एक शरीर यहाँ भी-वहाँ भी

August 1970

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‘श्रीमान जी! मुझे अपने गुरुदेव के दर्शन करने वाराणसी जाना है। मुझे तीन दिन का अवकाश चाहिये और आज थोड़ा जल्दी अवकाश चाहिए, ताकि रात की गाड़ी पकड़ने के लिये तैयारी कर सकूँ। गोरखपुर के एक रेलवे दफ्तर में यह शब्द एक छोटे-से कर्मचारी अविनाश बाबू ने आफिस इंचार्ज श्री बाबू भगवती चरण घोष (कलकत्ता निवासी) से कहते हुए छुट्टी का प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत किया।

श्री भगवती चरण बाबू रुष्ट हो उठे-छुट्टी! छुट्टी!! छुट्टी!!! तुम्हारे गुरुदेव हुए या आफत हो गए। जब देखो, उनके ही दर्शनों को जाते रहते हो। कल जाना है, तो चले जाना। अभी जाकर काम करो।

अविनाश बाबू चुपचाप अपनी कुर्सी के पास आ गये, पर उनका मन काम करने में न लगा। जैसे-जैसे आफिस के घण्टे पूरे किये, इसी बीच कुछ नरम-से हुए भगवतीचरण जी आये और बोले-चलो मेरी कार पर, मैं तुम्हें घर छोड़ दूँगा, तो बनारस जाने की तैयारी कर लेना।

अविनाश और भगवतीचरण दोनों कार से चल पड़े। अविनाश का मकान सड़क के कुछ दूर मोड़ पर पड़ता था, मोड़ तक कार चली गई। इधर अविनाश बाबू भारी हृदय से उतर रहे थे, उधर दूसरी खिड़की के पास कोई व्यक्ति आया और भगवतीचरण से बोला-”भगवती बाबू, आप अपने मातहतों के प्रति बहुत निर्दय हैं। आपका यह स्वभाव अच्छा नहीं।” बस, इतने ही शब्द, इतनी ही देर की पहचान। आकृति तो पूरी-की-पूरी भगवतीचरण के मन में बैठ गई, पर वह आश्चर्यचकित रह गये कि यह एक सेकेण्ड में उस सुनसान में कौन व्यक्ति था, जो एकाएक प्रकट हुआ और इस तरह आदेश देकर अन्तर्धान हो गया मानो उसकी मुझसे वर्षों से पहचान रही हो। उनका शरीर भय से काँप रहा था। यह शब्द अविनाश ने भी सुने थे, पर उन्होंने किसी को ही देखा नहीं। इस एक छोटी-सी घटना ने भगवती चरण के जीवन में क्राँतिकारी परिवर्तन कर दिया। वे जीवन भर के लिये आध्यात्मिक जिज्ञासु और श्रद्धालु बन गये। उन्होंने उसी समय अविनाश से कहा-तुम तैयारी करो, कल हम भी तुम्हारे साथ अपनी कार में बनारस तुम्हारे गुरुदेव के दर्शन करने चलेंगे।

दूसरे दिन दोनों ही व्यक्ति बनारस महान् योगी श्री श्यामचरण लाहिड़ी के पास गये। भगवती बाबू उन्हें देखते ही आनन्द-आश्चर्य में डूब गये। ठीक यही आकृति थी, जो कल उन्हें आदेश देने गई थी। यही नहीं, उनका आश्चर्य तब सीमा पार कर गया, जब श्री लाहिड़ी जी ने उनके वहाँ पहुँचते ही पूछा-आप तो भगवतीचरण हैं न? आपका अपने मातहतों के प्रति बहुत निर्दय स्वभाव है, यह अच्छा नहीं। ठीक कल वाले शब्द उसी आवाज में दोहराये गये। एक व्यक्ति एक ही समय में दो स्थानों पर उपस्थित रहे, यह एक महान् आश्चर्य था। पर योगी के लिये यह सब व्यक्ति के सूक्ष्म शरीर का खेल है। वे इसे आश्चर्य नहीं मानते वरन् योग की अणिमा, गरिमा, लघिमा,महिमा प्राप्त, प्राकम्प, ईशत्व, वशित्व जैसी सिद्धियों-सामर्थ्यों का एक नगण्य अंश मानते हैं।

बातचीत के समय श्री लाहिड़ी ने योग और तत्व-दर्शन ने अनेक गूढ़ दृष्टाँत बताये। उन्होंने एक अति आश्चर्यपूर्ण रहस्य बताया कि हिमालय में एक ऐसे साधु हैं। जिनकी आयु का कोई भी अनुमान नहीं। कई युगों से भारतवर्ष में प्रकट होने वाली सद्गुरु आत्माओं को आत्म-बोध, ज्ञान और प्रकाश वही देते आ रहे हैं। भारतवर्ष में जितने भी सिद्ध महापुरुष हुए हैं, उनकी दीक्षा इन साधु ने ही की है। वे दिगम्बर बर्फ की चट्टानों या कहीं ऐसे स्थान में रहते हैं, जहाँ केवल सूर्य झाँक सकता है, पृथ्वी का तो वही प्राणी वहाँ पहुँच सकता है, जिसे वह आप ही बुलाना चाहें।

