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August 1970

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जो साधक सत्य की आज्ञा में उपस्थित रहता है वह मार अर्थात् मृत्यु के प्रवाह को भी तैर जाता है।

-आचाराँग 1।3। 3।

वीर्य कोषों में जीवन तो था ही। सम्मिलित भ्रूण छितर गया और वे सब पीपल का दूध चूस-चूस कर उसी तरह बढ़ने लगे जैसे कोई एक कोषीय जन्तु (प्रोटोजोन) विकसित होता है। आखिर समुद्री आहार ले लेकर यह सब 1 लाख पुत्रों में परिणत हो गये। उनमें सबसे प्रथम बालक “नारान्तक” नाम से प्रख्यात हुआ शेष सब भाइयों को लेकर उसने “बिहवावल” राजधानी बनाकर स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया। यह सभी 1 लाख भाई जुड़वाँ भाइयों के समान इतने मिलते जुलते थे कि बाहर का कोई भी व्यक्ति उनमें से किसी की भी पहचान नहीं कर सकता था।

अरब में पाये जाने वाले फायनिक्स पक्षी (यह पक्षी वहाँ रेगिस्तान में 6 वीं शताब्दी तक पाए जाते रहे) के सम्बन्ध में भी एक ऐसा ही पौराणिक आख्यान आता है। जिसमें यह बताया गया है कि रेगिस्तान में एक जगह राख पड़ी हुई थी। एक सन्त ने उसमें से ही युवा फ्रायनिक्स को बनाया। ऐसा लगता है कि इस राख में प्रजनन वाले कोई अंश रहे होंगे और सन्त उनका जीवन विज्ञान से सम्बन्ध जानते रहे होंगे तभी उनके लिए यह सम्भव हुआ होगा।

रघुवंश में “युवनाश्व” नामक राजा का वर्णन आता है। वह एक बार जंगल में भटक कर एक ऋषियों के आश्रम में पहुँच गये। उन दिनों इस आश्रम में इस तरह का एक प्रयोग चल रहा था। विविध रसायनों से भरा एक घड़ा यज्ञ वेदी पर रखा गया था। यज्ञ के माध्यम से ऋषिगण उसमें उतारने का प्रयत्न का रहे थे। घड़े का अधिकाँश भाग जल था। (स्मरण रहे प्रोटोप्लाज्मा जिससे जीवित शरीरों का निर्माण होता है उसमें अधिकाँश भाग जल का ही होता है) रात में सब लोग सो गये। युवनाश्व भी यज्ञ मंडप के समीप ही सोये थे। रात में उन्हें प्यास लगी। वहाँ कहीं पानी नहीं दिखाई दिया। प्यास रोक सकने की स्थिति में भी वे नहीं थे निदान उस घड़े से ही लेकर जल उन्होंने पी लिया। अभिमंत्रित जल उनके उदर में गर्भ के रूप में बढ़ने गला। ऋषियों के लिए यह और भी कौतूहल की बात हो गई थी इसलिए वे बराबर युवनाश्व की देखभाल करते रहे। अन्त में पूर्ण विकास होने पर युवनाश्व की दाहिनी कोख की शल्य क्रिया करके बच्चे को जीवित निकाला गया। यह बालक ही मान्धाता नाम से विश्व विख्यात हुआ।

सुद्युम्न की कथा अग्नि पुराण में आती है वह पुरुष से स्त्री बन गया था। तब उसका नाम “इला” हो गया। इला एक दिन राजकुमारी के वेष में वन-बिहार के लिए निकली। सोम के पुत्र “बुध’ ने उसे देखा तो वे कामासक्त हो उठे। उन्होंने “इला” को वहीं स्वीकार कर लिया “बुध” उसी प्रकार की नक्षत्रीय शक्ति है जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा। वह कोई पुरुष नहीं था। बुध की चेतना शक्ति ने ही इला के गर्भ के प्रवेश किया था। इसी अमैथुनी सहवास से पुरुरवा नामक प्रतापी राजा का जन्म हुआ। भारतीयों में गोत्रों के नाम सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी आदि नाम से चलते हैं यह इन्हीं आख्यानों से प्रारम्भ हुए हैं अर्थात् यहाँ अमैथुनी सन्तानों का प्रचलन किन्हीं दिनों में सामान्य बात थी। यहाँ का वैदिक युग और पुराण काल दोनों ही विज्ञान की चरम प्रगति के काल थे। उन दिनों देव-शक्तियों के आवाहन और धारण द्वारा अमैथुनी सन्तानें उत्पन्न करने के सैंकड़ों सफल प्रयोग हुए। यदि भारतीय अपने आपको यों प्रत्यक्ष देव वंश का मानें तो इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिए। प्रारम्भ के “स्वायंभु’ पुरुष की उत्पत्ति भी तो ईश्वरीय ही है। उस पद्धति के बीच में भी कभी भी पुनः नया रूप देना सम्भव हो पाये तो उसमें किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिए।

