जो ब्रह्माँड में है वही अण्ड में है

August 1970

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्रकाश एक सेकेण्ड में 186000 मील चलता है। एक दिन में 186000 60 60 24 और 1 वर्ष में 186000 60 60 24 365 5602196000000 मील चलता है। लम्बी दूरियाँ जो मील, गज, फीट, इंचों में नहीं नापी जा सकतीं, उन्हें नापने के लिये वैज्ञानिकों ने प्रकाश वर्ष की कल्पना की। एक प्रकाश वर्ष का अर्थ हुआ 590219600000 मील दूरी।

ऐसे 50 करोड़ प्रकाश वर्षों जितना विराट् इस ब्रह्माँड को वैज्ञानिकों ने माना है। 10 करोड़ नीहारिकायें (नेबुला) प्रकाश धारायें लेकर चलती है और वह अनेकों सूर्यों को जन्म देती है। हमारे लिये प्रत्यक्षतः सूर्य ही उस ब्रह्माँड का जनक, प्राण-प्रतिष्ठता है, जिसमें हम रहते हैं। ऐसे-ऐसे अरबों और सौर-मण्डल विराट् आकाश में भरे पड़े हैं। उस विशालता का अनुमान छोटा-सा मनुष्य स्थूल आँखों से कर भी कैसे सकता है। हम तो गगन-मण्डल के अधिक-से-अधिक 6 हजार तारे ही एक स्थान पर खड़े होकर देख सकते हैं।

सौर-मण्डल के स्वामी सूर्य अरबों छोटे-बड़े गृह-नक्षत्रों को अपनी शक्ति से चलाते हैं। नवग्रह तो उनके सबसे समीपवर्ती कार्यकर्त्ता और सहयोगी हैं। वस्तुतः उनका परिवार कितना विशाल है, उसमें कितने सदस्य हैं, उसकी सही-सही कल्पना नहीं की जा सकती। चींटी के लिये हिमालय पर्वत की माप जितनी कठिन हो सकती है, हमारे लिये उतनी ही दुःसाध्य है सौर मण्डल की इस लम्बाई-चौड़ाई की कल्पना।

लेकिन यह सब अव्यवस्थित नहीं है। सब कुछ मस्तिष्कीय है। गणितीय नियमों पर आधारित है। सूर्य की प्रथम कक्षा में बुद्ध, द्वितीय में शुक्र, तृतीय में पृथ्वी, चतुर्थ में मंगल, पंचम में वृहस्पति छठवें में शनि, सातवें में यूरेनस, आठवें में नेपच्यून और नवें में प्लूटो-इन नवग्रहों की स्थिति, कक्षा का अध्ययन और उनके ज्योतिर्विज्ञान द्वारा एक समय भारतीय प्रकृति की सूक्ष्म हलचलों को भी जान लिया करते थे। आज भी वैज्ञानिक मौसम सम्बन्धी अनेक पूर्व जानकारी प्राप्त करते रहते हैं। यूगोस्लाविया आदि में तो इनका मानवीय आचार-संहिता से भी सम्बन्ध जोड़ा जाने लगा है-यह सब बताता है कि सौरमण्डल के नियम विधान किसी विश्वव्यापी विधान की व्याख्या और अंग मात्र हैं। ऐसा नहीं कि जो कुछ हो रहा कि वह निरर्थक, बिना किसी की प्रेरणा या किसी सत्ता के नियन्त्रण के बिना हो रहा है, चाहे उस शक्ति को शक्ति भर कहें, देवता या भगवान्। कल्पना में वह वस्तु एक ही हो सकती है-सूर्य की तरह सर्वव्यापी और सर्व समर्थ शक्ति।

सूर्य के मध्य भाग में 50000000 डिग्री गर्मी भरी पड़ी है। इस महाशक्ति का 20000 वाँ हिस्सा ही वह प्रकृति के विकास, विनाश और सन्तुलन में काम लेता है। शेष भाण्डागार शायद इसलिये सुरक्षित हैं कि कोई उपयुक्त पात्र आये और किसी ईश्वरीय प्रयोजन की पूर्ति के लिये शक्ति की आवश्यकता अनुभव करे, तो उसे इतनी शक्ति दी जा सके, जिससे वह कैसे भी ध्वंस या निर्माणकारी कार्यक्रम सुभीते से चला सकें। एक समय हम भारतीय इस अक्षय शक्ति का स्वामित्व और भागीदारी प्राप्त किया करने थे और ऐसे-ऐसे अतीन्द्रिय चमत्कार दिखाया करते थे, जो आज अमेरिका और रूस के वैज्ञानिक भी दिखा नहीं पाये।