वाराणसी में श्री अविनाश और भगवतीचरण द्वारा परमयोगी श्री लाहिड़ी की भेंट के दो और भी महत्वपूर्ण प्रसंग हैं-एक तो यह कि श्री भगवतीचरण को कोई संतान नहीं थी। उन्होंने आशीर्वाद दिया कि आपको सन्तान तो होगी, पर आध्यात्मिक प्रताप से उत्पन्न होने के कारण अंतर्दर्शी होगी। उसे धर्म और समाज की सेवा और आत्मोत्थान की उच्चस्तरीय साधना के लिये आपको छोड़ना पड़ेगा। भगवतीचरण ने यह शर्त स्वीकार करली।

दूसरा प्रसंग श्री अविनाश का है। उन्होंने निवेदन किया-गुरुदेव! अब तो साँसारिकता से जी भर गया। नौकरी-चाकरी करते भजन-पूजन हो नहीं पाता। इसलिये अब तो आज्ञा दें तो सर्विस छोड़ दूँ और अपना मन योगाभ्यास में लगाऊँ।

श्री लाहिड़ी जी ने कहा ‘-बेटा! साधन और अभ्यास के लिये गृहस्थ और सामाजिक जीवन का परित्याग आवश्यक नहीं। अपनी समर्थता बढ़ाकर सामाजिक उद्देश्य भी पूरे किये जा सकते हैं और आध्यात्मिक अनुभूतियाँ भी पर यदि तुम्हें कुछ दबाव अनुभव होता है, तो पेंशन के लिये प्रार्थना पत्र भेज दो! पेंशन मिलने लगेगी, तो गुजारे की दिक्कत नहीं होगी।

लेकिन गुरुदेव!- श्री अविनाश ने चिन्तित स्वर में पूछा-अभी तो मेरी सर्विस अधिक-से-अधिक चार वर्ष की ही होगी। मुझे पेंशन कौन दे देगा? इस पर श्री लाहिड़ी जी बोले-! योगी और ईश्वर-निष्ठ व्यक्ति यद्यपि ऐसा कभी-कभार किसी उद्देश्य के लिये ही करते हैं तथापि वे कहीं भी, कानून का उल्लंघन करके भी, किसी भी बड़े पदाधिकारी तक को गलत बात सही मनवा सकते हैं। तुम उसकी चिन्ता न करो। अपना प्रार्थना-पत्र भर दो, लिखना कि रीढ़ की हड्डी में दर्द है। आगे हम सब ठीक कर लेंगे।

इसके बाद भगवतीचरण ने वहाँ दीक्षा भी ली और दोनों शिष्य गोरखपुर लौट आये। यह एक विलक्षण सत्य है कि श्री अविनाश ने प्रार्थना-पत्र दिया, उनकी डाक्टरी जाँच हुई और पता नहीं क्यों और कैसे उन्हें थोड़ी ही सर्विस के बाद पेंशन बाँध दी गई। अविनाश गृहस्थ से बदलकर स्वामी प्रणवानन्द बन गये। अनेक सिद्धियाँ और सामर्थ्यों को अर्जित करते हुए वे योग की परिपक्व अवस्था तक पहुँच गये, तब तक भी उन्हें पेंशन मिलती रही।

समय पाकर श्री भगवतीचरण के एक पुत्र हुआ। यही पुत्र बाद में श्री लाहिड़ी जी के सामर्थ्यवान शिष्य श्री मुक्तेश्वर का शिष्य बना और बाद में योगानन्द के नाम से न केवल भारतवर्ष वरन् अमेरिका और योरोप में विख्यात हुए। यह घटनायें, जो यहाँ प्रस्तुत की जा रही हैं, वह उन्हीं की आत्म-कथा ‘एक योगी की आत्म-कथा’ (आटो बाईग्राफी आफ ए योगी) का अंश हैं।

श्री योगानन्द तब लड़के थे और कलकत्ता में रहते थे। श्री प्रणवानन्द तब बनारस आ चुके थे। एक बार श्री भगवती बाबू को श्री केदारनाथ नामक बनारस के एक व्यक्ति से कुछ काम पड़ा। परिस्थितिवश वे उसका पता नहीं जानते थे। इसलिये उन्होंने अपने पुत्र श्री स्वामी प्रणावानन्द (यही पहले भगवती के आश्रित कर्मचारी अविनाश थे) के नाम था, दूसरे में कोई पता न था। केवल-केदारनाथ के लिये लिखा था। लड़के को बताया गया था कि स्वामीजी केदारनाथ को जानते हैं, वह यह पत्र उन तक पहुँचाने में मदद करेंगे।

योगानन्द के जीवन में आध्यात्मिक तत्वों के प्रति घोर आकर्षण और तीव्र जिज्ञासा पैदा करने वाली यह प्रथम और अन्तिम घटना थी, जिसने उनके जीवन की दिशा को एकदम आध्यात्म की ओर मोड़ दिया।

जैसे ही प्रणवानन्द के पास पहुँचे, उन्होंने कहा-आओ छोटे महाशय! (बंगाल में छोटे बच्चों को ऐसे ही सम्बोधित करते हैं) क्या तुम भगवतीचरण के पुत्र हो?

