6 सितम्बर 1968 को दिल्ली से छपने वाले अखबार “वीर अर्जुन” में एक 6 वर्षीय बालिका के यौन परिवर्तन का समाचार छपा है। कैलाशनगर (अगरतल्ला) निवासी एक क्लर्क की 6 वर्षीया पुत्री सुमित्रा के शरीर में काफी दिन से ही विलक्षण शारीरिक परिवर्तन के चिन्ह प्रकट हो रहे थे। पिता ने अस्पताल में परीक्षण कराया। डाक्टरों ने बताया कि बालिका का यौन परिवर्तन हो रहा है। बाद में लड़की पूर्ण लड़का बन गई। ड्रेसडन के शल्य चिकित्सक डॉ0 बार्ने क्रुत्प ने जिस ईनर बेलरन नामक डेनिश चित्रकार को पुरुष से स्त्री बना दिया उसका वृत्तान्त भी कम मनोरंजक नहीं। ईनर वेलनर जब बीस वर्ष का था तभी उसने अपने साथ पढ़ने वाली एक लड़की से गंधर्व विवाह कर लिया। चित्रकार के हाव-भाव बहुत कुछ स्त्रियों जैसे थे यह देखकर उसकी पत्नी प्रायः मुस्कराया करती पर तब तक उनके दाम्पत्य जीवन के सुख में किसी प्रकार का अन्तर नहीं आया।
एक दिन ईनर को उसकी स्त्री ने हँसी-हँसी में अपने कपड़े पहना दिये। इन कपड़ों में ईनर बिलकुल लड़कियों जैसा लगा। पीछे उसे स्त्रियों के वेष में देखकर उसके मित्रों ने उसका नाम भी स्त्रियों का रख दिया। अब वह “लिली” नाम से पुकारा जाने लगा। यह नाम मानो उसके लिये ही चुना गया था। अन्त तक वह स्थायी रह भी गया क्योंकि उसके भीतर सचमुच एक नारी का व्यक्तित्व छिपा था। समय बीतने के साथ-साथ वह लक्षण और स्पष्ट होते गये। उसकी मानसिक प्रक्रियायें तो तेजी से नारी के स्वभाव में बदलती गई। उसे अपने ही यौन-अंगों के प्रति विलक्षण आकर्षण होता। इसे कुछ लोग उसकी मूर्खता और वहम बताते। कई शल्य-चिकित्सकों ने तो उसे मूर्ख कहकर अपने यहाँ से भगा भी दिया।
वर्तमान विज्ञान-वेत्ताओं का ध्यान प्रकृति की इस विलक्षणता की ओर गया होता कि उसके प्रत्येक कण में पुरुष और नारी भाव छिपा पड़ा है तो वे विकासवाद को यों ही गले का हार न बनाते। वे यह भी सोचते कि जिस प्रकृति में ऐसे विलक्षण सत्यों के लिये स्थान है वह स्वतन्त्र पुरुष या स्त्री का अमैथुनी निर्माण भी कर सकती है।
फरवरी 1930 में ईनर की अवस्था बहुत गम्भीर हो गई। उसने आत्म-हत्या करने तक का निश्चय किया। सौभाग्य से इन्हीं दिनों ड्रेसडेन डॉक्टर वार्नेक्रुत्स पेरिस आये हुये थे। सो ईनर के कई मित्रों ने उनसे परीक्षण कराने की सलाह दी। ईनर ने ऐसा ही किया। वार्नेक्रुत्स ने उसके शरीर की परीक्षा करके बताया कि उसके शरीर के भीतर स्त्री और पुरुष दोनों के ही लक्षण हैं पर दोनों में से पूर्ण विकास के लिये किसी को भी अवसर नहीं मिल रहा इसलिये यह कष्टपूर्ण स्थिति है। स्त्री होने की सम्भावनायें अधिक थीं वार्नेक्रुत्स ने उसे बर्लिन जाकर प्रोफेसर गेबहार्ड के पास शल्य चिकित्सा की सलाह दी।
ईनर बर्लिन चला गया। वहाँ उसका कठिन आपरेशन किया गया। आपरेशन के कुछ ही समय बाद उसकी आवाज विलक्षण ढंग से बदलने लगी। अब उसकी आवाज कोमल और सुरीली हो रही थी। आपरेशन से उसकी पुरुष योनि स्त्री योनि में बदल ही चुकी थी। कुछ ही महीनों में उसके स्तन भी उभर आये और इस तरह एक अच्छा हृष्ट-पुष्ट युवक कोमल भोली-भाली स्त्री में बदल गया। प्रकृति की इस विलक्षणता पर वैज्ञानिक कुछ भी प्रकाश डालने में असमर्थ हैं पर अब वे यह स्वीकार करते हैं कि प्रकृति में कोई विलक्षण मानसिक चेतना काम कर रही है और वह अपने आप ही ऐसे विलक्षण जीव और शरीर उत्पन्न करती रहती है। सम्भव है आरम्भ में मनुष्य का आविर्भाव भी ऐसी ही अमैथुनी स्थिति में हुआ हो। इसी प्रसंग में “अर्द्धनारीश्वर” के रहस्यों पर अगले