्ति के एक जीते-जागते आदर्श थे। उनके पास एक प्रबल, दृढ़ तथा प्रखर इच्छा शक्ति को छोड़कर और क्या साधन थे? न सेना न शस्त्र और न साम्राज्य। तथापि उन्होंने अपनी एक उस अमोघ इच्छा शक्ति के आधार पर उदयास्त पर्यन्त फैले अंग्रेजी साम्राज्य से जम कर टक्कर ली और अपनी शान्ति अहिंसा की नीति से ही उनकी तोपों, बन्दूकों, गनमशीनों और सेनाओं की शक्ति को पराभूत कर दिया। महात्मा गाँधी की प्रबल इच्छा शक्ति का ही तो यह चमत्कार था कि उनके नेतृत्व का भारत आबाल वृद्ध स्त्री-पुरुषों के साथ साधनहीन होने पर भी अजेय बन गया था। इच्छा शक्ति की महिमा अपार और अपूर्व है।
यदि हमें अपने जीवन को उन्नति और प्रगति के द्वारा सार्थक बनाना है तो अपनी इच्छा शक्ति को बढ़ाना और प्रबल बनाना होगा। तभी हममें दृढ़ता, साहस और कार्य क्षमता का विकास होगा। हम उत्साही वीर और संकल्पवान बनेंगे। हममें वह कर्मठता आएगी जो जीवन पथ की बाधाओं तथा विपत्तियों से भी कुण्ठित न हो सकेगी। सफलता का पथ निश्चय ही बड़ा कठिन और दुर्गम होता है। उसको सरल और प्रशस्त बनाने में मनुष्य की इच्छा शक्ति का बड़ा उपयोग है। इच्छा शक्ति की दृढ़ता और प्रबलता मनुष्य को पराक्रमी, पुरुषार्थी और धीर-गम्भीर बना देती है। प्रबल इच्छा शक्ति वाला जिस काम में हाथ डालता है, उसे तब तक नहीं छोड़ता जब तक पूरा नहीं कर लेता। वह बाधाओं विरोधों से साहसपूर्वक लड़ता हुआ बढ़ता रहता है। उन्नति और सफलता का इसके सिवाय और कोई उपाय नहीं है।
संसार की सारी सफलताओं का मूल मन्त्र है प्रबल इच्छा शक्ति - इसी के बल पर विद्या, सम्पत्ति और साधनों का उपार्जन होता हैं। यही वह आधार है जिस पर आध्यात्मिक तपस्याएं और साधनाएं निर्भर रहती हैं। यही वह दिव्य सम्बल है जिसे पाकर संसार में खाली हाथ आया मनुष्य वैभव और ऐश्वर्यवान बनकर संसार को चकित कर देता है। यही वह मोहन ओर वशीकरण मन्त्र है जिसके बल पर एक अकेला पुरुष कोटि-कोटि जन-गण को अपना अनुयायी बना लेता है। जीवन में उन्नति और सफलता की आकाँक्षा करने से पहले अपनी इच्छा शक्ति को प्रबल तथा प्रखर बना लेने वालों को न कभी असफल होना पड़ता है और न निराश। वे अपनी मनोवाँछित विजयमाल पहन कर ही मानते हैं।