आर्य-अध्यात्म का उज्ज्वल स्वरूप

May 1964

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मानव जीवन को उत्कृष्टता की-पूर्णता की-लक्ष्यप्राप्ति की अन्तिम मंजिल तक पहुँचाने का एक मात्र उपाय अध्यात्म ही है। इससे लोक और परलोक की सार्थकता सुनिश्चित होती है। परलोक में स्वर्ग और मुक्ति, का लाभ उसे ही मिलता है जो अपने अन्तःकरण को आध्यात्मिक आदर्शों के अनुरूप ढाल लेने में सफल होता है। आत्म साक्षात्कार, ईश्वर-दर्शन एवं ब्रह्म प्राप्ति, की उपलब्धि का एक ही मार्ग है कि आत्मा पर चढ़े मल आवरण विक्षेपों को हटा कर उसे शुद्ध स्वरूप में विकसित किया जाय। लौकिक जीवन का प्रत्येक क्षेत्र उसी के लिए मंगलमय बनता है जिसने अपने गुण कर्म स्वभाव एवं दृष्टिकोण को परिष्कृत कर लिया है। श्रेय पथ पर चलने वाले लोग ही महापुरुष बनते हैं और इतिहास में अपना अनुकरणीय आदर्श छोड़ जाते हैं। यश-शरीर को अमर बनाने का सौभाग्य ऐसे ही लोगों को मिलता है।

सुदृढ़ स्वास्थ्य, समर्थ मन, स्नेह सहयोग, क्रिया कौशल, समुचित धन, सुदृढ़ दाम्पत्य, सुसंस्कृत सन्तान, प्रगतिशील विकास-क्रम, श्रद्धा सम्मान, सुव्यवस्थित एवं सन्तुष्ट जीवन का आधार केवल एक ही है- अध्यात्म। अपने को सुधारने से संसार सुधर जाता है। अपने को ठीक कर लेने से चारों ओर का वातावरण ठीक बनने में देर नहीं लगती। यह एक निश्चित तथ्य है कि जो अपने को सुधार न सका, अपने प्रति विधि को सुव्यवस्थित न कर सका, उसका इहलौकिक और पारलौकिक भविष्य अन्धकारमय ही बना रहेगा जो इस लोक को नहीं संभाल सका उसको परलोक क्या संभलेगा, जो इस जीवन में नारकीय मनोभूमि लिये बैठा है उसे परलोक में स्वर्ग मिलेगा ऐसी आशा करना व्यर्थ है। स्वर्ग की रचना इसी जीवन में करनी पड़ती है, दुष्प्रवृत्तियों के भव बन्धनों से इसी जीवन में मुक्त होना पड़ता है। परलोक में यही सफलताएं साकार बन जाती हैं। इसलिए मनीषियों ने मनुष्य की सबसे बड़ी बुद्धिमता उसकी आध्यात्मिक प्रवृत्ति को ही माना है।

आज सच कुछ औंधा और विकृत हो रहा है। अध्यात्म की भी कम दुर्गति नहीं हो रही है। अनात्मवादी, मानव-जीवन की पवित्र करने वाली हेय मान्यताएं अध्यात्म का आचरण ओढ़े बैठी हैं, जो कोई उनके चंगुल में फंस जाता है उसी की दुर्गति होती है। जीवन के क्रमिक विकास का सुनिश्चित मार्ग छोड़ कर भाग खड़े होते हैं। अस्त व्यस्त जीवन, नशेबाजी, आलस, प्रमाद, विचित्र वेश-विन्यास, संसार को मिथ्या कहने का फैशन यही आज के अध्यात्मवादी महात्माओं का स्वरूप है। जो उनके चंगुल में फँस जाता है उसे भी वही छूत लगा देते हैं। गृहस्थों का अध्यात्म और भी विलक्षण है, वे किसी मन्त्र-तन्त्र की दस पाँच माला फेर कर लाखों करोड़ों रुपये मूल्य के वरदान पाने के लिए देवताओं की मनौती मनाते रहते हैं। दर्शन, स्नान, कथा-वार्ता जैसे छोटे-छोटे कर्म-काण्डों द्वारा जन्म भर के किये पापों के दंड से बच निकलने की तरकीब ढूँढ़ते रहते है। उनके लिए स्वर्ग मुक्ति एक बाल-कल्पना मात्र होती है, जो छोटा-सा कर्म-काण्ड कर लेने मात्र में सहज ही मिल जाती है। इन भोले लोगों को ऐसे ही प्रलोभन देकर तथाकथित धर्मध्वजी ठगते खाते रहते हैं।

