बच्चों को दण्ड नहीं, दिशायें दें।

August 1970

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वेल्स के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक हर्बट्र क्रेशर ने अपने दो बच्चों को अलग-अलग रखकर दो प्रकार के प्रयोग किये। एक के पास जाते समय वे अपना स्वभाव मसखरा रखते। अपनी धर्मपत्नी से उसके सामने ही मजाक और अश्लील बातें करते, फूहड़ हाव-भाव प्रदर्शित करते। फलस्वरूप वह बच्चा प्रारम्भ से ही दुश्चरित्र हो गया और उच्च शिक्षा दिलाने के बाद भी वह अच्छा नहीं बन सका। दूसरे बच्चे के पास जाते समय क्रेशर सदैव विज्ञान की, वैज्ञानिक खोजों की बात करते। वहाँ उनका व्यक्तित्व एक गम्भीर चिन्तक की तरह रहता। फल यह हुआ कि ठीक यही प्रवृत्तियाँ बच्चे में विकसित हुईं और उसने विज्ञान के क्षेत्र में बड़ा नाम कमाया।

डॉ0 क्रेशर लिखते हैं- बच्चे को खराब से खराब घर में जन्म मिला हो, यदि उसे अच्छा वातावरण मिले तो वह बहुत अच्छा बन सकता है, जबकि बुरे वातावरण में पड़कर अच्छे घरों के लड़के भी खराब हो जाते हैं। अच्छे और बुरे विचार अच्छे या दूषित वातावरण की ही उपज होते हैं, विचार कहीं अन्यत्र से नहीं आते।

बच्चा स्वयं भी एक मस्तिष्क या विचारशील प्राणी होता है। उसके अपने संस्कार भी होते हैं। आत्म प्रदर्शन (सेल्फ एजर्शन) का भाव तो प्रत्येक बच्चे में अपना ही होता है। हमें यह देखना चाहिए कि उसकी यह भावना अच्छे अर्थ में है या खराब अर्थ में। यदि अच्छी और रचनात्मक दिशा में भावनायें और विचार शक्ति काम कर रही हो, तो उसे रोकना नहीं चाहिए वरन् अपनी ओर से सहयोग भी देना चाहिए। उदाहरण कई बच्चे छोटी अवस्था से ही अध्यापक बनना खेलते हैं वे अपने पिता का चश्मा उठाकर पहन लेते हैं और झूठ मूठ की हाजिरी भरने और बच्चों को डाँटने-डपटने का अभिनय करते हैं। यह आत्म प्रदर्शन इस बात का प्रतीक है कि बच्चे को अध्यापक बनना पसंद है। भविष्य में भले ही उसकी मान्यता बदले, पर अभी तो उसे इस प्रदर्शन के फलस्वरूप कई अच्छी बातें सिखाई जा सकती हैं। उदाहरणार्थ अनुशासनपूर्वक एक पंक्ति में बैठना, पढ़ाई का सब सामान क्रम में सजाकर रखना, गन्दगी से बचना आदि।

सर जगदीश चन्द्र बोस बाल्यावस्था में पौधों से बहुत प्रेम करते थे। छोटे-छोटे पौधे लाना, उनको लगाना, सींचना, उन्हें जानवरों से बचाना और फल-फूलों की रक्षा करने में उन्हें बहुत आनन्द आता था। उनकी इस भावना को यदि रोका गया होता, तो वह प्रसिद्ध वनस्पति शास्त्री नहीं बन सके होते। बच्चा प्रारम्भ से अपने पूर्वजन्मों के प्रबल संस्कार ही प्रदर्शित करता है और यदि वह अच्छे अर्थ में- ईश उपासना, नेतृत्व विज्ञान, सुधारक किसी भी दिशा में हो- यदि उसमें उसका और समाज का हित होता है तो उस भाव को पनपने में पूरा-पूरा सहयोग देना चाहिए उसके इस विकास में सहयोग देने के लिए उसकी पूरी बातें सुनना चाहिए, डाँटना या झिड़कना नहीं चाहिए। उसी की आयु का बनकर, उस जैसी ही टूटी-फूटी भाषा में बात करनी चाहिए ताकि वह निःसंकोच अपने को प्रकट कर सके। जो बच्चे प्रारम्भ में दब्बू हो जाते हैं, वे बाद में बुराइयों की ओर अधिक आकर्षित होते हैं।

