यों पुस्तकीय ज्ञान तो मनुष्य जीवन भर प्राप्त करता रह सकता है पर स्वभाव और संस्कारों का निर्माण बचपन में होता है। बारह तेरह वर्ष तक की अबोध आयु में बाह्य मस्तिष्क विकसित नहीं हो पाता, उस अवधि में अंतर्मन ही प्रधानतया काम करता है। इसलिए तब तक की शिक्षा सामने प्रस्तुत परिस्थितियों द्वारा ही प्राप्त होती है। छः वर्ष तक की आयु का प्रधान प्रशिक्षण माता द्वारा होता है और छः वर्ष से 12 वर्ष तक की आयु का उत्तरदायित्व पिता को संभालना पड़ता है। माता से मतलब उन सब महिलाओं से है जो घर के भीतर रहती और बालकों पर अपना प्रभाव डालती हैं। छः वर्ष के बाद बालक को घर की चहारदीवारी से बाहर बाह्य संसार में जो कुछ हो रहा है, होता है, उसका ज्ञान देकर शिशु, मस्तिष्क को सुविकसित करना पिता का काम है। पिता से मतलब यहाँ उन सब समर्थ पुरुषों से है जो बच्चों के बाह्य ज्ञान की अभिवृद्धि में सहायता पहुँचाते हैं।
इसके बाद गुरु का नम्बर आता है। हर माता का ज्ञान सीमित होता है, शिशु विकास के लिए जैसे मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक वातावरण की आवश्यकता होती है और प्रवृत्तियों के चढ़ाव उतार का जिन्हें विस्तृत अनुभव हो उसे अध्यापक, सर्वत्र नहीं मिलते। चिकित्सा का काम अनुभवी चिकित्सकों को ही सौंपा जाता है उसी प्रकार बालकों के अन्तःकरण का गुण कर्म स्वभाव का परिष्कृत निर्माण सुयोग्य उपाध्यायों द्वारा ही संभव होता है। प्राचीन काल में यह आवश्यकता गुरुकुलों में पूरी होती थी। प्रत्येक व्यक्ति अपने किशोर बालकों को गुरुकुलों में भेजता था।
तेरह-चौदह वर्ष से लेकर अठारह-बीस वर्ष तक की आयु ऐसी है जिसमें जोश अधिक और होश कम रहता है। इसे जीवन का सब से अधिक खतरनाक, सबसे अधिक महत्वपूर्ण समय कहा जा सकता है। महत्वपूर्ण इसलिए कि इस आयु में यदि किसी को सुसंस्कृत बनाया जा सके तो वह सामान्य स्थिति में रहते हुए भी महा मानव की भूमिका प्रस्तुत कर सकता है। खतरनाक इसलिए कि इस आयु में यदि कुसंगजन्य दुर्गुणों से न बचाया जा सका तो मनुष्य भावी जीवन में हीन, हेय और घृणित ही बन सकता है। बुद्धि विकास की, भावनाओं के उफान की, यह प्रथम अवधि इतनी संवेदनशील है कि जैसा कुछ भी मनुष्य इस आयु में ढल जाता है, जीवन भर प्रायः वैसा ही बना रहता है। अपवाद तो बुढ़ापे में भी सुधारने के होते हैं पर उनकी संख्या कम ही पाई जाती है।
युग-निर्माण के लिए प्रबुद्ध एवं मनस्वी व्यक्तियों की आवश्यकता है। यों नई पीढ़ी का निर्माण माता-पिता के उत्कृष्ट गुण, कर्म स्वभाव द्वारा ही होता है। पर इतने से भी काम नहीं चल सकता। उतनी आयु में किशोर अवस्था में उसकी संगति और व्यक्तित्व की ढलाई प्रमाणिक मनीषियों द्वारा होनी और की जानी चाहिए। सुगठित और सुसंस्कृत चरित्र के व्यक्ति ही महामानव बन सकते हैं, उन्हीं के द्वारा अपना या समाज का कुछ भला हो सकता है। इसलिए यह आवश्यक था कि व्यक्तियों के निर्माण की ढलाई करने वाला एक ऐसा शिक्षा केन्द्र बने जहाँ पूरा ध्यान इस बात पर दिया जाय कि आदर्श महामानव के गुण, कर्म, स्वभाव से सुसम्पन्न बनाने की दृष्टि से ही पूरा का पूरा प्रशिक्षण प्राचीन काल के गुरुकुलों की तरह होता रहे।
