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August 1970

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मनः प्रभादार्द्बधन्ते

दुःखानि गिरि कुटवत्।

तद्वशा देव नश्यन्ति

सूर्यस्याग्रे हिमं यथा॥

अपने मन के प्रमाद से ही संसार में समस्त दुःख पर्वत की चोटी के समान बढ़ जाया करते हैं। अपने मन की विवेकशीलता होने पर वे सारे दुःख शीघ्र ही ऐसे नष्ट हो जाया करते हैं।


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