विद्या ही तो सफलता का मूल आधार है।

August 1970

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प्राणि जगत में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना गया है। संसार के अन्य सारे पशुओं पर उसने सदा से शासन किया है। उन्हें अपने अधीन बनाया, प्रशिक्षण किया और उपयोगी बनाया है। यों तो प्राणिशास्त्र के अनुसार मनुष्य व पशु में कोई विशेष अन्तर नहीं है। मनुष्य भी एक पशु ही है। प्राणिजगत में सर्वोपरिता का गौरव पाने और अन्य पशुओं पर शासन कर उनको उपयोगी बना सकने का जो श्रेय मनुष्य को मिला है, उसका मूल कारण उसकी विकसित बुद्धि एवं विवेक ही है! पशुओं एवं मनुष्यों के बीच यही तो एक अन्तर है। मनुष्य में यही एक ऐसी विशेषता है जिसके कारण वह अन्य प्राणि जगत का स्वामी तथा गुरु बना हुआ है। यद्यपि शारीरिक रूप से अन्य असंख्यों पशु ऐसे हैं जिनकी तुलना में मनुष्य बहुत ही निर्बल तथा अपूर्ण है। किन्तु परमात्मा के विशेष वरदान के रूप में मिली बुद्धि ने उसे सर्वश्रेष्ठता एवं ज्येष्ठता प्रदान करा दी है।

पशुओं में मनुष्यों की तरह आगे की बात सोच सकने, वर्तमान को समझ सकने और परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर सकने की क्षमता नहीं होती! वे तो सामने की, सो भी खाने-पीने तथा प्रजनन संबंधी बातें अपनी नैसर्गिक प्रवृत्ति पर ही जान पाते हैं। जबकि मनुष्य दिन, मास, वर्षों तथा युगों की बात आज ही सोच सकता है।

मनुष्य के बौद्धिक विकास के प्रमाण रूप में हम आज के उन्नत-ज्ञान, आश्चर्यजनक वैज्ञानिक प्रयोग, विशाल उद्योग, यातायात तथा न्याय, चिकित्सा आदि की ओर विस्मय तथा संतोष के साथ देखते और मनुष्य होने पर गर्व करते हैं। यह सब कुछ मनुष्य की विकसित बुद्धि के ही चमत्कार हैं। बुद्धि के विकास से मनुष्य का जीवन धन्य हो जाता है, उसका मनुष्य होना सार्थक और संसार सुन्दर से सुन्दरतर हो जाता है। बुद्धि विकास के अभाव में मनुष्य अन्य पशुओं की भाँति ही सींग पूँछ से रहित पशु ही रहता है। मनुष्यता का लक्षण बुद्धि एवं विवेक का विकास ही है। पूर्ण मनुष्य बनने और सर्वोपरिता का श्रेय पाने के लिये हर संभव उपाय से मनुष्य को अपने बुद्धि विकास में लगा ही रहना चाहिये।

ईश्वर की ओर से लगभग समान बुद्धि तत्व का हर मनुष्य को अनुग्रह मिलता है। कोई जन्म-जात मेधावी विद्वान अथवा विवेकी कदाचित ही होता है जन्म लेने और चेतना अनुभव करने के बाद मनुष्य उसको अपने अध्यवसाय के बल पर ही विकसित करता तथा बढ़ाता है। जो जन्म-जात मेधावी माने जा सकते हैं, वे भी अपने पूर्व जन्म के अध्यवसाय के फल रूप वह विशेषता लेकर वर्तमान जीवन में जाग्रत होते हैं। आशय यह कि मनुष्य के लिये विवेक एवं बुद्धि का विकास उसके अध्यवसाय के आधार एवं अनुपात पर ही होता है।