वृक्ष, वनस्पति पैदा करना सूर्य का काम है। वायु का चलाना सूर्य का काम। ऋतु-परिवर्तन, प्रकाश, ताप और विद्युत शक्ति बाँटना सूर्य का काम। गुरुत्वाकर्षण द्वारा सम्पूर्ण ग्रहों को स्थिर रखना भी उसी की सामर्थ्य में है। कॉस्मिक किरणों (अल्फा किरण, बीटा किरण और गामा किरण) के द्वारा सम्पूर्ण सौरमण्डल में त्रिगुणात्मक चेतना फैलाने का काम सूर्य भगवान ही करते हैं। इसे उपनिषदों में सावित्री विद्या कहा है। यह गायत्री की ही स्थूल चेतना का ज्ञान है। आज अयन मण्डल (आइनोस्फियर) के नाम से इस सम्बन्ध की बहुत-सी बातें वैज्ञानिक भी जानने लगे हैं।

यह जानकारियाँ इतनी अधूरी हैं कि उतने मात्र में हमारी जिज्ञासा का समाधान नहीं हुआ। एक बार ऐसी ही उलझन एक ऋषि के समक्ष आई थी। उन्होंने आकाश की ओर आँखें फाड़कर देखा, तो स्तब्ध रह गए थे। उन्होंने समझ लिया था कि विराट् ब्रह्माण्ड के दर्शन स्थूल आँखों से नहीं किये जा सकते। यन्त्र भी कुछ ठोस सहायता देने वाले नहीं। विराट् दर्शन की जिज्ञासा भी इतनी प्रखर हो उठी थी कि ऋषि के लिये चुपचाप बैठना कठिन हो गया था।

तब उन्होंने आत्म-चेतना पर नियन्त्रण करने का अभ्यास प्रारम्भ किया। ध्यान द्वारा चित्तवृत्तियाँ एकाग्र कर उन्होंने मनो-जगत में प्रवेश किया तो पाया कि जो कुछ भी इस विराट् विश्व में है सौरमण्डल उसका एक नमूना है, उदाहरण है और जो कुछ सौरमण्डल में वह सब अण्ड (परमाणु) में है अर्थात् परमाणु में ही विराट् विश्व समाया हुआ है, इसीलिये हमें बड़े-से-बड़े बनने और अन्तरिक्ष बेधकर सुदूर नक्षत्रों में दौड़ने का कष्ट व समयसाध्य अभ्यास की आवश्यकता नहीं, वह सब हम छोटे-से-छोटे होकर जहाँ हैं, वहीं थोड़े समय में प्राप्त कर सकते हैं।

ब्रह्माँड की प्रतिकृति परमाणु पदार्थ का वह छोटे-से-छोटा टुकड़ा है, कण है जिसके और टुकड़े नहीं हो सकते। जो स्वतन्त्र अवस्था में उसी प्रकार नहीं रह सकता, जिस प्रकार सामाजिक आश्रय का पूर्ण परित्याग करके कोई जीवित नहीं रह सकता। किन्तु यही छोटे-से-छोटा अविभाज्य कण अपने भीतर पूरा सौर जगत् छिपाये है। योग-वसिष्ठ में कहा है-

परमाणौ परमाणौ सर्गवर्गा निरर्गलम्।

महाचितैः स्फुरन्त्यर्कसचीव त्रसरेणवः॥

-योग वसिष्ठ 32/7/29

अर्थात् सृष्टि के परमाणु-परमाणु के भीतर अनन्त सृष्टियाँ हैं। यह ऐसा ही है जैसे सूर्य की किरणों में अनेक त्रसरेणु दिखाई देते हैं।

आज का विज्ञान इस बात की अक्षरशः पुष्टि करता है। भौतिक विज्ञान के अनुसार पदार्थ का छोटे-से-छोटा टुकड़ा एक वैसा ही ब्रह्माण्ड है, जैसा सौर-मण्डल। जहाँ से उसकी स्थूलता समाप्त होकर सूक्ष्मता प्रारम्भ होती है, वहाँ आकाशीय पिण्डों की विलक्षण गतिविधियाँ देखने को मिलती हैं। सूर्य की तरह सबका स्वामी नाभिक (न्यूक्लियस) होता है। शक्ति और सामर्थ्य में भी वह सूर्य की तरह ही प्रखर और प्रचण्ड होता है।

नाभिक के आस-पास किसी तत्व में 1 कि.मी. में 7, 10, 15, 18, 22 आदि इलेक्ट्रॉन उसी तरह चक्कर लगाते रहते हैं, जिस तरह सूर्य के आस-पास ग्रह-उपग्रह चक्कर काटते हैं। क्लाड-सिद्धान्त (क्लाड थ्योरी) के अनुसार परमाणु में सौरमण्डल की तरह ही आकाश, ग्रह-नक्षत्र, उनका परिभ्रमण, उल्कापात आदि सब कुछ किसी क्रम-व्यवस्था में होता रहता है। जिस प्रकार परमाणु को एक केन्द्रीय सत्ता बाँधे है और सौरमण्डल को सूर्य उसी प्रकार समूचे ब्रह्माण्ड को भी एक आदि-शक्ति द्वारा बँधा होना चाहिये। ईश्वर के अस्तित्व का वह सबसे बड़ा प्रमाण है, जो विश्वास के बाद कसौटी पर खरा उतरता है। यह शक्ति ही संसार में व्यवस्था स्थापित करती है।