‘चोर और कोतवाल’ का खेल प्रायः सभी बच्चों खेलते हैं। देखने में आया है कि दरोगा या कोतवाल वही बच्चा बनता है, जो अपेक्षाकृत अधिक चतुर हृष्ट-पुष्ट और स्वाभिमानी माता-पिता के घर जन्मा होता है। चोर को पकड़ने उसकी ढूंढ़ खोज करने और दण्ड देने की अधिकाँश क्रियाएं ऐसी होती हैं, जो उसने पुलिस वालों की देखी या सुनी होती हैं। न्याय के क्षेत्र में बालक कठोरता बरतता दिखाई देता है और उसमें वह अपनी कई बातें भी जोड़ता है। जो उसने देखी या सुनी भी नहीं होती। यह बातें बताती हैं कि बच्चे की भावनाओं में विकास की अच्छी संभावनाएं होती हैं। यदि उनको सही दिशाएं दे दी जाएं, तो बच्चों में योग्य नागरिक के गुणों का क्रमिक विकास सरलतापूर्वक किया जा सकता है। जिन बच्चों को इस तरह का सहयोग नहीं मिलता, वे बच्चे ही बुरे स्वभाव और आचरण करने लगते हैं।

भावनाओं के साथ बच्चों की इच्छाएं भी होती हैं। इच्छाओं को जीवन शक्ति (लाइफ फोर्स) कहते हैं। इच्छाओं को लोग शरीर से बढ़कर प्रेम करते हैं ‘विल्स डामिनेट बॉडी’ - यह मनोविज्ञान का बहुचर्चित सिद्धान्त है और उसका निराकरण यह देता है कि उन्हें दबाना नहीं चाहिए। फ्रायड का कथन है कि दबाई गई इच्छाएं भी वैज्ञानिक नियम का पालन करती हैं अर्थात् जितनी शक्ति से उन्हें दबाया जायेगा, वह उतनी ही नई शक्ति से फिर फूटेंगी और विद्रोह पैदा करेंगी। इस तर्क को मानवजीवन के हित में अचिन्त्य नहीं कहा जा सकता।

यदि इच्छाएं ऐसी हैं, जिनमें बच्चों का अहित हो सकता है, तो उनको दूसरी समानान्तर अच्छी इच्छा के लिए मोड़ना (रिडारेक्ट) चाहिए। बच्चे को मालूम नहीं है कि चाय पीना स्वास्थ्य के लिए अहितकर है, उसने अपने मित्र पिता या किसी पड़ोसी को चाय पीते देखा है, उसकी भी इच्छा है कि चाय पी जाय, उसे दबाना चाहेंगे, तो सम्भव है वह बाजार में जाकर चाय पिए और उसके लिए घर में पैसों की चोरी करे। बेहतर है कि उसे एक कप चाय दे दी जाये, फिर उसको चाय की बुराई से परिचित कराकर प्रतिदिन मीठा दूध या कोई अन्य पौष्टिक पेय लेने को प्रेरित किया जाये। बच्चा यह बात मान लेगा और फिर दुबारा चाय के लिए हठ नहीं करेगा।

सुरुचि का विकास बालक को साहसी और स्वाभिमानी बनाने का महत्वपूर्ण साधन है। हमारी भूल यह है कि हम बच्चों को किसी भी काम के अयोग्य समझ लेते हैं यदि उसमें थोड़ी-सी बुराइयाँ भी हों, तो भी उसे बिल्कुल अयोग्य न समझकर यह मानना चाहिए कि उन्हें गलत दिशा दी गई अथवा उसके पूर्वजन्म के संस्कार अच्छे नहीं रहे।

आगे के बच्चों में यह दोष न हों, इसके लिए उन्हें सुरुचि वाला बनना चाहिए पाश्चात्य देशों में प्रत्येक व्यक्ति की अपनी एक विशेष पसन्द (हॉबी) होती है- किसी की खेलने की, किसी की बागवानी की, किसी की घुड़सवारी करने की, किसी की बढ़ईगीरी और किसी की अपनी प्राइवेट प्रयोगशाला में बैठकर नये-नये प्रयोगों द्वारा छोटी-छोटी सुविधा बढ़ाने वाली नई वस्तुओं के अनुसन्धान की। ऐसी रुचियाँ यदि हम अपने बालकों में पैदा कर सकें तो उन्हें अनेक बुराइयों से सहज ही बचा सकते हैं।

