हमीं अपने भाग्य का निर्माण करते हैं।

May 1964

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सदा तूँवों के सहारे तैर कर आप तैराक नहीं बन सकते-

आत्म-विश्वास की भावना मनुष्य की वास्तविक उन्नति का मूल कारण होती है, क्योंकि सामर्थ्य से ही विश्वास का उद्भाव होता है। समर्थ व्यक्ति ही उन्नति की चोटी पर चढ़ने में सफल हुआ करते हैं। परमुखापेक्षी व्यक्ति या जातियाँ पग-पग पर अपमानित होने के अतिरिक्त पर-तन्त्र रहते हैं और स्वतन्त्रता एवं आत्म-निर्भरता के प्रसादों से वंचित रहते हैं। ऐसे व्यक्तियों को यह बात भली प्रकार समझ लेनी चाहिये कि जो व्यक्ति सदा दूसरों की नकल ही करता रहता है वह कभी कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं कर सकता। जो व्यक्ति सदा तूँबों के सहारे तैरता है वह कभी तैराक नहीं बन सकता। इसी भाँति जो व्यक्ति या जाति दूसरों की दया और अनावश्यक सहायता पर निर्भर रहते हैं वे दुःखी और परतन्त्र ही बने रहेंगे। संसार के श्रेष्ठ लोग और सर्व साधारण भी स्वावलम्बी व्यक्ति का ही आदर करते हैं। जो व्यक्ति सुख और हर्ष का ओर ले जाने वाली प्रत्येक वस्तु के लिये अपने पर निर्भर रहता है तो समझ लो कि उसने सुखी जीवन की उत्तम योजना बना ली है। इस प्रकार का व्यक्ति बुद्धिमान, चरित्रवान और संयमी होता है।

आत्म-विश्वास की कमी ही हमारी बहुत-सी असफलताओं का कारण होती हैं। सफलता के प्रथम सोपान पर चढ़ने के लिये यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने ऊपर अविश्वास की भावना को कभी पास न फटकने दे। यदि हम अपने को कमजोर समझने लग जायँ तो निःसन्देह कमजोर बन जायेंगे। यदि अपने को बलवान समझने लगे तो हमारे भीतर बल का अभाव न रहेगा। इस प्रकार विश्वास रखकर काम करने का फल यह होता है कि मनुष्य को अपनी सुषुप्त शक्तियों का ज्ञान होने लगता है और उसको वह अनुभव होने लगता है कि वह उन अनेकों कार्यों को कर सकने में समर्थ है जिनको वह भाग्य के अधीन समझ कर छोड़ बैठा था।

-नैतिक जीवन

आत्म-विश्वास की अमोघ शक्ति-

आपके कार्य की नींव आपका आत्म-विश्वास है। आप अमुक कार्य कर सकते है इस विचार में ही शक्ति है। याद रखिये कि जिस मनुष्य में पूर्ण आत्म-विश्वास है, उसे अपने भविष्य के विषय में किसी प्रकार की चिन्ता नहीं रहती। वह उन आशंकाओं से मुक्त रहता है जिनसे कि दूसरे आदमी दबे रहते हैं। उस व्यक्ति को जो आत्म-विश्वास से सुरक्षित है कार्य और विचार की वह स्वाधीनता मिल जाती है जिससे उच्च कार्यों की सम्पादन शक्ति प्राप्त करने में बड़ी सहायता मिलती है।

जिस मनुष्य का मन भय, चिन्ता और शंका से भरा हो, वह कोई कार्य नहीं कर सकता, क्योंकि महान कार्य करने के लिये स्वाधीनता की भावना अत्यावश्यक है। शंका और सन्देह आपके मन की एकाग्रता में बाधक होते हैं। आत्म-विश्वास और आत्म-श्रद्धा प्रत्येक कार्य में प्रथम है। आत्म-विश्वास द्वारा ही मनुष्य ने बड़े-बड़े कार्य किये हैं और भारी विपत्तियों का सामना किया है। एक शक्तिशाली व्यक्ति के मन से जब आत्म-विश्वास घटने लगता है तो उसके पैर उखड़ जाते हैं। आपके जीवन का महान या साधारण होना आपके विश्वास की शक्ति पर निर्भर है। विश्वास होने से ही आप में और परमात्मा में एकता पैदा होती है और इसी के प्रभाव से आपके मन-मन्दिर में अनन्त शक्ति व अनन्त ज्ञान का अनुभव होता है। बहुत से व्यक्तियों को इस बात का पता ही नहीं होता कि विश्वास के कारण ही उन्हें सफलता प्राप्त होती है और विश्वास ही का प्रभाव उनके आदर्शों पर भी पड़ता है। वास्तव में विश्वास एक आध्यात्मिक कार्य-शक्ति है।

संसार में सभी बड़े-बड़े कार्य करने वाले व्यक्तियों में आप आत्म-विश्वास प्रचुर मात्रा में पायेंगे। उन्हें अपनी योग्यता, अपनी शक्ति और अपने कार्य पर पूर्ण रूप से भरोसा रहता है। आपको चाहिये कि आप भी अपना आत्म-विश्वास बनाये रखें और इस बात को ध्यान में रखें कि जिस कार्य में अपने हाथ डाला है उसे अवश्य ही पूरा कर लेंगे। आत्म-विश्वास के सहारे ही आप अपनी मंजिल पर पहुँच सकते हैं, क्योंकि आत्म-विश्वास के द्वारा आपकी की कार्य-शक्ति कई गुना बढ़ जाती है।

