वानप्रस्थ की परम तेजस्वी साधना

May 1964

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वर्णाश्रम धर्म भारतीय संस्कृति का मानव जीवन को सुविकसित करने का एक अत्यंत ही विवेकपूर्ण मार्ग है। किशोर अवस्था में शरीर और मन का संयम करने से भावी जीवन में सुदृढ़ता और समर्थता आती है। इसके बाद गृहस्थ में उपार्जन और अभिवर्धन की, पौरुष और विकास की साधना करते हुए आत्मा की उमंगों को तृप्त किया जाता है। छोटे बच्चों का उत्तरदायित्व जब बड़ा बच्चा संभाल ले, युवावस्था समाप्त हो जाय और पारिवारिक जिम्मेदारियाँ हल्की हो जायं तो हर मनुष्य का परम पवित्र कर्त्तव्य है कि ढलती आयु को आध्यात्मिक परिष्कार में लगावे। युवावस्था की आँधी मन के ऊपर कुछ कूड़ा कचरा बखेर जाती है। काम, क्रोध, लोभ, मोह से सना हुआ जीवन क्रम स्वभावतः कुछ ऐसे कलुषित अन्तःकरण पर जमा कर देता है कि यदि उन्हें शुद्ध न किया जाय तो स्वभाव का अंग एवं संस्कार रूप धारण करके वे जीव के लिए भव-बंधन में बाँधने वाले रस्से बन जाते हैं और उनमें जकड़ा हुआ वह पुनः चौरासी के चक्र में घूमने लगता है।

जिस प्रकार चढ़ती उम्र में ब्रह्मचर्य, यौवन में गृहस्थ आवश्यक है उसी प्रकार यह भी उचित है कि ढलती आयु को आत्म-कल्याण की साधना में लगाया जाय। उपासना, जीवन शोधन और परमार्थ के त्रिविध आध्यात्मिक कार्यक्रमों में पूरी तरह लग जाने का ठीक यही समय है। यदि इस ओर से उपेक्षा बरती गई तो शरीर त्यागते समय कुसंस्कारों में घिरा हुआ जीव बहुत ही त्रास पाकर विदा होता है। उस समय की मोह ममता तथा वासना तृष्णा उसे सद्गति का अधिकारी नहीं बनने देती। फिर उन्हीं प्रियजनों की, प्रिय वस्तुओं की समीपता पाने के लिए कर्मानुसार भली-बुरी योनियों में जन्मता मरता रहता है, जिसने मोह बन्धनों से छुटकारा प्राप्त नहीं किया उसके लिए जीवन मुक्ति असम्भव ही बनी रहेगी।

जिनकी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ इतनी हल्की हो गई हैं कि घर का ढर्रा थोड़े मार्ग दर्शन से अपने आप चलता रहे, उनके लिए सबसे बड़ी दूर-दर्शिता और बुद्धिमता की बात यही है कि वह आत्म-कल्याण की साधना में लगे और वानप्रस्थ जीवन के नियम धर्मों का पालन करना आरंभ कर दें। (1) स्वाध्याय सत्संग और चिन्तन मनन में समुचित समय लगाते हुए अपनी अन्तःभूमिका को अधिकाधिक परिष्कृत करने का प्रयत्न करें। (2) ईश्वर उपासना में अधिक मन लगावें। (3) अपने स्वभाव और संस्कारों को परमार्थ वृत्ति से सम्पन्न करने के लिए लोक-सेवा के कार्यक्रमों को विशुद्ध अध्यात्मिक साधना मानते हुए जन-कल्याण की प्रवृत्तियों में पूरे उत्साह के साथ भाग ले। संयम, सदाचार, त्याग, उदारता, निर्लोभता और निरहंकारता का सतर्कतापूर्वक अभ्यास करें। यह तीनों बातें जिनके जीवन क्रम का अंश बन गई समझना चाहिए कि वानप्रस्थ धर्म अपनाते हुए उसने मानव-जीवन की सफलता का द्वार प्रशस्त कर लिया।

आज की स्थिति अत्यंत दुःखदायक है। चार आश्रम मिट गये केवल एक गृहस्थ आश्रम ही बचा है। जब से होश संभाला और जब तक मरता है मनुष्य गृहस्थ ही बना रहता है। इसी प्रकार चार वर्णों में से तीन मिट गये एक वैश्य वर्ण ही शेष है। धन लालसा के अतिरिक्त किसी का और कोई लक्ष्य नहीं होता। तथाकथित साधु ब्राह्मण से लेकर चोर-डाकुओं तक हर वर्ग के व्यक्ति केवल धन की आकाँक्षा में ग्रसित और उसी का ताना-बाना बुनते देखे जाते हैं। इस प्रकार वर्णाश्रम धर्म की कमर टूट जाने से भारतीय समाज का सारा ढाँचा लड़खड़ा गया है। धर्म और संस्कृति एक विडम्बना के रूप में ही जीवित है। वर्णाश्रम धर्म की महान परम्पराएं ही जब नष्ट हो गईं, रीढ़ की हड्डी ही टूट गई है तो जो कुछ जीवित बचा है उसे मृत से गया बीता मानना चाहिए। आज हमारे महान धर्म की ऐसी ही दुर्गति हो रही है।