क्रियाशीलता आत्म-चेतना का गुण है। बच्चा चुप रह ही नहीं सकता, यदि उसे कोई निश्चित दिशा न दी जाये, तो यह आवश्यक है कि वह तोड़-फोड़, मार-धाड़ छीना झपटी करे। यही आदतें धीरे-धीरे बुरे स्वभाव में बदल जाती हैं। यदि प्रारम्भ से ही बच्चे में कोई रचनात्मक रुचि पैदा कर दें, तो बच्चा एक नया आत्म विश्वास लेकर आगे बढ़ सकता है।

डॉ0 फ्रायड उदात्तीकरण (सव्लीमेशन) के पक्ष में थे। यह सिद्धाँत भी वस्तुतः काम का है। कोई लड़का मान लीजिए, क्रोधी स्वभाव का है, बहुत बढ़-बढ़कर बातें करता है, अहंकारी है, जहाँ जाता है वहीं झगड़ा कर देता है। उसे यदि कोई अच्छी पुस्तक देकर या खेलने कूदने की प्रेरणा देकर उस आदत को मोड़ना चाहें, तो सम्भव है कि वह किताब को भी फेंक दे और खेलने कूदने वाले साथियों को भी मार पीट बैठे। ऐसे बच्चों को उदात्तीकरण द्वारा उपयोगी बनाया जा सकता है। उदाहरण के लिए उसे ग्रुपिंग करना सिखाया जाये और उसे कोई स्काउटिंग एन0सी0सी0 आदि किसी ग्रुप का नेता बनाकर उसे एक अच्छे सैन्य अधिकारी का उत्तरदायित्व निबाहने की प्रेरणा ही जाये। इसमें उसके खराब गुणों का उसी प्रकार उपयोग हो सकता है जैसे गन्दी खाद का उपज बढ़ाने में।

इस तरह बच्चों को जब भी कुछ समझाया सिखाया या अप्रत्यक्ष रूप से प्रेरित किया जा रहा हो, तो यह ध्यान हो रहा है कि उसे पूर्ण स्नेह और सहानुभूति पाने का विश्वास हो रहा है। बीच-बीच में उसकी जिज्ञासाओं को भी जगाया जाता रहे। घटनाओं, प्रसंगों या कथाओं के माध्यम से उसकी पुष्टि भी की जाती रहे। उसे दूसरों के आगे परिचित (इन्ट्रोड्यूस) भी कराया जाता रहे। बच्चे की गलत प्रशंसा भूलकर भी न की जाये, पर उसकी छोटी सी विशेषता को भी बड़ा माना जाये, तो निश्चय ही एक दिन वह उस छोटी सी अच्छाई को ही बहुत अधिक विकसित कर लेता है।

प्रत्येक स्थिति में बच्चे को व्यस्त रखना आवश्यक है भले ही उसके काम का कोई उपयोग न होता हो। व्यस्त रहकर सामाजिक जीवन को स्वस्थ और समस्याहीन शाँतिमय बनाया जा सकता है। पन्तनगर (नैनीताल) में परीक्षा प्रति सप्ताह या प्रति पखवारे होती है। वार्षिक परीक्षा वहाँ नहीं होती। इन्हीं छोटी परीक्षाओं (टेस्ट्स) के नम्बर जोड़कर विद्यार्थियों को उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण किया जाता है। इस व्यवस्था का मूल उद्देश्य बच्चों को पढ़ाई में सदैव व्यस्त रखना होता है और सचमुच उसका बच्चों पर बड़ा अच्छा असर होता है। शिक्षा के स्तर की दृष्टि से यहाँ के बच्चे दूसरे स्कूलों के बच्चों से योग्य होते हैं।

जीवन के किसी भी क्षेत्र में व्यस्तता बढ़ाकर आज की और भावी पीढ़ी की योग्यताओं का विकास जिस समाज में रहा होगा, वहाँ के लोगों में बुराइयाँ कम होंगी। आत्महीनता भी वहाँ कम होगी, क्योंकि वह तो बुराइयों का ही आत्मा पर पड़ा हुआ व्यापक प्रभाव है। बुराइयों को मिटाकर ही हम अपने देश में आत्म विश्वासी और प्रतिभा सम्पन्न नागरिक को जन्म दे सकते हैं।


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