पृथ्वी कब बनी? मनुष्य कब बना?

August 1970

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विकासवाद के समर्थक प्रो0 सोलस, शिम्पर, हैकैल कीथ और डॉक्टर चर्च आदि ने इस सिद्धान्त के आधार पर पृथ्वी पर प्राणियों का जीवनकाल कुल 820000 वर्ष स्थिर किया है इसमें जीवों के क्रमिक विकास में ही अधिकाँश समय लग जाता है और मनुष्य की उत्पत्ति का समय कुछ हजार वर्ष ही रह जाता है। ईसाई मत में आदम से नोआ की 11 पीड़ियों का कुल समय 2262 वर्ष और नोआ के शेग से इब्राहीम तक 1310 वर्ष कुल 3572 वर्ष मनुष्य की उत्पत्ति के होते हैं। स्पीगल की मान्यता में थोड़ा अन्तर है उन्होंने यह अवधि 6993 वर्ष की मानी हैं कुछ और संशोधन वादियों ने यह समय 7200 वर्ष भी माना है। अधिक से अधिक इतने समय से ही मनुष्य का आविर्भाव अन्य धर्मावलम्बियों के विश्वास में आता है। इतने दिन के इतिहास को ही विभिन्न कालों में बाँट कर धर्म, सभ्यता और दर्शन के विभिन्न स्वरूप इन लोगों ने निकाले हैं।

यों संसार के सभी विद्वानों ने भारतीय ग्रन्थ ऋग्वेद को सबसे प्राचीन ग्रन्थ माना है किन्तु वे उसकी अधिकतम आयु भी सात हजार वर्ष से अधिक नहीं मानते। जबकि हम भारतीय धर्म को सनातन और शाश्वत धर्म मानते हैं हमारा विश्वास है कि पृथ्वी बनने के साथ ही ईश्वरीय इच्छा से परिपूर्ण मनुष्य का आकस्मिक अभ्युदय हुआ। वेद अर्थात् ज्ञान पूर्व पुरुषों-ऋषियों-प्रजापति ब्रह्मा नारायण, अदिति आदि को ईश्वरीय प्रेरणा से मिला। वेदों को अपौरुषेय मानते हैं और यह विश्वास है कि उनमें प्रतिपादित विषय ईश्वरीय इच्छा से और संसार के सम्पूर्ण प्राणियों के हित के लिये हैं। सनातन धर्म का आविर्भाव वेद से ही होता है इसीलिये उसे सनातन धर्म भी कहते हैं। यह ईश्वर, प्रकृति, आत्मा और पदार्थ का वैज्ञानिक अध्ययन है जिसकी सबसे अच्छी जानकारी आदि महापुरुषों को दिव्य ज्ञान के रूप में हुई।

संसार के इतिहास और संवत्सरों की गणना पर दृष्टि डालें तो भी पाश्चात्य मान्यताओं का खण्डन तो तुरन्त हो जाता है। ईसाई संवत् महापुरुष ईसा के जन्म से मानते हैं वह सबसे छोटा अर्थात् 1969 वर्षों का है। इससे अधिक दिन मूसा द्वारा प्रसारित मूसाई संवत् 3536 वर्ष का है। इससे भी प्राचीन संवत् युधिष्ठिर के प्रथम राज्यारोहण से प्रारम्भ हुआ था उसे 4125 वर्ष हो गये, कलियुगी संवत् को 5070 वर्ष, इबरानियन संवत् के अनुसार 5982 वर्ष, इजिप्शियन संवत् 28622 वर्ष, फिनीशियन संवत् 30040 वर्ष। ईरान में शासन पद्धति प्रारम्भ हुई थी नव से ईरानियन संवत् चला और उसे अब तक 189948 वर्ष हो गये। ज्योतिष के आधार पर चल रहे चाल्डियन संवत् को 21500040 वर्ष हो गये। खताई धर्म वालों का भी हमारे भारतीयों की तरह ही विश्वास है कि उनका आविर्भाव आदि पुरुष खता से हुआ। उनका वर्तमान संवत् 88840341 वर्ष का है। चीन का संवत् जो उनके प्रथम राजा से प्रारम्भ होता है वह और भी प्राचीन 96002469 वर्ष का है। अब हम अपने वैवस्तु मनु का संवत् लेते हैं जो चौदह मन्वन्तरों में से एक है उससे अब तक का मनुष्योत्पत्ति काल 120533070 वर्ष का हो जाता है। जबकि हमारे आदि ऋषियों ने किसी भी धर्मानुष्ठान और माँगलिक कर्मकाण्ड के अवसर पर जो संकल्प पाठ का नियम निर्धारित किया था और जो आज तक ज्यों का त्यों चला आता है उसके अनुसार मनुष्य के आविर्भाव का समय 19729400 वर्ष होता है।