आज यों कई प्रकार के विद्यालय चलते हैं। उनमें नौकरी दिलाने वाली शिक्षा का उतना बड़ा पाठ्य-क्रम छात्रों के ऊपर लादा रहता है कि वे परीक्षा में उत्तीर्ण होने की चिन्ता में दिन-रात लगे और घुलते रहने के अतिरिक्त दूसरी बात सोच भी नहीं पाते। विद्यालयों में खेलों की व्यवस्था रहती है पर अधिकाँश छात्र उससे बचने का प्रयत्न करते हैं ताकि उस भारी कोर्स को पूरा करने में अधिक से अधिक समय जुटे सके। कैदी जैसा कठोर और अत्यधिक व्यस्त जीवन व्यतीत करते हुए किशोर जीवन बुरी तरह कुचल-मसल जाता है और फिर बड़े होने पर वे पास होकर नौकरी में भले ही लग जावें व्यक्तित्व की दृष्टि से मुरझाने और मसले हुए लोगों को मानसिक दृष्टि से जैसा लुञ्ज-पुञ्ज होना चाहिए वैसे ही गये-गुजरे बने रहते हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि प्राचीन काल की आर्ष शिक्षा पद्धति का वह स्वरूप पुनः विकसित किया जाये जिसमें सारा पाठ्य-क्रम इस प्रकार चुना हुआ हो जो छात्र के समग्र व्यक्तित्व की आवश्यकता पूर्ण करने में शरीर, मन और चरित्र को उत्कृष्ट प्रकार का बनाने में, कारगर सिद्ध हो। पुस्तकों से ही नहीं, परामर्शी, मनोरंजन, दिनचर्या और व्यवहार का सारा ढाँचा व्यक्तित्व के निर्माण की आवश्यकता को पूर्ण करने वाला हो। मानव जीवन की एक भी समस्या ऐसी न बचे जिसे वह शिक्षार्थी गहराई तक न समझ ले। आगे चलकर उसे जिन समस्याओं का सामना करना पड़ेगा या अन्य लोगों को जो मार्गदर्शन करना पड़ेगा उसका व्यावहारिक ज्ञान इतना परिपूर्ण होना चाहिए कि जिन्दगी जीना अत्यन्त सरल हो जाय और मनुष्य जन्म के सदुपयोग एवं आनन्द का पूरा-पूरा लाभ उठा सकने का अवसर मिल जाय। ऐसी शिक्षा को ही वास्तविक शिक्षा कहा जा सकता है। यों कहने को देश में कितने ही गुरुकुल भी चलते हैं, छात्रावासों समेत विद्यालय भी हैं, पर वहाँ भी भारी पाठ्यक्रमों को पूरा करने में ही बेचारे छात्र लगे रहते हैं और व्यक्तित्व निर्माण के विशेषज्ञों एवं महत्व देने वाले उपाध्यायों का अभाव होने से यह पहलू वहाँ भी उपेक्षित ही पड़ा रहता है। नाम मात्र की खाना-पूर्ति करके किसी प्रकार संतोष और दिखावा कर लिया जाता है। जब प्रशिक्षकों को ही उस विषय में समुचित ज्ञान नहीं तो वे बेचारे छात्रों को प्रेरणा देने वाली व्यवस्था भी कैसे जुटा सकेंगे। लेक्चर देने मात्र से छात्रों से ढाला नहीं जा सकता। उनकी प्रत्येक क्रिया और वृत्ति पर निरन्तर बारीकी से ध्यान रखा जा सके और गेहूँ विकृत उत्पन्न होने पर उसे तुरंत संभाल लिया जाने पर ही व्यक्तित्वों का निर्माण संभव है। इसी प्रकार यह भी आवश्यक है कि छात्र को निरन्तर कैसा अवसर मिलता रहे, जिससे उसका व्यक्तित्व निखरने और विकसित होने की प्रेरणा प्राप्त करता रहे।
प्रयत्न यह किया जा रहा है कि उत्कृष्ट व्यक्तित्व निर्माण की समग्र शिक्षा देने के लिए एक ऐसे विद्यालय का सूत्रपात कर ही दिया जाय जिससे इस युग की इस महान आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए कुछ ठोस काम बन पड़ना संभव हो सके। छात्रों को यदि चार वर्ष तक इस प्रकार का शिक्षण मिलने की सुविधा प्राप्त हो सके तो निश्चय ही वे एक आदर्श मानव बनकर अपना और समाज का भारी हित कर सकने की दृष्टि से आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