इस प्रवंचना में आज लाखों व्यक्ति भटक रहे हैं। उन्हें लाभ तो मिलना ही क्या था, धन और समय की बर्बादी ही हो सकती थी सो होती रहती है। कागज के बने नकली शेर से मनोरंजन मात्र हो सकता है असली सिंह के गुण उसमें कहाँ होते हैं? असली अध्यात्म के द्वारा लोक और परलोक का जो मंगलमय प्रतिफल मिल सकता था वह इस विकृत, औंधे एवं नकली अध्यात्म के द्वारा कैसे सम्भव हो सकता है? इस मार्ग पर चलने वालों की असफलता को देखते हुए सर्वसाधारण के मन में उसकी ओर से विरक्ति, उपेक्षा एवं अनास्था पैदा हो रही है। अब धर्म और अध्यात्म की चर्चा को नाक भौं सकोड़ते हुए ही सुना जाता है। हर समझदार व्यक्ति अपने बच्चों को उससे दूर रखने का प्रयत्न करता है ताकि वे भी इस भ्रम जंजाल में फँसकर अपना भविष्य अन्धकारमय न बनाने लगे।

प्राचीन काल में ऐसी बात न थी। लोग अपने छोटे बालकों को ऋषियों के आश्रमों में पढ़ने के लिए इसलिए भर्ती करते थे कि अध्यात्म का पारस स्पर्श करके उन लोहे जैसे बालकों को शोभायमान स्वर्ण बनने का अवसर मिलेगा। आग के संपर्क में आने वाले मनुष्यों को भी तेजस्वी, मनस्वी, और यशस्वी होना स्वाभाविक है। जीवन की दिशा ठीक कर देने और उसे परिष्कृत दृष्टिकोण से जिन्दगी जीने की प्रशंसा प्रेरणा का नाम ही तो अध्यात्म है। जिसे यह कल्पवृक्ष मिल गया उसे किसी बात की कमी नहीं रहती। जिसने इस अमृत को पा लिया उसे किसी अतृप्ति का कष्ट नहीं सहना पड़ता। अध्यात्म का प्रकाश जिसके भी हृदय से प्रकाशवान् हो उठा उसके चेहरे पर सन्तोष, उल्लास आशा एवं श्रेष्ठता की किरणें निश्चित रूप से बिखरी पड़ी होंगी। शोक सन्ताप उसे छू भी न गये होंगे। उसके जीवन का प्रत्येक क्षेत्र सुविकसित बन रहा होगा। वाणी तथा क्रिया में श्रेष्ठता टपक रही होगी और उसका व्यक्तित्व अपनी उत्कृष्टता से दूसरे अनेकों को बल एवं प्रकाश प्रदान कर रहा होगा।

असली अध्यात्म का स्वरूप आज लुप्तप्राय बन चुका है। जिसने अपने जीवन में आध्यात्मिक आदर्शों को उतारा हो ऐसे मनीषी ढूँढ़े नहीं मिलते। धर्म ग्रन्थ पढ़ने सुनने की कथा वार्ता एवं पूजा-पाठ की वस्तु बन गये हैं उनमें जिस जीवन निर्माण का बिखरा हुआ प्रशिक्षण है उसे आज की स्थिति के अनुरूप किस प्रकार कर्म रूप से परिणत किया जाय? उसके द्वारा प्राप्त होने वाली सफलताओं को प्रत्यक्ष करके कैसे लोगों को उस महत्ता के लिए प्रभावित एवं आकर्षित किया जाय इसका कोई विधान सामने नहीं है। प्राचीन काल की भाँति आज भी अध्यात्म को अपना कर मनुष्य अपने व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन को सुविकसित बना सकता है, उसकी कोई प्रत्यक्ष प्रक्रिया कहीं भी दृष्टि गोचर नहीं होती। बातूनी प्रतिपादन अब किसी के गले नहीं उतरते क्योंकि अध्यात्म के नाम पर अत्युक्तिपूर्ण बातें इतनी अधिक कहीं जा चुकी हैं कि उन पर विश्वास करने का सहसा किसी को भी साहस नहीं होता।