भूगर्भ शास्त्री पृथ्वी की आयु चार प्रकार से निकालते हैं पहली गणना परतदार चट्टानों के निर्माण की गति से करते हैं। इस अनुमान का आधार यह है कि जब से महाद्वीप और महासागरों की रचना हुई, वर्षा तभी से प्रारम्भ हो गई होगी। सूर्य के ताप के कारण समुद्र से वाष्प बनना और वृष्टि होना तभी से प्रारम्भ हो गया होगा। वर्षा के साथ ही नदियाँ भी अस्तित्व में आ गई होंगी और समुद्र के साथ उनका लेने और देने का सिद्धान्त भी तभी से चल पड़ा होगा।

विचार और शोध से मनुष्य न जाने कैसी-कैसी आश्चर्यजनक खोजें कर लेता है। मनुष्य के इस छोटे से चिन्तन ने एक बड़े कार्यक्रम को जन्म दिया। सोचा गया कि पृथ्वी में पाई जाने वाली परतदार चट्टानें नदियों द्वारा पृथ्वी के बहाव के कारण हैं नदियाँ बहती हैं तो अपने साथ मिट्टी भी छीलती जाती है यह मिट्टी किसी एक स्थान पर जमा होती गई और उस पर अनेक पर्तें चढ़ती गईं। बहुत अध्ययन के बाद पता चला कि 1 फुट मोटी परत 880 वर्ष में तैयार होती है जबकि अब तक अधिकतम मोटाई वाली चट्टान 5 लाख 14 हजार फुट की मिली है। इस सिद्धान्त के अनुसार पृथ्वी की आयु 514000 * 880 =542320000 वर्ष होती है। इनमें कल्पनाओं का अंश अधिक होने से यह हल भूगर्भ शास्त्रियों ने बाद में स्वयं ही अमान्य कर दिया।

समुद्र के खारेपन से पृथ्वी की आयु निकालने का दूसरा सिद्धान्त भी ऐसा ही है। नदियाँ अपने साथ स्थान-स्थान का खनिज लवण देकर समुद्र में गिरती हैं इससे स्वाध्याय-शील के ज्ञान अनुभवों की तरह समुद्र का खारापन प्रतिवर्ष कुछ न कुछ अधिक हो जाता है। सूर्य की किरणें समुद्र में बड़वाग्नि पैदा करती है और उसका जल सदैव भाप बनकर उड़ता रहता है। इस विराट् हलचल में भी समुद्री नमक वाष्पीकृत नहीं हो पाता इस तरह खारेपन को कोई नुकसान नहीं पहुँचता। अब एक गैलन जल में नमक का औसत और कुल समुद्र में जल का औसत लेकर कुल नमक का परिमाण निकाला गया। अब प्रतिवर्ष नदियाँ समुद्र को कितना नमक देती हैं यह हिसाब लगाकर उसका कुल प्राप्त नमक की राशि में भाग दिया गया उससे पृथ्वी की आयु 12 करोड़ वर्ष निकली जो पहले नियम से भी कम थी इसीलिये वह भी अमान्य हो गया।

लार्ड कैल्विन को एक और तुक सूझी। उन्होंने अनुमान किया कि पृथ्वी जब अस्तित्व में आई तब उसका तापमान 3900 डिग्री सेन्टीग्रेड रहा होगा। अब का भू-ताप निकाल कर उन्होंने अब तक कम हो गये ताप को निकाला और फिर उसमें प्रति वर्ष कम हो जाने वाले ताप से भाग देकर भी 10 करोड़ वर्षों की ही पृथ्वी की आयु प्राप्त की।