मनुष्य के बुद्धि विकास के अध्यवसायों में विद्याध्ययन का स्थान प्रमुख तथा व्यापक है। विद्या की आवश्यकता न केवल बुद्धि विकास के ही लिये है, प्रत्युत यह लोक से लेकर परलोक तक की सभी सफलताओं का आधार है। जीवन को सफल, उच्च तथा परिपक्व बनाने के लिये युगों से संचित मानवीय ज्ञान की नितान्त आवश्यकता है। उन सारे महान व्यक्तियों ने, जिन्होंने उन्नति के चरम शिखरों को छूने का प्रयास किया है, अपने जीवन में अध्ययन संबंधी अध्यवसाय को प्रधानता दी है। उन्होंने लाख संकट उठाये, हजार अभावों में रहे, कितनी ही व्यग्रता एवं व्यथा की परिस्थितियां क्यों न आई हों अपने अध्ययन एवं ज्ञान संबंधी अभ्यास में व्यवधान न आने दिया। वे पुराने ज्ञान से जीवन का अनुभव और तात्कालिक विषयों का अधिकाधिक अध्ययन कर आधुनिक ज्ञान का लाभ उठाते ही गये।

यदि उन्हें ज्ञान की इतनी उत्कृष्ट अभिलाषा न होती या उसके महत्व को कम आँक कर यों ही मनोरंजन के रूप में कुछ पढ़ कर काम चलाने की सोची होती तो निश्चय ही वे उन्नति के उन सोपानों पर भी चरण न रख सकते जिसके अधिकारी बन कर आज विद्या, बुद्धि, ज्ञान, विवेक तथा आध्यात्मिक क्षेत्रों के उदाहरण बन चुके हैं। नित्य नियम से उत्तमोत्तम ग्रन्थों तथा विषयों का अध्ययन करते रहने से मनुष्य की बुद्धि में उस प्रखरता का सचमुच विकास होता रहता है जिसके आधार पर अच्छाई, बुराई, पाप-पुण्य का ठीक-ठीक निर्णय किया जा सकता हैं अपनी पाशविक प्रवृत्तियों पर विजय पाई जा सकती है और प्रगति की ओर विश्वस्त तथा निर्भय पग बढ़ाया जा सकता है।

विद्या के अभाव में उन्नति असंभव है। यही वह पूँजी है जो सच्चे अर्थों में मनुष्य का उत्थान कराती और यश व गौरव का अधिकारी बनाती है। ऐसा एक भी उदाहरण इस संसार में नहीं पाया जा सकता जिसके आधार पर यह कहने का साहस किया जा सके कि बिना ज्ञान एवं विद्या के भी उन्नति एवं प्रगति संभव मानी जा सकती है। उत्कर्ष का उपाय ज्ञान ही है। ज्ञान-तप को पूरा किये बिना न तो कोई उस उत्कर्ष का अधिकारी बना है और न बन सकता है। मनुष्यता का गौरव, आदमी की विशेषता और सागर का सारा वैभव विद्या-विभूति के ही अधीन माना गया है। ज्ञान रूपी तप किसी भी काल एवं अवस्था में क्यों न किया जाये कभी निष्फल नहीं जाता-कहा भी गया है-

गतेपि वयसि ग्राह्या विद्या सर्वात्मना बुधैः।

यद्यपि स्यान्न फलदा, सुलभा सान्यजन्मनि॥

आयु के निकल जाने पर भी विद्या प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील रहना बुद्धिमानी है। यदि वह किसी कारण से इस जन्म में फलवती न हुई तो आगामी जन्मों में सुलभ होगी।

निःसन्देह विद्या ऐसी ही अक्षय संपदा है जिसका तीनों लोक तीनों कालों में नाश नहीं होता। वह जन्म-जन्मान्तरों में मित्र की तरह मनुष्य के साथ बनी रहती है। प्रथम तो विद्या का फल आर्थिक सफलता के रूप में देखना ही नहीं चाहिये। फिर भी यदि वह अर्थकारी न भी हो पाती है तथापि उनके ज्ञान का जो एक अनिर्वचनीय एवं अहेतुक सन्तोष, शान्ति अथवा आनन्द है उसका तो कोई परिस्थिति नहीं छीन सकती।