हाँ-बच्चे ने आश्चर्यचकित हो उत्तर दिया-मैं श्री भगवतीचरण का ही पुत्र हूँ। क्या आप स्वामी प्रणावानन्द हैं? स्वामीजी ने मुस्करा कर कहा हाँ। मानो उनकी पैनी दृष्टि बच्चे में छिपे आध्यात्मिक संस्कारों को पहले ही ताड़ गई थी, तभी जान-बूझकर ऐसे रहस्यमय दृश्य और वातावरण उपस्थित कर रहे थे अन्यथा योगी जब चाहे, जिनके सम्मुख प्रदर्शन करते नहीं। वे अपनी यौगिक शक्तियों का प्रदर्शन अधिकारी पात्रों के सामने ही करते हैं।

बच्चे ने केदारनाथ का पत्र देते हुए कहा यह पत्र श्री केदारनाथ जी को देने के लिये पिताजी ने दिया है, आप उनका पता बता दें या उन्हें यही बुलवा दें।

स्वामीजी का संक्षिप्त उत्तर था। अभी प्रबन्ध किये देता हूँ। यह कहकर उन्होंने आँखें सिकोड़ीं। ऐसा लगा जैसे ध्यानस्थ हो रहे हों। थोड़ी ही देर में वे पूर्ण समाधि की सी स्थिति में चले गये। बच्चे ने समझा, स्वामीजी पूजा या ध्यान कर रहे होंगे, वह कमरे में रखी खड़ाऊँ पूजन-सामग्री और दूसरी वस्तुओं की ओर देखने लगा। कोई 10 मिनट यह सन्नाटा रहा होगा, एकाएक स्वामी जी बोले अभी आधे घन्टे में केदार बाबू यहीं आ रहे हैं।

आधे घन्टे पीछे उन्होंने कहा देखो, नीचे कौन आ गया। लड़का तुरन्त सीढ़ियाँ उतर कर नीचे गया, उसका वर्णन करते हुए स्वामी योगानन्द ने स्वयं ही अपनी आत्मकथा में लिखा है।

मैंने नीचे जाकर पूछा क्या आप ही केदारनाथ हैं? वे बोले हाँ, अभी आधा घन्टे पहले स्वामी जी मुझे बुलाने गये थे। उस समय मैं गंगा स्नान करने गया था। मुझे पता नहीं स्वामी जी को कैसे पता चल गया कि मैं वहाँ हूँ, जबकि मेरी उनसे 10-15 वर्षों से भेंट नहीं हुई।

मैं चौंका कि स्वामी जी तो मेरे सामने बैठे रहे, फिर वे वहाँ कैसे पहुँच गये? मैंने पूछा वे क्या पहने थे? इस पर केदारनाथ ने बताया लँगोटी और खड़ाऊँ। गंगाजी से कुछ दूर तक वे मेरे साथ आये, फिर पूछा तुम कितनी देर में पहुँच रहे हो? वहाँ तुम्हारी एक लड़का प्रतीक्षा कर रहा है। मैंने कहा आधे घन्टे में। इसके बाद घर गया और सीधा यहाँ चला आया।

मैं चकित था कि स्वामी जी लँगोटी तो पहने थे, पर खड़ाऊँ भी उनकी बगल में रखी हैं, उन्होंने बड़े विश्वासपूर्वक कहा भी कि केदारनाथ आधे घन्टे के बाद आ रहे हैं।

यह सब क्या है? स्वामीजी एक ही समय में दो स्थानों में कैसे?

दोनों व्यक्ति ऊपर आ गये। आवश्यक बातें हुईं। इसके बाद लड़के ने अपनी जिज्ञासा और आश्चर्य स्वामीजी को प्रकट किया। श्री प्रणवानन्द हँसे और बोले बेटा! योगी के लिये यह सब खेल है। यहाँ मेरा स्थूल शरीर था, वहाँ सूक्ष्म शरीर। दोनों एक जैसे हैं, पर सामर्थ्यों में अलग-अलग। यह जब तुम कभी योगाभ्यास करोगे, तो

अपने आप जान लोगे कि यह सूक्ष्म शरीर ही है, जिस पर स्थूल शरीर का जीवन आधारित है, वही सूक्ष्म शरीर स्वप्न, सुषुप्ति और मृत्यु के बाद भी क्रियाशील रहता है। इस रहस्य को तुम भली-भाँति योगी बनकर ही समझ सकोगे।

योगानन्द ने वहीं निश्चय किया कि आगे से वे अपना जीवन आध्यात्मिक साधनाओं में लगाकर अतींद्रिय शक्तियों का विकास और परमानन्द की प्राप्ति करेगा।


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