अन्तिम रेडियो सक्रिय तत्वों के विघटन का सिद्धान्त सर्वाधिक प्रामाणिक है। हम भारतीयों का मत है कि आदिकाल के पूर्ण शुद्ध चेतन और आनन्दस्वरूप एक परमात्मा की ही सत्ता थी बाद में इच्छा-शक्ति उत्पन्न होने से वह स्थूल और स्थूल होती गई। यूरेनियम, थोरियम, रेडियम आदि अनेक तत्व भी ऐसे ही होते हैं जो अपनी सूक्ष्म अवस्था से स्थूलता में विघटित होते रहते हैं। इन्हें रेडियो धर्मी तत्व कहा जाता है। इनके परमाणुओं से अल्फा, बीटा, गामा किरणें अपने आप विच्छिन्न (डिसइन्टी ग्रेट होती रहती हैं। कालान्तर में यह तत्व ही सीस धातु (लेड) में बदल जाते हैं।

यह परिवर्तन बहुत धीरे-धीरे होता है और बहुत अनियमित होता है इसलिये उसका निश्चित अनुमान करना तो संभव नहीं होता पर इन तत्वों की अर्द्ध जीवन अवधि निकाल ली जाती है। अर्द्ध जीवन अवधि का अर्थ यह होता है कि कितने वर्षों में वह पदार्थ आधा रह जायेगा।

एक प्राचीन चट्टान में यूरेनियम की 119 ग्राम मात्रा पाई जाती है। उसी के पास एक चट्टान में सीसा भी मिलता है जो यूरेनियम से विच्छिन्न होकर बना था उसे तौलने पर भार 309 ग्राम निकला। प्रयोग से देखा गया कि 206 ग्राम सीसा 238 ग्राम यूरेनियम के विच्छिन्न होने से बनता है इसलिये 309 ग्राम का सीसा 238*309 बटे 206=357 ग्राम यूरेनियम से बना होगा। अब यह जो 119 ग्राम यूरेनियम बच रहा है यह प्रारम्भ में 357+119=476 ग्राम रहा होगा।

यूरेनियम की अर्द्धजीवन अवधि 456 करोड़ वर्ष की है। 456 ग्राम यूरेनियम आधा-आधा बनने (238 ग्राम) होने में 456 करोड़ वर्ष लगे फिर 119 ग्राम बच रहने में भी 456 करोड़ वर्ष लगे अर्थात् अब तक उस चट्टान को बने 456+456=912 करोड़ वर्ष हो गये हैं। उल्लेखनीय है कि रेडियो धर्मी तत्व अस्तित्व में आते ही विच्छिन्न होना प्रारम्भ कर देते हैं और उन पर वायुदाब, ताप और रासायनिक क्रियाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इससे यह बात भी पुष्ट होती है कि यदि शरीर भी प्रकाश और प्राकृतिक तत्वों का सम्मिश्रण है तो आज की अपेक्षा पूर्व पुरुषों की बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक और आत्मिक क्षमतायें वस्तुतः बहुत अधिक प्रखर और स्पष्ट रही होंगी। हमारे शरीर का सूक्ष्म तत्व भी तो विच्छिन्न होता रहा है। और इसी कारण हम आज अधिक स्थूल हैं। सम्भवतः इस जानकारी के आधार पर ही गुरुवार युगों की कल्पना ऋषियों ने की होगी।

रेडियो सक्रिय तत्वों की खोज का यह उदाहरण मात्र था। अब तक ऐसी सबसे प्राचीन चट्टान कनाडा में पाई गई है और उपरोक्त गणना की तरह उसकी आयु 198 करोड़ वर्ष निकाली गई है। अगली पंक्तियों में भारतीय ज्योतिर्विज्ञान के आधार पर जब पृथ्वी की उत्पत्ति का समय निकालेंगे तो पाठक देखेंगे कि भारतीय सिद्धान्त जो परम्परागत रूप में चले आते रहे हैं कितने प्रामाणिक हैं।

“ऊँ तत्सदध ब्रह्माणो द्वितीय परार्धे श्री श्वेत वाराह कल्पे जम्बूद्वीपे भारत खण्डे आर्यावर्तेक देशार्न्तगत कुमारिका नाम क्षेत्रं वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशति तमे कलियुगे कलि प्रथम चरणे...........।”