इस अभाव की पूर्ति की जानी चाहिए। अध्यात्म को अपनाने से लौकिक जीवन कितना सफल और समुन्नत हो सकता है इसे व्यवहार से प्रत्यक्ष करके, दिखाया जाय तभी इस महान् विज्ञान की उपयोगिता लोग समझ सकेंगे और उसे अपनाने के लिए उत्साहपूर्णता अग्रसर हो सकेंगे।

आर्य मान्यताओं के अध्यात्म का वास्तविक स्वरूप क्या है और उसे पूजा-पाठ तक सीमित न रखकर मस्तिष्क की प्रत्येक विचारणा और क्रिया की प्रत्येक हलचल में कैसे ओत-प्रोत किया जाय जिससे मानव-जीवन स्वर्गीय विभूतियों से भरा पूरा दिखाई देने लगे, यह प्रत्यक्षवाद के माध्यम में सिखाया समझाया जाना चाहिए। इसके बिना यह अवस्था मिट न सकेगी जिसके कारण लोग इस महान् तत्वज्ञान को निरुपयोगी समझ कर उससे दूर हटते चले जा रहे हैं।

जिस प्रकार हम देश-व्यापी अन्य समस्त विकृतियों के परिशोधन और अभावों की पूर्ति के लिए अनेकों प्रयत्न कर रहे हैं उसी प्रकार यह भी आवश्यक है कि अध्यात्मवाद के वर्तमान विकृत स्वरूप को हटा कर आर्ष अध्यात्मवाद का उज्ज्वल स्वरूप सर्व साधारण के सम्मुख प्रस्तुत किया जाय। निस्संदेह यह एक कठिन कार्य है। क्योंकि पिछले एक हजार वर्ष के अन्धकार युग में विदेशी षड़यन्त्र के अंग बन कर लोगों ने अध्यात्म के नाम इतना कूड़ा-कचरा जमा कर दिया है, जिसके नीचे हमारा प्राचीन आदर्श और प्रबुद्ध दर्शन एक प्रकार से दब ही गया है। भाग्यवाद, पलायनवाद, निराशावाद, उपेक्षावाद, पराधीनतावाद, अकर्मण्यतावाद, दीनता और जो कुछ बुरे-से-बुरा हो रहा हो, उसे ईश्वर इच्छा मान कर सहना-करना यही मुख्यतया अध्यात्मवाद के नाम पर कहा सुना गया है।

क्षण भंगुरता, पग-पग पर मौत का भय दिखाकर व्यक्तिगत और सामूहिक कर्तव्यों को माया बता कर सब कुछ छोड़कर भजन करने की ही शिक्षा दी गई है। सुधार संघर्ष और सेवा कार्यों को अहंकार बताया गया है और कहा गया है कि यह कार्य मनुष्य नहीं ईश्वर ही कर सकता है। इस प्रकार के विचारों के पीछे विदेशी शासकों के अत्याचारों को सन्तोषपूर्वक सहने की मनोभूमि प्रस्तुत करना ही एक मात्र उद्देश्य था। भावनाशील व्यक्तियों को उपेक्षावादी एकान्त सेवी बनाकर ही तो जनता को नेतृत्व विहीन किया जा सकता था। जरा-जरा से छोटे-छोटे कर्म काण्ड करके पापों के फल से बच निकलने का प्रलोभन देकर जातीय जीवन में दुश्चरित्रता का प्रवेश हो सकता है और इसी प्रकार तो कोई जाति सामूहिक रूप से निस्तेज की जा सकती थी। एक ओर तलवार से और दूसरी और इस पलायनवादी दर्शन से भारतीय समाज को निरस्त किया गया। तभी तो इतने लम्बे समय तक इतने बड़े जन समूह पर मुट्ठी भर लोग इतना नृशंस शासन कर सकने में समर्थ हुए।

