एकोऽहं बहुस्यामः की पृष्ठभूमि

August 1970

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पेंगल तब महर्षि नहीं बने थे। उसके लिये आत्म-सिद्धि आवश्यक थी। पर पेंगल साधना करते-करते पदार्थों की विविधता में ही उलझ कर रह गये। पशु-पक्षी, वन्य जन्तु, मछलियाँ, साँप, कीड़े-मकोड़ों में शरीरों और प्रवृत्तियों की भिन्नता होने पर भी शुद्ध अहंकार और चेतनता की एकता तो समझ में आ गई पर विस्तृत पहाड़, टीले, जंगल, नदी, नाले, समुद्र, सूर्य, चन्द्रमा, तारे, प्रकाश, आकाश और पृथ्वी पर पाये जाने वाले विविध खनिज, धातुएं, गैसें, ठोस आदि क्या हैं, क्यों हैं और उनमें यह विविधता कहाँ से आई है-यह उनकी समझ में नहीं आया। इससे उनकी आत्म-दर्शन की आकाँक्षा और बेचैन हो उठी।

वे याज्ञवलक्य के पास गये और उनकी बारह वर्ष तक सेवा-सुश्रूषा कर पदार्थ-विद्या का ज्ञान प्राप्त किया। इस अध्ययन से पेंगल का मस्तिष्क साफ हो गया कि जड़ पदार्थ भी एक ही मूल सत्ता के अंश हैं। सब कुछ एक ही तत्व से उपजा है। ‘एकोऽहं बहुस्यामः’,’एक नूर से सब जग उपजिआ’ वाली बात उन्हें पदार्थ के विषय में भी अक्षरशः सत्य प्रतीत हुई। पैंगलोपनिषद् में इस कैवल्य का उपदेश मुनि याज्ञवलक्य ने इस प्रकार दिया है-

“सदेव सोग्रयेदमग्र आसीत्। तन्नित्यमुक्तमविक्रियं सत्य ज्ञानन्द परिपूर्ण सनातनमेकमेवातीयं ब्रह्म॥ तस्मिन् मरुशुक्तिमस्थाणुस्फाटिकादी जल रौप्य पुरुष रेखा ऽऽदिज्ञल्लोहित शुक्ल कृष्णा गुणमयी गुण साम्या निर्वाच्या मूलप्रकृतिरासीत्। तत्प्रतिबिम्बितं यत्तत् साक्षि चैतन्यमासीत्॥”

-पैंगलोपनिषद्

हे पेंगल! पहले केवल एक ही तत्व था। वह नित्य मुक्त, अविकारी, ज्ञानरूप चैतन्य और आनन्द से परिपूर्ण था, वही ब्रह्म है। उससे लाल, श्वेत, कृष्ण वर्ण की तीन प्रकाश किरणों या गुण वाली प्रकृति उत्पन्न हुई। यह ऐसा था जैसे सीपी में मोती स्थाणु में पुरुष और मणि में रेखायें होती हैं। तीन गुणों से बना हुआ क्षी भी चैतन्य हुआ। वह मूल प्रकृति फिर विकारयुक्त हुई तब वह सत्व गुण वाली आवरण शक्ति हुई, जिसे अव्यक्त कहते हैं। उसी में समस्त विश्व लपेटे हुए वस्त्र के समान रहता है। ईश्वर में अधिष्ठित आवरण शक्ति से रजोगुणमयी विक्षेप शक्ति होती है, जिसे महत् कहते हैं। उसका जो प्रतिबिम्ब पड़ता है वह चैतन्य हिरण्य गर्भ कहा जाता है। वह महत्तत्व वाला कुछ स्पष्ट और कुछ अस्पष्ट आकार का होता है।

इसी उपनिषद् से आगे क्रमशः इसे विक्षेप से आत्मा, आत्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी आदि उत्पन्न हुए बताये हैं। वस्तुतः यह परतें एक ही तत्व की क्रमशः स्थूल अवस्थायें हैं, जो स्थूल होता गया वह अधिकाधिक दृश्य, स्पृश्य होता गया। ऊपरी कक्षा अर्थात् ईश्वर की ओर वही तत्व अधिक चेतन और निर्विकार-निराकार होता गया। वायु की लहरों के समान विभिन्न तत्व प्रतिभासित होते हुए भी संसार के सब तत्व एक ही मूल तत्व से आविर्भूत हुए हैं। उसे महाशक्ति कहा जाये, आत्मा या परमात्मा-सब एक ही सत्ता के अनेक नाम हैं।

विज्ञान की आधुनिक जानकारियाँ भी उपरोक्त तथ्य का ही प्रतिपादन करती हैं। जड़ पदार्थ चाहे वह लोहा हो या सोना, ताँबा हो या पारद-(1) गैस, (2) द्रव, ठोस, इन तीनों अवस्थाओं में पाये जाने वाले जो भी तत्व हैं, उनमें क्रमबद्ध एकता है। अब तक 108 तत्वों का पता लगाया गया है। यह सभी तत्व ‘पीरियाडिक टेबल’ में सजाकर रखे गये तो पता चला कि सभी तत्वों में केवल प्रोट्रॉन। यह धन विद्युत आवेश कण हैं जो नाभिक या न्यूक्लियस में पाया जाता है) और इलेक्ट्रान (यह परमाणु का ऋण विद्युत आवेश कण होता है) की संख्या का अन्तर मात्र है। जिस वस्तु में इलेक्ट्रान या प्रोट्रॉन (परमाणु में जितनी संख्या प्रोट्रॉन की होती है, उतनी ही इलेक्ट्रान की भी होती है) की मात्रा कम होती है, वह उतना ही हल्का और सूक्ष्म होता है। जिसमें संख्या बढ़ती गई, वह उतना ही ठोस, स्थूल, दृश्य और स्पृश्य होता गया।