-’आप क्या नहीं कर सकते’

आप सब कुछ कर सकते हैं-

जीवन में उत्साह भरने के हेतु उपनिषद् काल के ऋषियों ने कहा था-’उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’ अर्थात् “उठो, जागो! जो श्रेष्ठ कार्य हैं उन्हें पहचानो और उनमें प्रवृत्त हों।” अन्तरात्मा से ध्वनित हुये ये शब्द उन जंजीरों को एक ही झटके में तोड़ देते हैं जो हमारे तन-मन को चारों ओर से घेरे रहती हैं। यह मन्त्र हमारे हृदय में नई आशा जगाता है, हमें नये उत्साह, नये विश्वास के साथ कार्य प्रवृत्त करता है। दूसरे के जीवन में आशा, उत्साह और विश्वास की ज्योति जगाने से पहले स्वयं अपने जीवन में इन गुणों का प्रकाश करना जरूरी है तभी हम दूसरों को कुछ देने योग्य बन सकते हैं। यदि हमारा अपने पर ही विश्वास नहीं, तो हम दूसरों को तो क्या देंगे, स्वयं अपनी कठिनाइयों का सामना भी न कर पायेंगे।

पर हमें यह याद रखना चाहिये कि आत्म-विश्वास और अहंकार में बड़ा भेद है। आत्म-विश्वास जितना सत्य के निकट की चीज है अहंकार उतना ही मिथ्या का पर्यायवाची है। जो यह जानता है कि वह क्या है, वह यह भी निर्णय कर सकता है कि उसे क्या करना है। आत्म-विश्वासी बातचीत में बार-बार अपने लक्ष्य का उल्लेख अहंकार से प्रेरित हो नहीं करता, वरन् इसलिये करता है कि उसके सामने प्रत्येक क्षण उस लक्ष्य का स्पष्टतर चित्र प्रकट होता रहे। इस प्रकार वह अपने अभिलाषित संकल्प को बलिष्ठ करता है और धैर्य के साथ अपने पथ पर गतिशील बने रहने की प्रेरणा प्राप्त करता है।

आत्म-विश्वासहीन व्यक्तियों को प्रायः अपने को क्षुद्र एवं तुच्छ मानने की धारणा हो जाती है। अपनी ही दृष्टि में गिर जाने से वे समझते हैं कि हम सबके द्वारा तिरस्कृत और उपेक्षित हैं। यह भावना हमको प्रायः निष्क्रिय बना देती है। इससे हमारे विचारों की गति रुक जाती है और हमारा व्यक्तित्व संकुचित हो जाता है। ऐसे आत्म-हीन व्यक्तियों का मन प्रायः यही सोचता रहता है कि दूसरे लोग उनके सम्बन्ध में क्या सम्मति रखते हैं। इसलिये आत्म विश्वासहीनता अपने पतन का सबसे बड़ा कारण बन जाती है।

-’सफल जीवन’

जीवन में हम आशावादी बनें-

कुछ वर्ष पहले ‘एक विश्व’ की कल्पना एक स्वप्न मात्र था। पर आज सब राष्ट्र इतने घुल-मिल गये हैं दूरी को वैज्ञानिक साधनों से इतना कम कर दिया गया है, कि सब राष्ट्र पड़ोसी की भाँति बन गये हैं। एक विश्व की यह कल्पना पहले कुछ चुने हुये लोगों की आशा और स्वप्न मात्र थी। आज भी उस स्वप्न को साकार होने में असंख्यों कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, किन्तु हमें विश्वास करना चाहिये कि हमारी आशा और श्रद्धा इन कठिनाइयों पर विजय पा लेगी। जीवन की सार्थकता भविष्य के प्रति हमारे सदैव आशान्वित रहने में है। आशान्वित व्यक्ति ही स्वप्न-योजक जीवन बिता सकता है। आज की कठिनाइयों से चिन्तित होकर हमें निराश और अविश्वासों नहीं बनना चाहिये।

संसार का भव्य-भवन जिन स्तम्भों पर खड़ा है वे वही हैं जो अनन्त आशावान् हैं। इनकी दृष्टि भूतकाल की ओर न रहकर भविष्य की ओर रहती है। जीवन में बाधाएँ तो आती ही हैं, लेकिन मनुष्य उन पर विजय अवश्य पाता है। आरम्भ से अब तक मनुष्य की आत्मा सब बाधाओं और कठिनाइयों के होते हुये भी आगे बढ़ती रही है। इसी अटूट आशा से संसार प्रगति कर रहा है। आशा न रहे तो वर्तमान की बाधाओं में ही वह डूब जाय। वर्तमान सदैव संघर्षशील रहता है। सत्य को तात्कालिक जगत पहले सदा अस्वीकार करता है, पर अन्त में सत्य के आगे हार माननी पड़ती है। संसार के सत्यासत्य भरे कोलाहल की नहीं सचाई की होती है। एक लोकोक्ति है कि ‘चन्द्रमा जब बिल्कुल पूर्ण होता है तभी उसका क्षीण होना आरम्भ होता है और जब अमावस्या को उसका पूर्ण विलोप हो जाता है, तभी चाँदनी रातें आरम्भ होती है।” अतः सब कुछ खोकर भी मनुष्य अपना जीवन आरम्भ कर सकता है। मनुष्य वही है जो कभी नहीं हारता।

-’सफल जीवन’


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