तथाकथित धर्माचार्यों को, सन्त-महन्तों को इन्हीं दिनों पौ बारह करने का अवसर मिले। हर एक चतुर साधू बाबाजी ने अपने नाम के सम्प्रदाय खड़े किये और अपनी सिद्ध चमत्कारों की किम्वदन्तियाँ फैलाईं। आश्चर्य यह होता है कि इन सिद्ध चमत्कारी सन्तों से किसी ने यह न कहा कि आप इतने सामर्थ्यवान हैं तो इस अत्याचारी शासन से छुटकारे का प्रबन्ध तो कर दीजिए। उन दिनों भोली जनता बुरी तरह दिग्भ्रान्त होती रही और अगणित प्रकार के अनात्मवादी विचारों को अध्यात्म के नाम पर गले उतारती रही। आज भी परम्पराओं की दुहाई देकर इसी अन्धकार युग की भ्रांतियों को अध्यात्म माना जा रहा है। जुआ, सट्टा, बताने वाले, नशेबाज बाबाजी और मुफ्त का माल लूटने को लालची, अन्ध-विश्वासी आज भी अन्धे-कोढ़ी की जोड़ी बने बैठे हैं और जहाँ-तहाँ उन्हीं के लाभ पर अध्यात्मवाद की कूड़ा गाड़ी लुढ़क रही है।

यह स्थिति निश्चित रूप से बदली जानी चाहिए। हमें उस प्रबुद्ध अध्यात्म की जानकारी जन साधारण को करानी चाहिए जिसके स्पर्श मात्र से लोहे को पारस छूने के समान प्रतिक्रिया होती है। सच्ची अध्यात्म की मान्यताएं और भावनाएं मनुष्य में यदि थोड़ी सी भी प्रवेश कर सकें तो वह निश्चित रूप से संयमी, सदाचारी, प्रसन्न चित्त, निर्भय, उदार और सद्गुणी बनेगा। जिसमें इन गुणों का प्रवेश हो सका वह जीवन के हर क्षेत्र में प्रगति करेगा और प्रस्तुत कठिनाइयों में से प्रत्येक को अपने पुरुषार्थ द्वारा परास्त करके निज की तथा समाज की सुख शान्ति की सम्भावना अनेक गुनी बढ़ा सकने में समर्थ होगा। भारतीय व्यक्तित्व का स्तर और अपने समाज का स्तर ऊँचा उठाने के लिए अध्यात्म की मान्यताओं को गहराई तक जन मानस में उतार देना ही एक मात्र उपाय हो सकता है। इससे पूर्व वर्तमान विकृतियों का परिशोधन कर आर्ष अध्यात्म का उज्ज्वल स्वरूप निखार कर लोगों के समाने रखना होगा। प्राचीन धर्म शास्त्र में यह सब कुछ मौजूद है पर आवश्यकता इस बात की है कि उसे सुव्यवस्थित रूप से क्रमबद्ध किया जाय, जिससे सर्व साधारण के लिए उसकी उपयोगिता को समझ सकना सम्भव हो सके। साथ ही उसका प्रत्यक्ष स्वरूप भी प्रस्तुत करना होगा। आर्ष अध्यात्म के प्रशिक्षण प्रचार को व्यावहारिक स्वरूप देने बाते रचनात्मक कार्यों की व्यवस्था करनी होगी। अध्यात्म तत्व ज्ञान की सेवा में ऋषियों के सारे जीवन लगते थे, वे जानते थे कि मानव-कल्याण का यही एक मात्र उपाय है। आज यदि हम में से भी कुछ लोग वर्तमान दुरवस्था को सुधारने और आर्ष अध्यात्म को समुज्ज्वल रूप में प्रस्तुत करने के लिए कुछ करने को कटिबद्ध हो सकें तो निश्चय ही देश, धर्म, समाज और संस्कृति की भारी सेवा सम्भव हो सकेगी।


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