विद्या के सर्वथा अभाव में सम्पन्नता भी नहीं और यदि वह उत्तराधिकार, संयोग अथवा किन्हीं उचित अनुचित उपायों से सुलभ भी हो गई तब भी उसका कोई मूल्य महत्व मनुष्यता के रूप में नहीं माना जा सकता। सच्चा मनुष्य वही है जिसके पास ज्ञान की विशेषता है, विद्या सभी धन है। विद्या की कृपा से मनुष्य का जीवन सार्थक बनता है। विद्या के कारण ही मनुष्य सभ्य समाज में आदर का अधिकारी बनता है। धन के आधार पर विद्या रहित व्यक्ति का आदर आडम्बर तथा प्रदर्शन मात्र होता है। उसमें कोई सत्यता अथवा हार्दिकता नहीं होती है। वह लोग उसे ठगने अपना उल्लू सीधा करने के लिये ही ऊपरी मन से आदर दिया करते हैं। सफलता, समाज, परिवार, आनन्द, उल्लास, आदर, सम्मान आदि के जो भी भौतिक सुख हैं विद्यावान व्यक्ति उन्हें यथार्थ रूप में भोगता ही है, साथ ही वह उसी आधार पर आगे बढ़ता हुआ आत्म-प्रकाश अथवा मोक्ष पद तक पा लेता है। विद्या ही सारे सुखों की जड़ और अविद्या ही सारे दुखों का हेतु माना गया है।

धन, वैभव, जमीन-जायदाद, शक्ति सुन्दरता आदि के आधार पर किसी की उन्नति, विकास अथवा व्यक्तित्व को परखने की कसौटी मूर्ख जनों की होती है। सज्जन एवं सत्पुरुष की कसौटी तो विद्या, बुद्धि, सद्ज्ञान, सदाचार, योग्यता एवं प्रतिभा ही रहा करती है। जिनने विद्वानों तथा बुद्धिमानों से सम्मान पाया, श्रेष्ठता तथा सफलता का प्रमाण पत्र प्राप्त किया है, वही वास्तव में सफल एवं श्रेष्ठ हैं अन्यथा व्यक्ति तो सफलता एवं श्रेष्ठता का झूठा सन्तोष कर आत्मप्रवंचना किया करते हैं।

अध्येयता अपनी आत्मा का सफल चिकित्सक माना गया है। अध्ययन द्वारा उपार्जित ज्ञान से वह शीघ्र ही अपनी आत्मा की व्याधियों को पहचान लेता है और उसी आधार पर उसका उपचार भी करता है। अविद्या से ग्रस्त मनुष्य की आत्मा प्रकाश से वंचित रह जाती है। आत्मिक प्रगति के अभाव में मनुष्य भी अन्य जीव-जन्तुओं की तरह ही हीन अवस्था में पड़ा रहता है और उन्हीं की तरह प्राकृतिक प्रेरणा से अपना जीवन यापन किया करता है। मनुष्य का वास्तविक लक्ष्य, अधोगामी परिस्थितियों से उठ कर ऊर्ध्व दिशा की ओर अभियान करना है। धर्म का सच्चा रूप पहचान कर उन पारमार्थिक कर्तव्यों को पूरा करना है, जिससे उसकी आत्मा दिनों-दिन मुक्ति की ओर ही अग्रसर होती रहे। नर तन पाकर भी जो मुक्ति की ओर अग्रसर होने से रह गया, वह मानों सब कुछ होते हुए असफल एवं अभाग्यवान ही है। यह आत्मिक प्रगति विद्या के अभाव में कदापि संभव नहीं हो सकती। उन्नति एवं अवनति के कर्मों का निर्णय विवेक के आधार पर किया जा सकता है, उसका विकास विद्या के बिना हो ही नहीं सकता।