यह वह संकल्प है जिसका पाठ प्रत्येक धार्मिक और माँगलिक अनुष्ठान के प्रारम्भ में किया जाता है।

परार्ध की व्याख्या करते हुये श्रीमद्भागवत पुराण में लिखा है-

एवं विद्येरहौरात्रैः काल गत्योप लक्षितैः।

अपक्षितामि वास्यापि (ब्रह्माणः) परमापुर्वयः शतम्॥

यदर्धमायुषस्तस्य परार्धमभिधीयते।

पूर्वः परार्धोउपक्रान्तो हृपरोऽद्य प्रवर्तते॥

3/11-32-33

अर्थात् ब्रह्माजी की आयु 100 वर्ष की है उसमें पूर्व परार्ध (50 वर्ष) बीत चुका द्वितीय परार्ध प्रारम्भ हो चुका। त्रैलोक्य की सृष्टि ब्रह्माजी के दिन प्रारम्भ होने से होती है और दिन समाप्त होने पर उतनी ही लंबी रात्रि होती है। एक दिन एक कल्प कहलाता है।

मनुस्मृति में कल्प की लंबाई के लिये लिखा है-

देविकाना युगाना तु सहस्त्रं परिसंख्यया।

ब्राह्ममेकमहज्ञेयं तावतीं रात्रिमेव च॥ 1/72

अर्थात् ब्रह्माजी का एक दिन (कल्प) देवताओं के 1000 युगों (चतुर्युगों) के बराबर होता है उतनी ही लंबी रात्रि होती है।

यह एक दिन 1-स्वायम्भुव 2-स्वारोचिष 3-उत्तम 4-तामस 5-रैवत 6-चाक्षुष 7-वैवस्वत 8-सावर्णिक 9-दक्ष सावर्णिक 10-ब्रह्म सावर्णिक 11-धर्म सावर्णिक 12-रुद्र सावर्णिक 13-देव सावर्णिक और 14-इन्द्र सावर्णिक। इन 14 मन्वन्तरों में विभाजित किया गया है इनमें से सातवाँ वैवस्वत मन्वन्तर चल रहा है। एक मन्वन्तर 1000/14 चतुर्युगों के बराबर अर्थात् 71/3/8 चतुर्युगों के बराबर होता है। भिन्न संख्या पृथ्वी के 27/1/4 प्रतिशत झुके होने और 365/1/4 दिन में पृथ्वी की परिक्रमा करने के कारण होती है। इस भिन्न को जैसा कि सूर्य सिद्धान्त 1/19 के अनुसार दो मन्वन्तरों के बीच का सन्धिकाल मान लिया गया है जिसका परिमाण 4800 दिव्य वर्ष (सतयुग काल) माना गया है अतः अब मन्वन्तरों का काल=14*71=994 चतुर्युग

15 सन्धियों का समय = 8400*15=72000=6 चतुर्युग कुल 994+6=1000 चतुर्युगों में मन्वन्तर बंटे हैं। और एक चतुर्युग 1200 दिव्य वर्षों का हुआ। यहाँ प्रत्येक मन्वन्तर के बीच 4800 वर्ष का सतयुग होना बताया गया है। उससे यह बात पुष्ट हो जाती है कि कलयुग का द्वितीय चरण प्रारम्भ होने से पूर्व 4800 वर्षों तक धर्म की चरम उन्नति होगी और सत्युग जैसा सुख लोगों को मिलेगा। एक युग में अनेक युग बर्तने के सिद्धान्त के आधार पर ऐसा प्रत्येक मन्वन्तर में होता रहेगा।

महाभारत वन पर्व 188/22-26 में चतुर्युगों का परिमाण अलग-अलग बताते हुये लिखा है-”4000 दिव्य वर्षों (अर्थात् 4-4 सौ वर्ष) उसके सन्ध्या व सन्ध्याँश होते हैं अर्थात् कुल 8400 वर्ष का सतयुग, 3000 वर्षों का त्रेतायुग उसकी संध्या व संध्याँश के 3-3 सौ वर्ष कुल 3600 वर्ष, 2000 दिव्य वर्ष और 2-2 सौ सन्ध्या व सन्ध्याँश =2400 वर्ष का द्वापर और 1000 वर्ष व 1-1 सौ वर्ष का कुल 1200 वर्ष का कलियुग। इस हिसाब से एक चतुर्युग 4800+3600+2400+1200 वर्ष =1200 दिव्य वर्ष हुये।

