प्रलय की मान्यतायें कपोल कल्पित नहीं

August 1970

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शतपथ ब्राह्मण तथा सूर्य सिद्धान्त आदि ज्योतिष ग्रन्थों में प्रलय की गणनायें दी गईं हैं। काल और समय के बारे में निश्चित अनुमान करना तो कठिन है किन्तु यह निश्चित है कि पृथ्वी में कभी-कभी अग्नि, हिम या जल प्रलय जैसे तीव्र विघटन होते अवश्य हैं। ऐसे कई संघात पहले हो चुके हैं इस बात को भूगर्भ वेत्ता और इतिहासज्ञ भी मानते हैं।

अटलांटिक महासागर पर हुई खोजों के समय गोताखोरों ने समुद्री सतह पर कुछ ऐसे खण्डहर और वस्तुयें प्राप्त कीं जिनसे सिद्ध होता है पहले वहाँ कोई द्वीप था जो जल प्रलय के समय में ही समुद्र के गर्भ में समा गया। रूस और चीन के बीच गोवी रेगिस्तान के बारे में अनुमान है वहाँ पहले समुद्र था। कभी जल-प्रलय हुई जिसमें वहाँ का जल सिमट कर एक ओर चला गया और पृथ्वी निकल आई जो कालान्तर में रेगिस्तान में बदल गई। इस तथ्य को वहाँ उपलब्ध समुद्री जानवरों के अस्थिपंजरावशेषों से प्रमाणित किया जाता है।

प्रलय प्रकृति का एक समर्थ शस्त्र है जिसके द्वारा वह परिवर्तन लाया करती है ऐसा उसे मनुष्य को यह सिखाने और समझाने के लिये भी करना पड़ता है कि यदि वह अपने आपको सृष्टि का सर्व-समर्थ प्राणी समझता है तो यह उसकी भारी भूल है। उसे अनुभव करना चाहिये कि इस विशाल ब्रह्माण्ड में केवल देव-शक्तियों का आधिपत्य है। यह देव-शक्तियाँ ही सृष्टि का संचालन करती हैं। मनुष्य उस परिवर्तन को किसी भी वैज्ञानिक यन्त्र से रोक नहीं सकता। हाँ वह अपने आपको इन परिवर्तनों के अनुकूल ढाल कर आत्म-कल्याण का लाभ अवश्य ले सकता है।

भागवत में ऐसी ही एक जल प्रलय का विवरण देते हुये बताया है कि तब एक मात्र मार्कण्डेय मुनि बचे थे। उन्होंने जब प्रकृति की भीषणतम विनाश लीला देखी तो आँखें ही मूँदते बने। उन्हें तब बालक स्वरूप धारण करना पड़ा अर्थात् ज्ञान और बुद्धि वर्चस्व के सारे अहंकार को भुलाकर अपने आपको ईश्वरीय शक्तियों को ही समर्पण करना पड़ा था।

प्रसिद्ध अंग्रेज ज्योतिषाचार्य कीरो ने भी जल प्रलय के भारतीय सिद्धान्तों को सत्य माना है। मेष से लेकर वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन तक यह बारह राशियाँ हैं जिन पर सूर्य चलता रहता है। एक राशि से दूसरी राशि 30 अंशों में विभक्त है। एक अंश पार करने में उसे 70 वर्ष 9 मास लगते हैं। पूरी राशि पार करने में उसे 70 वर्ष 9 माह 30=लगभग 2122 वर्ष 6 मास लगते हैं। बारह राशियाँ पार करने में 25467 (एक डिग्री पार करने में 70 वर्ष 9 मास के अतिरिक्त कुछ दिन भी लगते हैं इसलिये कीरो ने यह समय 25850 वर्ष निकाला हैं) वर्ष लगते हैं। अर्थात् लगभग 25467 वर्षों में एक बार ऐसा समय आता है जब प्रकृति में असाधारण रूप से हलचल उत्पन्न होती है और पृथ्वी में जल-प्रलय जैसा संकट उठ खड़ा होता है।

प्रलय की बात अब वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं। उन्होंने देखा कि समुद्र में निरन्तर ज्वार-भाटे आने के कारण पृथ्वी की गति धीमी पड़ती जा रही है। पृथ्वी की गति में अन्तर पड़ने का अर्थ यह होगा कि चन्द्रमा पृथ्वी कीं और समीप आता चला जायेगा। जितना अधिक चन्द्रमा से हलचल उत्पन्न होती है और पृथ्वी में जल-प्रलय जैसा संकट उठ खड़ा होता है।

प्रलय की बात अब वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं। उन्होंने देखा कि समुद्र में निरन्तर ज्वार-भाटे आने के कारण पृथ्वी की गति धीमी पड़ती जा रही है। पृथ्वी की गति में अन्तर पड़ने का अर्थ यह होगा कि चन्द्रमा पृथ्वी के और समीप आता चला जायेगा। जितना अधिक चन्द्रमा पृथ्वी के पास आयेगा ज्वार-भाटों में भी आ सकता है जब चन्द्रमा और पृथ्वी इतने पास-पास आ जायें कि ज्वार-भाटों का वेग संभलना कठिन हो जाये। इसी दिन को हम जल-प्रलय की संज्ञा दें तो कोई अत्योक्ति नहीं होगी। उस स्थिति के बाद पृथ्वी में जीवन के अस्तित्व को सम्हालना ईश्वरीय शक्तियों पर ही अवलंबित होगा। मनुष्य को तो तब अपने जीवन की रक्षा करना ही कठिन हो जायेगा। इस महाप्रलय से बचाव के लिये वैज्ञानिकों के पास भी कोई शक्ति नहीं होगी।