न केवल आध्यात्मिक प्रगति ही वरन् भौतिक प्रगति भी विद्या के बिना नहीं हो सकती। मानसिक, सामाजिक, आर्थिक तथा वैयक्तिक हर प्रकार की उन्नति का मूल विद्या ही है। विद्या से मनुष्य का मानसिक संस्थान सन्तुलित एवं सुव्यवस्थित हो जाता है, जिससे वह अच्छाई-बुराई, हानि-लाभ, उत्थान-पतन आदि की परिस्थिति पर ठीक-ठाक विचार कर सकता है और उनको समुचित दिशा प्रदान कर सकता है।

समाज में जिधर देखिये, विद्यावान् को ही हाथों-हाथ लिया जाता है। अशिक्षित तथा अज्ञानी की कहीं पूछ नहीं होती। लोग उसका मन-ही-मन तिरस्कार किया करते हैं और संपर्क में आने पर मूर्ख, गंवार अथवा अज्ञानी समझ कर टालने-हटाने का उपक्रम किया करते हैं। परिवारों में भी प्रायः उन्हीं सदस्यों का प्रभाव रहता है और उन्हीं की बात ज्यादा मानी जाती हैं, जो शिक्षित तथा विद्यावान् होते हैं। अशिक्षित तथा अज्ञानी सदस्यों के प्रति बहुधा उपेक्षा का ही दृष्टिकोण रहा करता है। बच्चों में भी स्नेह तथा प्यार का अनुपात उसी मात्रा में रहा करता है, जिस मात्रा में वे शिक्षा की ओर अधिकाधिक अग्रसर रहा करते हैं। शिक्षित सन्तान पिता के गौरव तथा संतोष का कारण बनती है।

जिस प्रकार नेत्रहीन के लिये सारा संसार अन्धकारपूर्ण रहता है, सुन्दर दृश्यों तथा रंगों के आनन्द से वह वंचित रह जाता है। उसी प्रकार ज्ञानान्ध के लिये भी संसार का मधुर रहस्य, ज्ञान-विज्ञान के चमत्कार, साहित्य तथा कलाओं का आनन्द युग-युग संग्रहीत ज्ञान का रसास्वादन आदि सारे सुख निरर्थक ही रहते हैं। वह इन स्वर्गीय संपदाओं के बीच भी एक पशु की तरह ही केवल उदरपोषण की क्रिया में ही बहुमूल्य मानव-जीवन को नष्ट कर देता है। संसार से लेकर आत्मा तक के जितने सुख माने गये हैं, विद्या के अभाव में, अज्ञानी पुरुष उन सबसे सर्वथा वंचित ही रह जाता है।

यदि आपको जीवन में सुख-सम्मान पाना है, अपनी आत्मा को उन्नत बनाकर परमात्मा तक पहुँचने की जिज्ञासा है, तो आज से ही विद्या रूपी धन-संचय करने में लग जाइये। यदि आपकी साँसारिक व्यस्तता आपके लिये अधिक समय नहीं छोड़ती, तो भी थोड़ा-थोड़ा ज्ञान-संचय ही करते जाइये। बूँद-बूँद करके घट भर जाता है। जीवन के जिस क्षेत्र में आपको उन्नति करने की अभिलाषा है, आप जिस प्रकार की सफलता प्राप्त करना चाहते हैं। उसी विषय एवं क्षेत्र के अध्ययन में निरत हो जाइये। यदि आपका लक्ष्य सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् है तो आप उसी से उन्नति करते हुए अन्ततः अपने परम लक्ष्य आत्म साक्षात्कार तक पहुँच ही जायेंगे। मनुष्य ज्यों-ज्यों उसकी ज्ञान-पिपासा बढ़ती जाती है और वह अध्ययनशील बनता जाता है। संसार का कोई भी विषय पृथक नहीं है। वे सब ही ज्ञान सागर की बूंदें हैं जो अन्ततः एक ही चिरशाँति के लक्ष्य पर पहुँचा देती हैं।


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