पहली परख-श्रद्धा और विनम्रता
परिचय-पत्र लेकर शिष्य धर्मगुरु केइचु मेइजी के पास गया और बिना कुछ कहे उनके हाथ में वह परिचय-पत्र थमा दिया। लिखा था- राज्यपाल किटागाकी- क्योटो राज्य।
संत मेइजी ने कार्ड एक ओर रख दिया और बोले - मुझे इन महाशय से कोई काम नहीं है? न ही उनसे मिलने की आवश्यकता है। जाओ, और उनसे कह दो कि आप यहाँ से जा सकते हैं।
शिष्य ने वापस आकर सन्त के शब्द ज्यों के त्यों कह दिये। राज्यपाल किटागाकी एक बार तो अहंकारवश कुद्ध हो गये। पर पीछे उन्होंने विचार किया- महापुरुषों के पास श्रद्धा और विनीत भाव से जाना चाहिए। सन्त के न मिलने का कहीं यही कारण तो नहीं? अतएव उन्होंने दूसरा परिचय पत्र निकाला और उसके ‘राज्यपाल क्योटो राज्य’ शब्द पेन्सिल से काट दिये और केवल अपना नाम मात्र ही रहने दिया। कार्ड दुबारा शिष्य को देकर राज्यपाल ने कहा, एक बार और कष्ट कीजिए।
शिष्य दुबारा परिचय पत्र लेकर पहुँचा और आचार्य प्रवर को दे दिया। कार्ड पर दृष्टि डालते ही सन्त मेइजी बोले- अच्छा, तो किटागाकी आया है, अरे, उससे मिलने की कब से इच्छा थी। जाओ, जल्दी बुला लाओ।
राज्यपाल किटागाकी भीतर पहुँच कर, देर तक मन्त्रणा कर जब चलने लगे, तो उनके हृदय में असीम प्रसन्नता थी। धर्म का प्रथम पाठ श्रद्धा और विनम्रता का अभ्यास उनके जीवन का संचालक अंग बन गया और उसने उनकी प्रतिष्ठा इतनी बढ़ा दी, जितनी की किसी सम्राट की।