युग निर्माण की पुण्य बेला में सबसे अधिक आवश्यकता वानप्रस्थ आश्रम को जागृत करने की है। गृहस्थ की जिम्मेदारियों से निवृत्त हो जाने पर भी जो लोग ‘गृहमोह’ की बीमारी से, गठिया या लकवे के रोगी की तरह निर्जीव पड़े है उनमें पुनः जीवन संचार करने की आवश्यकता है। प्राचीन काल में यही वर्ग-केवल यही वर्ग सारे समाज को उत्कृष्ट बनाये रहने का उत्तरदायित्व अपने कंधे पर उठाता था और निस्वार्थ एवं सुयोग्य लोक सेवकों की आवश्यकता पूर्ण करता था। किसी समाज की उत्कृष्टता इस बात पर निर्भर रहती है कि उसमें अनुभवी, सुयोग्य, चरित्रवान और निस्वार्थ लोकसेवी कितनी संख्या में हैं। जहाँ यह तत्व जितना अधिक होगा वहाँ उतना ही प्रकाश, जीवन एवं उत्कर्ष दृष्टिगोचर होगा।

लोक सेवकों की आवश्यकता वेतन भोगी लोगों से पूरी नहीं की जा सकती। सरकारी महकमों में लाखों कर्मचारी तथाकथित लोकसेवा के लिए नियुक्त हैं। उनका दृष्टिकोण वेतन ही रहने से जो कुछ वे करते हैं वह उसकी अपेक्षा बहुत कम होता है जितना कि वह कर सकते थे। फिर भौतिक कामों में उनका कुछ उपयोग हो भी सकता है। आत्मिक स्तर ऊंचा उठाने में तो ऐसे लोग चाहिएं जो स्वयं सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों से ओत-प्रोत जीवन जी रहे हों। उपदेश से नहीं लोग आदर्श को प्रत्यक्ष देखकर प्रभावित होते हैं। वानप्रस्थ लोगों की निष्ठा, सच्चरित्रता, अनुभवशीलता और निस्वार्थता ही जन-जीवन को अनुप्राणित करने में समर्थ हो सकती है। ऐसे लोग वेतन से नहीं खरीदे जा सकते, जो खरीदे जाते हैं वे वेतन भर के लिए काम करते हैं। उतनी स्वल्प चेष्टाओं से लोक-निर्माण जैसे महान उद्देश्यों की पूर्ति संभव नहीं हो सकती। भारतीय धर्म को सजीव एवं सशक्त रखा जाना हो तो उसके लिए वानप्रस्थ परम्परा को पुनः सजीव करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं।

युग-निर्माण का उद्देश्य पूर्ण करने के लिये हमें चारों आश्रमों का ही पुनर्गठन करना है। ब्रह्मचारी किशारों के लिए चार वर्ष की,गृहस्थों के लिये एक मास की शिक्षण बन रही हो तो वानप्रस्थों को ही अछूता क्यों छोड़ा जायेगा, उनके लिए एक वर्ष की शिक्षा का कार्यक्रम बनाया गया है। इस अवधि में उपासना के एक ऊंचे स्तर तक पहुँचाने का, जीवन शोधन की दिशा में काफी आगे बढ़ चलने का और परमार्थ कार्यों में युग की आवश्यकता के अनुरूप समुचित अनुभव प्राप्त करने का कार्यक्रम बना लिया गया है और अखण्ड-ज्योति परिवार के उन भावनाशील एवं सुशिक्षित लोगों को इसी जेष्ठ सदी पूर्णिमा से एक वर्ष के लिए मथुरा आने का आमंत्रण गत अंक में दिया गया है।

कहने की आवश्यकता नहीं कि उच्च-स्तरीय गायत्री उपासना का पंचकोशी साधना क्रम, चान्द्रायण व्रत और गायत्री पुरश्चरणों की सम्मिलित साधना विधि कितनी प्रभावशाली हो सकती है। फिर उसके लिये गायत्री तपोभूमि का तीर्थ तथा सुयोग्य सान्निध्य एवं मार्ग दर्शन का लाभ साधना की सफलता के लिये कितना उपयोगी प्रसिद्ध हो सकता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि स्वाध्याय और सत्संग की कितनी समर्थ सुविधा यहाँ उपलब्ध है। जीवन शोधन के अनुकूल जहाँ सारा वातावरण हो वहाँ अनायास ही अपने संस्कार भी वैसे ही ढलने लगते हैं। कोई वानप्रस्थ का सच्चा लाभ प्राप्त करने का इच्छुक व्यक्ति मथुरा आकर प्रस्तुत शिक्षण योजना का लाभ ले तो वही विश्वास करना चाहिए कि उसे खाली हाथ न लौटना पड़ेगा।