हाइड्रोजन सबसे हल्की गैस है। उसमें इलेक्ट्रान या प्रोट्रॉन की संख्या 1 होती है। हीलियम में 2, लीथियम में 3, बैरीलियम में 4, बोरान 5, कार्बन 6, नाइट्रोजन 7, ऑक्सीजन 8, फलोरीन 9, नियान 10, सोडियम 11, मैग्नीशियम 12, एल्युमीनियम 13, सिलिकन 14, फास्फोरस 15, सल्फर 16, क्लोरीन 17, आर्गन 18, पोटैशियम 19, कैल्शियम 20, स्कैण्डियम 21 आदि।

इसी क्रम से पारे में 80 इलेक्ट्रॉन और प्रोट्रॉन तथा सोने में 76 इलेक्ट्रान पाये जाते हैं। आर्टिफीशियल ट्राँसम्यूटेशन (एक प्रयोग है जिसमें किरणों द्वारा न्यूक्लियस पर प्रहार करके इलेक्ट्रान को बदला जाता है) द्वारा पारे के नाभिक पर बमबाड़ किया गया तो वैज्ञानिकों ने पाया कि एक इलेक्ट्रान कम हो जाने से जब 79 ही इलेक्ट्रान्स बचे तो वही पारे का शुद्ध परमाणु, सोने के शुद्ध परमाणु में बदल गया। प्रकृति का यह प्रयोग बताता है कि यदि मनुष्य अपने भीतर बढ़े हुए दुर्गुणों की मात्रा कम कर सके तो वह अधिकतम शुद्ध और मूल्यवान् अवस्था को पहुँच सकता है।

सोना और पारा ज्यादा अपेक्षित घनत्व (रिलेटिव डेन्सिटी) वाले पदार्थ हैं, इसलिये इनके प्रयोगों में कमजोर और भौतिकवादी व्यक्तियों की तरह अस्थायित्व देखने में आया। जड़ अपना स्वभाव जल्दी नहीं बदलता। किन्तु जो अधिक सूक्ष्म होते हैं, वह यदि कोई अच्छी बात देख लेते हैं तो अपने आपको उसके अनुरूप जल्दी ही ढालकर अपनी उपयोगिता, स्थायित्व और मूल्य बढ़ा लेते हैं। कम आपेक्षित घनत्व वाले पदार्थों में यह परिवर्तन तीव्र और स्थायी होता है। उदाहरण के लिये लीथियम परमाणु जिसमें इलेक्ट्रान की संख्या तीन होती है, प्रोटान्स का बम्बार्ड द्वारा हीलियम परमाणु में बदल देता है।

अब यदि ऊपर दी हुई सारिणी को उल्टा चलें और स्कैण्डियम से बदलना प्रारम्भ करें तो क्रमशः कैल्शियम, पोटेशियम, आर्गन इत्यादि में बदलते हुए हाइड्रोजन तक बना सकते हैं। यद्यपि यह एक बहुत ही कठिन और खर्चीला प्रयोग है, पर यह निर्विवाद सत्य है कि यदि प्रयोग किये जायें तो लोहे को भी हाइड्रोजन में बदला जा सकता है।

हाइड्रोजन सूर्य की सबसे समीपवर्ती गैस है, यही गैस सूर्य में जलती है। फिर यदि हमारे शास्त्रों और योग ग्रन्थों में सूर्य को ही सम्पूर्ण प्रकृति का आत्मा, अधिष्ठाता माना माना गया है, तो उसमें अतिशयोक्ति क्या है? यह अधिक संवेदनशील, त्रिगुणात्मक शक्ति वाला, सृष्टि के कण-कण में अच्छादित तत्व है। किसी दिन नाभिकीय विद्या यह बतायेगी कि सूर्य ही क्रमशः स्थूल होता हुआ प्रकृति में ढला है, यही वह चेतना है जो हमारे मनोमय जगत का भी नियन्त्रण करती है। इस विद्या को जान लेने पर गायत्री-उपासना के आधार और सावित्री महाविद्या की उपलब्धियों में लोग विलक्षण सत्यतायें पायेंगे। सूर्य हमारी आत्मा है, जैसा कि पैंगलोपनिषद् में कहा है-हमारे ज्ञान में, अनुभूति आ जाये तो हमारे लिये शरीरों को बदल डालने वाले अनेक सत्यों को वैज्ञानिक ढंग से प्रमाणित कर सकना सम्भव हो जायेगा।

आत्मा इन तत्वों की श्रेणी का सबसे सूक्ष्म तत्व है। महर्षि कणाद ने उसे पदार्थ माना है। वह 108 तत्वों के इस क्रम में मूल होने के कारण ही है। आत्म शक्ति और पदार्थ दोनों ही है-जिस दिन हम इस बात को जान लेंगे, उन दिन पदार्थ और परमात्मा पर मानसिक रूप से नियन्त्रण करना भी निःसन्देह सम्भव हो जायेगा। अभी यह विद्या हम भारतीयों के पास है, पीछे उसका लाभ सारे संसार को प्राप्त होगा।


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