पृथ्वी की गति में अन्तर बहुत धीमे हो रहा है इसलिये बहुत जल्दी तो किसी विस्फोट की संभावना नहीं है पर यह सोचने समझने की आवश्यकता अवश्य है कि क्या धरती के सामूहिक जीवन क्रम का ग्रह-नक्षत्रों की गतिविधियों से कुछ संबंध हो सकता है? यदि हाँ-जैसा कि वैज्ञानिक मान रहे हैं, तो हम अपने कर्म-कलाप में परिवर्तन लाकर निश्चित ही उस दुष्प्रभाव को करोड़ों वर्षों के लिये और टाल सकते हैं।

पृथ्वी के आयन मण्डल (आइनोस्फियर) को शुद्ध रखकर हम अन्य ग्रहों के पृथ्वी में पड़ने वाले प्रभाव को बदल सकते हैं। आकाश में जहाँ से हवा और गैसों का दबाव प्रारम्भ होता है तथा आकाशीय पिण्डों से आने वाले ऊर्जा कण अपनी प्रतिक्रिया प्रारम्भ करते हैं उसे अयन मण्डल करते हैं। अयन मण्डल एक प्रकार से हवा और गैसों का वह गुब्बारा है जिस पर पृथ्वी का पिण्ड समाया हुआ है। अयन मण्डल को स्वाभाविक रूप में रहने दिया जाय उसमें अप्राकृतिक परिवर्तन न लाये जाएं तो ग्रहों के प्रकोप से बचाया जा सकता है। उसके लिये यह आवश्यक होगा कि धूम्रपान से लेकर उन सब मशीनों और एटमबमों तक के प्रयोग का निषेध हो जो वातावरण को दूषित करते हैं मनुष्य जाति को यह सावधानी व्यक्तिगत और सामूहिक तौर-तरीकों से भी बरतनी होगी।

यदि ऐसा न हुआ तो ग्रहों के संघात भी हो सकते हैं। वैज्ञानिक कारण तो नहीं बताते पर उनका विश्वास है कि एक दिन चन्द्रमा का स्वयं ही विस्फोट हो सकता है। एक बार इस तरह का विस्फोट शनि में हुआ था। यदि ऐसा हुआ तो पृथ्वी में असंख्य अग्नि ज्वालायें फूट पड़ेंगी और जल-प्रलय के स्थान पर अग्नि प्रलय के दृश्य उपस्थित हो जायेंगे।

सूर्य के पास अनन्त शक्ति है पर वह उसके 20 हजारवें हिस्से से ही काम लेता है और अपने सम्पूर्ण सौर-परिवार का भरण पोषण करता है। अनुमान है कि शक्ति के इस स्वल्प क्षय से भी सूर्य धीरे-धीरे ठण्डा पड़ रहा है। यदि सूर्य ठण्डा हुआ तो पृथ्वी में बर्फ की मात्रा बढ़ जायेगी और हिम प्रलय जैसी स्थिति भी आ सकती है। दूसरी ओर वैज्ञानिक यह मानने के लिये तैयार नहीं कि सूर्य ठंडा होगा यदि हुआ भी तो यह स्थिति ढाई करोड़ वर्ष बाद ही आयेगी, हिम प्रलय वैसे और अन्य कारणों से हो सकती है।

“अपनी पुस्तक आर्कटिक होम इन द वेदाज” में लोकमान्य तिलक ने भी पेज न॰ 32 में इस प्रकार का वर्णन देते हुये लिखा है कि दोनों गोलार्द्धों में हिमान्तर 10500 वर्षों के बाद होता रहता है। प्रसिद्ध भूगर्भ शास्त्री डाक्राल ने गणितीय आधार पर बताया है कि पिछले लाख वर्षों में पृथ्वी अपनी कक्षा में 3 बार डगमगाई है और तीनों बार भयंकर हिमपात के दृश्य उपस्थित हुये हैं। प्रथम बार 1 लाख सत्तर हजार वर्ष में दूसरी बार दो लाख साठ हजार वर्ष में और तीसरी बार एक लाख साठ हजार वर्ष में अन्तिम बार पृथ्वी की धुरी डगमगाए हुये लगभग 80 हजार वर्ष बीत चुके अर्थात् अगले दिनों में कभी भी हिम प्रलय की स्थिति उत्पन्न हो सकती है

ज्योतिष और ग्रह-विज्ञान बड़ा ही जटिल है। इसलिये समय की बात निश्चित नहीं कही जा सकती पर आगे कभी जल, अग्नि या हिम प्रलय जैसी कोई स्थिति उपस्थित हो सकती है इसमें राई रत्ती सन्देह नहीं। ज्योतिषी, भूगर्भ वेत्ता एस्ट्रालाजिस्ट और वैज्ञानिक सभी इस बात को मानते हैं।


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