आजकल प्रत्येक अभिभावक का दृष्टिकोण यह रहता है कि उसके लड़के को कोई नौकरी मिले। सरकारी प्रमाणपत्रों से ही नौकरी मिलती है इसलिए अपने बच्चों को उसी शिक्षा पद्धति में लगाना पड़ता है। भले ही जितना पैसा और श्रम उस पढ़ाई में लगा है, नौकरी में उसका ब्याज भी वसूल न हो, पर करना वही पड़ता है। ऐसी परिस्थिति के लोगों के बालक इस पद्धति से लाभ नहीं उठा सकते। क्योंकि जीवन विद्या के विभिन्न पहलुओं का प्रशिक्षण ही इतना बड़ा होगा कि चार साल से उसे पूरा कर सकना काफी कठिन पड़ेगा, फिर साथ ही स्कूली जंजाल भी पढ़ाया जाय तो दोनों में से एक भी उद्देश्य पूरा न हो सकेगा। हमारी शिक्षा पद्धति में स्कूलों, छात्रों से अनेक गुना व्यावहारिक ज्ञान प्रत्येक दिशा में अधिक होगा पर नौकरी दिलाने वाला प्रमाण-पत्र न मिल सकने से दूसरों की दृष्टि में उस पढ़ाई का कोई मूल्य नहीं आँका जा सकता। इस शिक्षा के लिए उन्हीं परिवारों के बच्चे मिल सकते हैं जिनके घर में कृषि, वाणिज्य शिल्प आदि की परम्परागत व्यवस्था बनी चली आती है या फिर उन लोगों के बच्चे मिलेंगे जो निखरे हुए व्यक्तित्व का मूल्य समझते हैं और यह विश्वास करते हैं कि यदि मनुष्य सुयोग्य हो तो अपने पुरुषार्थ से इतना कमा सकता है जो इन नौकरी की दयनीय दुर्दशा में पड़े हुए लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक होगा।
जीवन जीने की समग्र शिक्षा प्रत्येक दृष्टि से नितान्त आवश्यक है। उसका आज नहीं तो कल व्यापक प्रसार होकर ही रहेगा। लाखों की संख्या में हर वर्ष स्कूलों से निकलने वाले छात्रों को नौकरियाँ आखिर मिलेंगी भी कहाँ से? फिर इतना धन और श्रम सेवा गंवा कर उठती आयु की उमंगों तथा आवश्यकताओं को कुचल मसल डालने में लाभ की क्या है? यह बात आज तो नहीं पर कल लोगों की समझ में जरूरी आवेगी। इतने महंगे मूल्य पर मिले हुए प्रमाणपत्र भी जब नौकरी दिलाने में समर्थ न होंगे तब लोग उसकी व्यर्थता समझेंगे और अपने बालकों का हित इस बात में मानेंगे कि शारीरिक और मानसिक दृष्टि से सुविकसित बनाने वाले शिक्षण क्रम के लाभ से उन्हें वंचित न किया जाय। जिस शिक्षा पद्धति का सूत्रपात बहुत छोटे रूप से हम करने जा रहे हैं, वह कुछ ही दिन में व्यापक रूप धारण करेगी। हमारी सुनिश्चित आस्था है कि कल का समझदार मनुष्य अपने बालकों को नौकरी के लिए नहीं सुविकसित व्यक्तित्व की उपलब्धि की दृष्टि से पढ़ाना पसंद करेगा। तब वही शिक्षा पद्धति चाहे सरकारी, चाहे गैर सरकारी रूप से लोकप्रिय और व्यापक होकर रहेगी, जैसा कि छोटा शिक्षण केन्द्र का आरंभ करने जा रहे है। तब ऐसी व्यवस्था प्रत्येक नगर गाँव में फलती-फूलती दिखाई देगी। ऐसी दशा में यहाँ से निकले हुए छात्र उन शिक्षा केन्द्रों के संचालक, व्यवस्थापक एवं अध्यापक बन कर राष्ट्र-निर्माण में महान योगदान दे सकेंगे।
अखण्ड-ज्योति परिवार के स्वजनों में से 25 किशोर छात्र लेकर यह प्रशिक्षण जल्दी ही आरंभ करेंगे। शिक्षा, छात्रावास आदि की कोई फीस न होगी। पर अपने भोजन वस्त्र का व्यय भार छात्रों को स्वयं ही उठाना पड़ेगा। इस योजना की चर्चा गत अंक में हुई थी। प्रसन्नता की बात है कि अनेक अभिभावकों ने अपने बालक इस शिक्षण के लिए भेजने की उत्सुकता प्रकट की है। अभी उनके विधिवत आवेदन-पत्र माँगे गये हैं। उनमें से छाँट होगी। क्योंकि लेने केवल 25 हैं। यदि शिक्षा की समुचित साधन व्यवस्था बन सकी तो प्रति वर्ष नये 25 छात्र लेने का भी क्रम चल सकता है और प्रथम कक्षा के छात्र दूसरी, तीसरी, चौथी में बैठते रहेंगे। किन्तु यदि स्थान की तंगी एवं सुयोग्य शिक्षकों की कमी बनी रही तो यह 25 छात्र ही हमारे द्वारा चार वर्ष तक पढ़ाये जाते रहेंगे और जब यहाँ सत्र चार वर्ष में पूरा हो जाय तब नये 25 फिर भर्ती करेंगे। व्यवस्था और विस्तार भविष्य के गर्भ में हैं पर आरंभ तो किया ही जा रहा है। इस वर्ष छात्रों का चुनाव करके अगले वर्ष 1 जुलाई से शिक्षा आरंभ करने का विचार है। सुविधा हो सकी तो यह कार्य पहले भी आरंभ हो सकता है।