अब दिव्य वर्ष का मनुष्य वर्ष से हिसाब लगाये तो मनुस्मृति के अनुसार-

दवे रात्रहनी वर्ष प्रविभागस्तयोःपुन।

अहस्तत्रोद गयनं रात्रिः स्याद् दक्षिणायनम्॥

अर्थात् एक दिव्य रात-दिन मनुष्य के 1 वर्ष के बराबर होती है उत्तरायण सूर्य देवताओं का दिन और दक्षिणायन रात्रि होती है देववर्ष और दिनों के वर्णन के आधार पर कभी भारतीय ज्योतिर्गणित का विवरण और उसके साथ सामयिक परिवर्तनों की चर्चा करेंगे तो पाठक यह देखकर आश्चर्य करेंगे कि प्राचीन गणितज्ञ किस प्रकार आज के एक-एक दिन के इतिहास से परिचित रहे होंगे।

इन गणनाओं से निम्न बातें हो गईं। 1-ब्रह्माजी (पृथ्वी की उत्पत्ति काल) 15वें वर्ष के प्रथम दिन के 6 मन्वन्तर और 7 सन्धियाँ बिता चुके॥ 2-7 वें वैवस्वत मन्वन्तर के 27 चतुर्युग अपनी सन्धियों के साथ बीत चुके 3-प्रचलित 28वें चतुर्युग में भी प्रथम तीनों (सतयुग, द्वापर, त्रेता) युग बीत चुके 4-अब कलियुग के विक्रम संवत् 2023 तक 5069 वर्ष बीत चुके।

इस हिसाब से 6 मन्वन्तर =671 चतुर्युग=6*71*12000 दिव्य वर्ष=5112000 दिव्य वर्ष। इनकी 7 सन्धियों का समय 33600 दिव्य वर्ष, 7वें वैवस्वत मन्वन्तर के 12000*27=324000 दिव्य वर्ष, 3 युग इस वैवस्वत के बीत चुके उनका योग 4800+360+2400 दिव्य वर्ष=10800 कुल, 5112000+33600+324000+10800=5480-400 दिव्य वर्ष। दिव्य वर्ष में 360 का गुणा करने से मनुष्य वर्ष आ जाते हैं। (भारतीय मतानुसार वर्ष 360 दिन का ही होता है। प्रक्षेप सन्धियों के रूप में जुड़ गया)। वह 5480400*360=1972944000 मनुष्य वर्ष होते हैं। इसमें कलियुग के 5069 वर्ष जोड़ने से 1972944000+5069=197249069 वर्ष अक्षरों में एक अरब सत्तानवे करोड़ उन्तीस लाख उनचास हजार उनहत्तर वर्ष पृथ्वी की आयु हुई। भूगर्भ शास्त्री यह आयु एक अरब अट्ठानबे करोड़ वर्ष निकालते हैं जब कि उनकी गणना पदार्थों के गुण से संयुक्त है और भारतीय आँकड़े शुद्ध गणित। दोनों में इतने हद तक साम्य भारतीय दर्शन की सत्यता और प्रामाणिकता ही सिद्ध करता है।

यह दोनों तरह के तुलनात्मक अध्ययन यह बताते हैं कि पृथ्वी के आविर्भाव काल से ही शुद्ध ज्ञान (वेदों) के रूप में भारतीय धर्म और संस्कृति का अपौरुषेय विस्तार हुआ। हम अल्पबुद्धि लोग उस ज्ञान का अवगाहन न कर पायें तो उसमें संस्कृति का क्या दोष, ज्ञान का क्या दोष? दोष तो अपना ही है जो उस ज्ञान को पकड़ने और अपना मनुष्य जीवन धन्य बनाने की अपेक्षा हम भौतिक जीवन, जगत और पदार्थों में उलझे पड़े अपनी मानवीय क्षमताओं को व्यर्थ गंवा रहे हैं।


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