न्यूक्लियस में धन आवेश वाले कण (पार्टिकल्स) पाये जाते हैं, उन्हें ही प्रोटान्स कहते हैं। नाभिक में ही दूसरे प्रकार के कण होते हैं, जिसका भार हाइड्रोजन के परमाणु के बराबर होता है, किन्तु विद्युत् आवेश नहीं होता, उन्हें न्यूट्रॉन कहते हैं। परमाणु का भार प्रोटान और न्यूट्रॉन का सम्मिलित भार ही होता है। इसका व्यास 0000.000000001 मिलीमीटर अर्थात् प्रायः कुछ भी नहीं होता। वह कुछ भी नहीं है और उसी पर सारे परमाणु की सत्ता आश्रित है यह परस्पर विरोधी बाते हैं, पर यह है सत्य। तात्पर्य यह है कि नाभिक (न्यूक्लियस) का शक्ति भाग सूर्य हैं। उसकी समस्त क्रियायें सूर्य की तरह ही होती हैं।

परमाणु में रेडियो सक्रियता (रेडियो एक्टिविटी) नाभिक का ही गुण है। इसमें सूर्य की तरह तीन किरणें निकलती रहती हैं-1. अल्फा किरण, 2. बीटा किरणें, 3. गामा किरणें। अल्फा किरणें धन आवेशयुक्त (पॉजिटिव चार्ज) होती हैं, परन्तु गैसों को आयनीकृत (आयोनाइज) करने की क्षमता होती है। यह सादृश्य सूर्य से ज्यों-का-त्यों है। सूर्य भी अल्फा रेंज के माध्यम से हीलियम गैस ही निकालता (एमिट) है। यह छोड़ी हुई गैस या अल्फा किरणें ही आइनोस्फियर का निर्माण करती हैं, इसीलिये न्यूक्लियस को ही परमाणु का सूर्य या विश्वव्यापी चेतन सत्ता कहना चाहिये।

परमाणु का यह त्रसरेणु भी प्रकाश की गति के अनुसार ही चलता है। ग्रहों की तरह इलेक्ट्रॉन के कक्षा-पथ और उनके चलने, टूटने, एक कक्षा में कूदने की गतिविधियाँ भी परमाणु में अहर्निश चलती रहती हैं। गुरुत्वाकर्षण की भाँति एक शक्ति, जिसे केंद्र की ओर खींचे रहने वाली (सेण्ट्रीफयूगल फोर्स) कहते हैं, भी काम करते रहती है। नाभिक (न्यूक्लियस) की शक्ति का विस्तृत परिचय नाभिक विद्या (न्यूक्लियर साइन्स) संबंधी किसी लेख में अलग देंगे, तब उसकी क्षमता का पता चलेगा। संक्षेप में एक परमाणु की सारी शक्ति का विस्फोट कर उसे नियन्त्रण में ले लिया जाये, तो उससे इतनी गर्मी पैदा होगी, जिससे 27000 क्विन्टल जल क्षण भर में उबालकर उड़ाया जा सके।

ब्रह्माँड की दूरी का अनुमान नहीं किया जा सकता। पर परमाणु के नाभिक के अन्दर के प्रोटानों की दूरी तो कुल 1/2000000000000 इंच होती है। यदि यह दूरी आधा इंच होती, तो उन दोनों के बीच की दूरी 1/4 इंच होने पर शक्ति सोलह गुनी होती। 1/2 इंच होने पर 64 गुनी-तात्पर्य यह कि ब्रह्माँड की जो शक्ति विस्तार में हैं, परमाणु में वही शक्ति प्रोटानों की समीपता में है। पति-पत्नी जितने प्रेम और आत्मीयता से रहते हैं, उनकी शक्ति उतनी ही अधिक होती है। इसका अनुमान इस व्याख्या से चलता है अर्थात् दो प्रोटानों के बीच में 1/2000000000000 इंच की दूरी के बीच इतनी शक्ति होगी, जो इस्पात की 10 इंच मोटी चादर को भी काटकर रख देगी।

विराट् ब्रह्माँड की शक्तियों का कोई पारावार नहीं, पर अण्ड की शक्तियाँ उससे भी अधिक चमत्कारिक हैं। बड़े घेरे में हजार व्यक्तियों को बैठाया जा सकता हैं, पर यदि छोटे-से बिन्दु में सिन्धु भरा हो, तो उसे चमत्कार ही कहा जायेगा। यह चमत्कार सृष्टि के प्रत्येक परमाणु में भरा है, उस ध्यान-प्रणाली और योग-विद्या को जान लें, तो सूर्य की तरह हवा, पानी, आकाश, ग्रह, नक्षत्रों, पृथ्वी, पौधों, ऋतु, वनस्पतियों तक भी इच्छित परिवर्तन कर सकते हैं। भारतीय योगी इसी शक्ति के द्वारा विश्व-विजयी होते रहे हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118