आज विज्ञान इस दिशा में तेजी से प्रयोग कर रहा है और एक दिन आने वाला है जब प्रयोगशालाओं में बच्चे पैदा होंगे और उपरोक्त पौराणिक गाथाओं की पुष्टि करेंगे। आज जो लोग वेद पुराणों को कल्पना की उड़ान कहते हैं। वही उन्हें सत्य सिद्ध होते अपनी आँखों से देखेंगे।

वैज्ञानिकों ने जीवित शरीर की इकाई प्रोटोप्लाज्मा का विश्लेषण कर लिया इसमें हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, सिलिकन, कार्बन सोडियम, कैल्शियम, क्लोरीन, गंधक फास्फोरस, मैग्नीशियम और आयोडीन तत्व पाये जाते हैं उन सबको प्रकृति प्राप्त किया जाना सम्भव हो गया है अब उसमें चेतना डालना भर शेष रह गया है जिस दिन यह भी हो जायेगा उस दिन अमैथुनी सन्तानों का निर्माण भी होने लगेगा। तब सन्तान के लिए न स्त्री की आवश्यकता होगी न पुरुष की, किन्हीं प्रकाश किरणों से कृत्रिम -सन्तानें उस प्रकार तैयार कर ली जाय करेंगी जैसे घड़े से कुम्भज ऋषि को पैदा कर लिया गया था। पैतृक गुणों की दृष्टि से यह सन्तानें देव शक्तियों का ही प्रतिनिधित्व करेंगी।

कोश (सेल) जीवित पदार्थों द्वारा बनाये जाते हैं। पहले भोजन का प्रोटीन बनता है फिर प्रोटीन से “सेल”। भोजन को निर्जीवन कहें और कोश (सेल को जीवित तो प्रोटीन को उनके बीच की इकाई कहेंगे। प्रोटीन ही सजीव “सेल्स” का निर्माण करते हैं। इसके बिना हाथ पाँव, पेट, मुँह, दाँत, आदि कुछ नहीं बन सकते। मुर्गी के अण्डों में प्रोटीन आश्चर्यजनक रूप से बढ़ाता पाया गया है इससे यह आशा हो गई है कि जिस प्रकार अन्न से अमीनो एसिड और अमीनो एसिड 24 तत्वों में बदलता हुआ जीवित कोश बन जाता है उसी प्रकार प्रोटीन सीधे भी रासायनिक क्रियाओं से तैयार किया जा सकता है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि वंश परम्परा और विकास के लिए यह प्रोटीन की बनावट और विशेषता ही सहायक है। कोर्नल विश्व विद्यालय और फेलर इन्स्टीट्यूट न्यूयार्क आदि में यह पता लगाया गया है कि न्यूक्लिक तेजाब (जो लक्षण बीज (जीन्स) के मूल होते हैं) और अमीनो एसिड्स दोनों के अणु मिल कर ही शरीर का भवन और चेतना तैयार करते हैं। जीवित सेल में प्रोटीन के उत्पादन का पता लगते ही अमैथुनी सृष्टि का निर्माण प्रारम्भ हो जायेगा।

मियामी (फ्लोरिडा) विश्व विद्यालय के आणविक विकास संस्थान के डॉ0 सिडनी फाक्स और उनके सहयोगियों का ध्यान उस ओर गया है जब पृथ्वी में पहली बार जीवन का आविर्भाव हुआ होगा। उस समय तो यहाँ गैस, ताप और पानी ही रहा होगा। इसलिए एक ऐसा थियेटर तैयार करके डॉ0 फाक्स परीक्षण कर रहे हैं जिससे वैसा ही वातावरण रहे जैसे जीवन के प्रादुर्भाव काल में रहा होगा। उन्होंने देखा गैसों को गरम करने से अमीनो अम्ल बनते हैं। इस अम्ल को गर्म करने से वह प्रोटोनायड का रूप ले लेता है। यदि उसमें पानी मिला दें तो एक ऐसा जटिल तत्व बन जाता है जो हमारे कोषाणुओं से बहुत कुछ मिलता जुलता है। यदि जीवित सेल की इस तरह रचना सम्भव हो गई तो केवल उस ढाँचे का निर्माण ही शेष रह जायेगा जिसमें भर कर मनुष्य,पशु-पक्षी, कुत्ते, बिल्ली कोई भी आकृतियाँ बना लेना सम्भव हो जायेगा।

प्रकृति के यह विलक्षण रहस्य जब तक अप्रकट हैं तक तक हम स्थूलताओं से घिरे हैं यह रहस्य पूर्णतया प्रकट होंगे तो चेतन शक्तियों की महत्ता का पता चलेगा। हम यह मानने को विवश होंगे कि चेतन शक्तियों ने जब धरती में मनुष्य का आविर्भाव किया होगा तब प्राकृतिक परिस्थितियाँ ही उनके लिए पर्याप्त रही होंगी। विकासवाद की जटिलता से गुजर कर विकसित प्राणी तैयार करना उसके लिए आवश्यक न रहा होगा।


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