जिन खोजाँ तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ

August 1970

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पृथ्वी जलाती थी पाँव और शीश झुलसा रहा था सूरज, न पेट भर अन्न और न रात काटने के लिये बिछावन। झरना मिला, उसी का जल पी लिया और कहीं से कन्द-मूल, फल-फूल मिल गये उसी से अपनी क्षुधा शान्त कर ली। एक गोल पत्थर पर सिर टिकाकर किसी चट्टान में सो लिये, तो दोपहर किसी वृक्ष की छाँव में बिता ली। ऐसे करते-करते सात दिन बीत गये। स्नातक धन्वन्तरि गुरुकुल की सीमा छोड़कर हिमालय की मध्यवर्ती उपत्यिकाओं तक जा पहुँचे किन्तु कोई भी ऐसी जड़ी-बूटी न मिली जो अपनी पीठ पर हुए व्रण का उपयुक्त औषधि हो सकती।

धन्वन्तरि का शरीर थककर आधा हो गया था। पर वाह री लगन! धन्य रे ऐसे तप-कि एक ऐसी बूटी की खोज, जो किसी भी फोड़े से पीड़ित का अचूक उपचार सिद्ध हो सके, धन्वन्तरि को उसके पीछे ही लगाये रखा।

धन्वन्तरि भिषगाचार्य के अन्तिम वर्ष में शोध कर रहे थे औषधि शास्त्र का उन्होंने ऐसा अध्ययन किया था कि स्वयं उपकुलपति भी कई बार उनसे आवश्यक जानकारियाँ उपलब्ध किया करते थे। आयुर्वेद का ऐसा गहन अध्ययन इतिहास में शायद ही कोई और कर सका हो। एक-एक ऋचा पर उन्होंने कितना-कितना परिश्रम किया, यह तो वह स्वयं ही जानते थे, पर आयुर्वेद का निधान धन्वन्तरि आज कई दिन से भ्रमण कर रहा है- एक-एक जड़ी, एक-एक बूटी का प्रयोग कर डाला है उन्होंने, पर एक भी तो पत्ती ऐसी नहीं निकली जो उनके पीठ पर हो गये फोड़े के घाव को ठीक कर देती।

रात-दिन की निरन्तर खोज के उपरान्त भी सफलता हाथ न लगने पर निराशा स्वाभाविक थी। युद्ध में पराजित सैनिक की भाँति हारे-थके धन्वन्तरि पुनः गुरुकुल की ओर लौट पड़े। वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते भी हजारों बूटियों का प्रयोग करके देख लिया। किन्तु अन्त असफलता ही असफलता। धन्वन्तरि को न कोई बूटी मिली और न पीठ का फोड़ा अच्छा हुआ। धन्वन्तरि की मुखाकृति देखकर वीभत्सता को भी करुणा आ जाती, पर उनकी खोज की जिज्ञासा शाँत न हुई।

सूखे मुख, रूखे-मुरझाये बाल-शिष्य की ऐसी खिन्न मुद्रा देखते ही गुरु की आंखें छलक उठीं। उन्होंने स्पष्ट ताड़ लिया कि धन्वन्तरि को कोई उपयुक्त औषधि मिल नहीं पायी।

“तात! बड़ा कष्ट पाया तुमने” कहते हुए आचार्य प्रवर ने बड़ी करुणा, बड़े स्नेह से धन्वन्तरि के उत्तरीय वस्त्र को हटाकर देखा-घाव घटा नहीं था, कुछ बढ़ ही गया था। उत्तरीय वस्त्र को वैसे ही छोड़कर आचार्य श्रेष्ठ ने कहा- “वत्स! आओ मेरे साथ आओ। तुम्हारा उपचार तो यहीं मेरे पास है” यह कहकर वे आश्रम में दक्षिण दिशा की ओर चल पड़े। धन्वन्तरि उनका अनुगमन कर पीछे-पीछे चल पड़े।

थोड़ी ही दूर पर एक बूटी खड़ी थी। गुरु ने उसे तोड़ा, एक पत्थर पर रखकर पीसा और रखकर कहा- “वत्स चलो, अब तुम्हारा घाव दो दिन में अच्छा हो जायेगा।”

निराश और दुःखी धन्वन्तरि ने निःश्वास छोड़ते हुए कहा- “गुरुदेव! बूटी विद्यालय के इतने समीप ही थी तो मुझे व्यर्थ ही पन्द्रह मील तक क्यों दौड़ाया? इतना कष्ट देकर आपने क्या पा लिया?”

मौन! ऋषि ने अत्यन्त सकरुण नेत्रों से धन्वन्तरि की ओर देखा भर बस, कहा कुछ नहीं। वह तो उनकी आत्मा थी, जिसने आप ही उत्तर दे दिया-

“धन्वन्तरि! इतनी कठिन साधना नहीं करता तो यह जो हजारों औषधियों का ज्ञान प्राप्त हुआ, वह कहाँ से प्राप्त हो जाता?”


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