अंकों में प्रकाश डाला जायेगा जिसमें प्रकृति की सर्वशक्तिमत्ता का और भी विलक्षण प्रतिपादन होगा। अगले अंकों में ऐसे पुरुषों के उदाहरण भी पढ़ने को मिलेंगे जिन्हें स्त्रियों के समान ही मासिक धर्म भी होता था और जो दूध भी दे सकने की स्थिति में थे। यह घटनायें इसलिये दी गई हैं कि उनसे स्त्री और पुरुष के प्रजनन कोषों में परस्पर एक दूसरे के गुणों का विद्यमान होना निश्चित समझा जाये। पर इससे सम्भावना मात्र सिद्ध होती है ऐसा नहीं जान पड़ता कि प्रकृति ने अपने आप कहीं से ईंट-पत्थर जोड़कर पुरुष या स्त्री का शरीर गढ़ दिया हो। पौराणिक कथानकों पर यदि विश्वास करें तो उनके ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिनसे स्वतन्त्र सन्तान उत्पन्न करने के अनेक वैज्ञानिक प्रयागों का विवरण मिलता है।
मार्कण्डेय पुराण में अनुसुइया के तीन पुत्र चन्द्रमा, दत्तात्रेय और महर्षि दुर्वासा के जन्म का विवरण आता है। यह तीनों ही देव शक्तियों के अंशावतार थे उनकी चेतना का सम्बन्ध ब्रह्माण्ड की अदृश्य शक्तियों के साथ था जबकि शरीरों का निर्माण रासायनिक ढंग से हुआ था।
कथा इस प्रकार है। एक बार सती अनुसुइया ने ऋतु स्नान किया। प्राकृतिक जीवन में रहने के कारण उनका सौंदर्य वैसे ही अपरिमित था स्नान के बाद तो जैसे स्वयं कामदेव ही उनके शरीर में उतर आये। रजोदर्शन के उपरान्त शृंगार किये हुए अनुसूइया को देखकर एकाएक महर्षि अत्रि का मन कामोद्वेग से विचलित हो उठा। उन्होंने मन ही मन अनुसूइया के साथ सम्भोग का वैसे ही चिन्तन किया जैसे कोई स्वप्न में किसी रमणी के साथ समागम का दृश्य देखता है। इससे उत्पन्न हुए विकार को व्यर्थ न जाने देने के लिए उन्होंने तीन प्रकार के रसायन (1) सतोगुणी जिसे विष्णु का अंश कहते हैं (2) रजोगुणी- ब्रह्मा का अंश और (3) तमोगुणी - शिव का अंश तैयार किये। यह तीनों एक प्रकार से अण्ड थे जिनमें उन्होंने अपने वीर्य कोष स्थापित किये। भ्रूण के विकास के लिए उचित परिस्थितियाँ आवश्यक होती हैं। इसलिए इन तीनों को बाद में उन्होंने अनुसूइया के गर्भ में उसी प्रकार बिना सम्भोग के प्रतिष्ठित किया जिस प्रकार ब्रिटेन में प्रयोग करके श्रीमती एमीनेरी जोन्स के गर्भ में कृत्रिम गर्भाधान कराकर मोनिका नामक लड़की को जन्म दिया (इस आशय का विस्तृत समाचार लन्दन से छपने वाले मासिक पत्र के 15 जुलाई 1967 के ‘टिट्विट्स’ पत्रिका में छपा है। यह लेख श्री जिराल्ड मैकनाइट द्वारा प्रस्तुत किया गया है)। यही गर्भ अन्त में क्रमशः चन्द्रमा दत्तात्रेय और दुर्वासा के रूप में जन्मे। इन तीनों सन्तानों में अपने-अपने रसायनों के प्रकृति गुणों के साथ दैवी गुणों की बहुतायत थी।
तामस मनु की उत्पत्ति भी इसी प्रकार स्वराष्ट्र नामक राजा के प्रभाव से एक हरिणी के गर्भ से हुई थी। इनमें शारीरिक दृष्टि से पशुओं के लक्षण होते हुए भी मानसिक दृष्टि से प्रकाँड पाँडित्य था। नृपति स्वराष्ट्र ने यह विद्या बहुत तप करके पाई थी। उन्होंने पंचाग्नि विद्या का गहन अध्ययन, अन्वेषण और प्रयोग किया था।
रावण स्वयं बड़ा वैज्ञानिक था। उसने भी अपनी मन्दोदरी के उदर से एक ऐसे ही भ्रूण को जन्म दिलाया था पर पीछे उसने उसे असफल मानकर समुद्र में फिंकवा दिया। इस भ्रूण की विलक्षणता यह थी कि उसमें लाखों वीर्य कोष एक साथ विकसित हो गये थे। गर्भ में यह संभव न था कि वे सब बच्चों हो जाते। दबे रहने के कारण अविकसित रह गये इसीलिए यह प्रयोग असफल हो गया था। यही भ्रूण बहते-बहते एक पीपल की जड़ों में अटक गया।