त्रिविध प्रशिक्षण की जो महान योजनाएं गायत्री तपोभूमि में आरंभ की जा रही हैं उनकी सफलता इन वानप्रस्थ शिक्षार्थियों के उत्साह पर ही निर्भर रहेगी। उनके लिये वेतनभोगी अध्यापक नियुक्त नहीं किये जाते हैं। चार वर्ष के लिये ब्रह्मचारियों की शिक्षा, एक-एक महीने के लिये पत्नी तथा परिवार समेत आने वाले गृहस्थों की शिक्षा, प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा आगंतुकों की रोग निवृत्ति, के बहुर्मुखी व्यस्त कार्यक्रम होंगे। इन कार्यों में हमारे सहायक के रूप में यह एक वर्ष की शिक्षा प्राप्त करने के लिये आने वाले वानप्रस्थ ही कार्य करेंगे। साधना स्वाध्याय के अतिरिक्त इन्हें इस ज्ञान-दान में भी हाथ बंटाने का अवसर मिलेगा। सेवा धर्म अपनाये बिना किसी का भी अन्तःकरण शुद्ध नहीं हो सकता इसलिये यह धर्म सेवा भी उन्हें आत्म-कल्याण का एक श्रेष्ठ साधन मानते हुए करनी होगी।

एक वर्ष पूरा करके अधिकाँश वानप्रस्थ अपने-अपने क्षेत्र में लौटे जावेंगे और फिर यहाँ जो शिक्षा प्राप्त की गई है उसे निरन्तर व्यापक एवं विकसित बनाने के लिये प्रयत्न करते रहेंगे। जैसा शिक्षण केन्द्र मथुरा में बन रहा है वैसे या उससे मिलते-जुलते शिक्षण केन्द्र, शिक्षण शिविरों की योजना देश के कौने-कौने में की जानी है। एक वर्ष जिसने क्रमबद्ध रूप में यहाँ सीखा है वह एक कुशल प्रशिक्षक के रूप में अपने प्रदेश में आशाजनक प्रकाश फैला सकने में सफल होंगे ऐसी आशा है। युग-निर्माण की शत-सूत्री योजना में जो कार्यक्रम दिये गये हैं उन्हें मूर्तमान किया जाना है। षोडश संस्कार, पर्व, त्यौहार, गायत्री यज्ञ प्रवचन आदि का अभ्यास करके लोक शिक्षण को प्रभावशाली किया जाना है। धर्म चेतना को संगठित, सशक्त और सुविस्तृत बनाया जाना है। इसके लिये विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की योग्यता वाले व्यक्ति अनेक प्रकार की कार्य पद्धति आरंभ करेंगे। भारत ही नहीं समस्त विश्व में भारतीय संस्कृति के आधार पर मानव-समाज का नव-निर्माण किया जाना है। इसे परमार्थ बुद्धि एवं निर्लोभ वानप्रस्थ ही पूरा करेंगे। विचार क्राँति और सामाजिक क्राँति का युग-यज्ञ ऐसे ही तेजस्वी वानप्रस्थों के द्वारा सुनियोजित होगा। मानवता के परित्राण के लिये इसी वर्ग की सबसे अधिक आवश्यकता एवं उपयोगिता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए उन व्यक्तियों का आह्वान किया गया है जो परमार्थ के लिये अपना जीवन लगा कर माता मानवता को गौरवान्वित करने के लिये आगे बढ़ सकें।

इस प्रयोजन के लिये अशिक्षित, असमर्थ, रोगी, व्यसनी, दुर्गुणी, आलसी प्रकृति के वृद्धजनों की कोई उपयोगिता नहीं है। उन्हें अपने-अपने घरों पर रह कर ही प्राप्त मार्ग दर्शन के अनुसार आत्म-कल्याण की साधना करनी चाहिये जिनके जी में देश और धर्म के नव-निर्माण का उत्साह और साहस है, जो शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ और समर्थ हैं, जिनकी शिक्षा सुशिक्षित कहे जाने लायक जितनी है और जो अपना भोजन, वस्त्र आदि का निर्वाह व्यय स्वयं वहन कर सकें , अभी ऐसे ही थोड़े से वानप्रस्थ लिये जाने हैं। आगे सुविधा और आवश्यकतानुसार उनकी संख्या बढ़ाई जाती रहेगी।

अखण्ड ज्योति के गत अंक में इस प्रकार के वानप्रस्थों का आह्वान किया गया है। प्रसन्नता की बात है कि जागृत आत्माएं अपने शेष जीवन का श्रेष्ठतम उपयोग इस आह्वान को मान कर इस प्रशिक्षण की तैयारी कर रहे हैं उनके पत्र आ रहे हैं। चुने हुये लोगों का शिक्षाक्रम जेष्ठ सुदी 15 से आरंभ किया जाना है। यह शिक्षण क्रम हमारे भविष्य निर्माण में निर्णायक योग देगा, इसे हम सब अपनी आँखों से प्रत्यक्ष ही देखेंगे।


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