रुकूँगा तो इधर-उधर भटकूँगा

August 1970

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घोर अँधेरी रात, जब हाथ को हाथ नहीं सूझता था। झरना अपने अविरल प्रवाह से कल-कल करता हुआ एकाँत निर्जन विजन में बहता चला जा रहा था।

एक पहाड़ी उपत्यिका ने पूछा निर्झर! तुम्हें थकावट नहीं आती क्या? तनिक रुको, कुछ विश्राम भी तो कर लिया करो।

एक स्नेहपूर्ण दृष्टि डालते हुए झरने ने उपत्यिका को उत्तर दिया बहन! मुझे जिस महासागर से मिलना है, उसकी दूरी अनन्त है। रुकूँगा तो इधर-उधर भटकूँगा। चलते रहने से तो वह दूरी कुछ कम ही होगी। यह कहकर झरना आगे बढ़ चला।


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